मंगलवार, 21 अगस्त 2018

अनन्य-शरणागति

|श्री परमात्मने नम:||
अनन्य-शरणागति
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्‌॥
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥
................( गीता १८ । ६२, ६६ )
भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने कहा-हे भारत ! सब प्रकारसे उस परमेश्व र की ही अनन्य-शरण को प्राप्त हो, उस परमात्माकी कृपासे ही परम शान्ति और सनातन परमधामको प्राप्त होगा। ( वह परमात्मा मैं ही हूं, अतएव ) सर्व धर्मों को अर्थात्‌ सम्पूर्ण कर्मोंके आश्रयको त्यागकर केवल एक मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्माकी अनन्य शरणको प्राप्त हो, मैं तुझे समस्त पापोंसे मुक्त कर दूंगा, तू शोक मत कर !
( १ ) भगवान्‌की उपर्युक्त आज्ञाके अनुसार हम सबको उनके शरण हो जाना चाहिये। लज्जा-भय, मान-बड़ाई और आसक्तिको त्यागकर शरीर और संसारमें अहंता-ममतासे रहित होकर केवल एक परमात्माको ही परम आश्रय, परम गति और सर्वस्व समझना तथा अनन्य भावसे अतिशय श्रद्धा, भक्ति एवं प्रेमपूर्वक निरन्तर भगवान्‌के निरन्तर नाम गुण, प्रभाव और स्वरूपका चिन्तन करते रहना एवं भगवान्‌का भजन-स्मरण करते हुए ही भगवदाज्ञानुसार कर्त्तव्यकर्मोंका निस्वार्थ भावसे केवल परमेश्वरके लिये ही आचरण करना चाहिये । संक्षेपमें इसीका नाम अनन्य-शरण है ।
चित्तसे भगवान्‌ सच्चिदानन्दघनके स्वरूपका चिन्तन, बुद्धिसे ‘सब कुछ एक नारायण ही है’ ऐसा निश्चय, प्राणोंसे ( श्वासद्वारा ) भगवन्नाम-जप, कानोंसे भगवान्‌के गुण, प्रभाव और स्वरूपकी महिमाका भक्तिपूर्वक श्रवण, नेत्रोंसे भगवान्‌की मूर्त्ति और भगवद्भक्तोंके दर्शन, वाणीसे भगवान्‌के गुण, प्रभाव और पवित्र नामका कीर्तन एवं शरीरसे भगवान्‌ और उनके भक्तोंकी निष्काम सेवा, ये सभी कर्म शरणागतिके अन्दर आ जाते हैं। इसप्रकार भगवत्सेवापरायण होनेसे भगवान्‌में प्रेम होता है।
( २ ) संसारमें जिन वस्तुओं को मनुष्य ‘मेरी कहता है, वे सब भगवान्‌की हैं । मनुष्य मूर्खतासे उनपर अधिकार आरोपण कर सुखी-दुःखी होता है। भगवान्‌ की सब वस्तुएँ भगवान्‌ के ही काममें लगनी चाहिये । भगवान्‌ के कार्य के लिये यदि संसार की सारी वस्तुएं मिट्टीक में मिल जायं तो भी बड़े आनन्द की बात है और उनके कार्य के लिये बनी रहें तो भी बड़े हर्षका विषय है। उनवस्तुओं को न तो अपनी सम्पत्ति समझना चाहिये और न उन्हें अपने भोगकी सामग्री ही मानना चाहिये। वास्तवमें तो सब कुछ केवल एक नारायण ही हैं, उनके सिवा और कुछ है ही नहीं। यों समझकर संसारमें जो कार्य किये जाते हैं, वही भगवत्‌-प्रेमरूप शरणकी प्राप्तिका साधन है।
( ३ ) उपर्युक्त प्रकार से जो कुछ भी कर्म किया जाय, सब भगवान्‌ के लिये करना चाहिये । इसीका नाम अर्पण है । जो कुछ भी हो रहा है, सब भगवान्‌ की इच्छा से हो रहा है, लीलामय की इच्छा से लीला हो रही है। इसमें व्यर्थके बुद्धिवादका बखेड़ा नहीं खड़ा करना चाहिये। अपनी सारी इच्छाएं भगवान्‌की इच्छामें मिलाकर अपना जीवन सर्वतोभावसे भगवान्‌को सौंप देना चाहिये। जब इस प्रकार जीवन समर्पण होकर प्रत्येक कर्म केवल भगवदर्थ ही होने लेगेंगे, तभी हमें भगवत्प्रेमकी कुछ प्राप्ति हुई है-हम भगवान्‌के शरण होने चले हैं, ऐसा समझा जायगा ।
( ४ ) प्रणव भगवान्‌का स्वरूप है, प्रणव के अर्थरूप सच्चिदानन्दघन परमात्मा की पूर्ण शरण हो जाने पर एक सच्चिदानन्दघन के सिवा और कुछ भी नहीं रह जाता। वह अपार, अचिन्त्य, पूर्ण, सर्वव्यापक एक परमात्मा ही अचल अनन्त आनन्दरूपसे सर्वत्र परिपूर्ण हैं। उस आनन्दको कभी नहीं भुलाना चाहिये। आनन्दघनके साथ मिलकर आनन्दघन ही बन जाना चाहिये । जो कुछ भासता है, जिसमें भासता है और जिसको भासता है, वह सब स्वप्न है,। इन सबके स्थानमें एक आनन्दघन परमात्मा ही परिपूर्ण है । इस पूर्ण आनन्दघनका ज्ञान भी उस आनन्दघनको ही है । वास्तवमें यही अनन्य-शरणागति है !
.......... ( श्री सेठजी )
{००४. ०८. फाल्गुन कृष्ण ११ सं० १९८६ (वि0) कल्याण -पृ० ९९२}


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