||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.२९)
सूक्ष्म शरीर
वागादिपञ्च श्रवणादिपञ्च
प्राणादिपञ्चाभ्रमुखानि पञ्च ।
बुद्ध्याद्यविद्यापि च कामकर्मणी
पुर्यष्टकं सूक्ष्मशरीरमाहुः ॥ ९८ ॥
(वागादि पांच कर्मेन्द्रियाँ,श्रवणादि पांच ज्ञानेन्द्रियाँ ,प्राणादि पांच प्राण, आकाशादि पांच भूत, बुद्धि आदि अंत:करण-चतुष्टय, अविद्या तथा काम और कर्म यह पुर्यष्टक अथवा सूक्ष्म शरीर कहलाता है)
इदं शरीरं श्रृणु सूक्ष्मसंज्ञितं
लिङ्गं त्वपञ्चीकृतभूतसम्भवम् ।
सवासनं कर्मफलानुभावकं
स्वाज्ञानतोऽनादिरुपाधिरात् मनः ॥ ९९ ॥
(यह सूक्ष्म अथवा लिंगशरीर अपञ्चीकृत भूतों से उत्पन्न हुआ है; यह वासनायुक्त होकर कर्म फलों का अनुभव कराने वाला है | और स्वस्वरूप का ज्ञान न होने के कारण आत्मा की अनादि उपाधि है)
स्वप्नो भवत्यस्य विभक्त्यवस्था
स्वमात्रशेषेण विभाति यत्र ।
स्वप्ने तु बुद्धिः स्वयमेव जाग्रत्-
कालीननानाविधवासनाभिः ।
कर्त्रादिभावं प्रतिपद्य राजते
यत्र स्वयंज्योतिरयं परात्मा ॥ १०० ॥
(स्वप्न इसकी अभिव्यक्ति की अवस्था है , जहां यह स्वयं ही बचा हुआ भासता है | स्वप्न में जहां यह स्वयंप्रकाश परात्मा शुद्ध चेतन ही [भिन्न भिन्न पदार्थों के रूप में] भासता है, बुद्धि जाग्रत्- कालीन नाना प्रकार की वासनाओं से, कर्ता आदि भावों को प्राप्त होकर स्वयं ही प्रतीत होने लगती है)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे
विवेक चूडामणि (पोस्ट.२९)
सूक्ष्म शरीर
वागादिपञ्च श्रवणादिपञ्च
प्राणादिपञ्चाभ्रमुखानि पञ्च ।
बुद्ध्याद्यविद्यापि च कामकर्मणी
पुर्यष्टकं सूक्ष्मशरीरमाहुः ॥ ९८ ॥
(वागादि पांच कर्मेन्द्रियाँ,श्रवणादि पांच ज्ञानेन्द्रियाँ ,प्राणादि पांच प्राण, आकाशादि पांच भूत, बुद्धि आदि अंत:करण-चतुष्टय, अविद्या तथा काम और कर्म यह पुर्यष्टक अथवा सूक्ष्म शरीर कहलाता है)
इदं शरीरं श्रृणु सूक्ष्मसंज्ञितं
लिङ्गं त्वपञ्चीकृतभूतसम्भवम् ।
सवासनं कर्मफलानुभावकं
स्वाज्ञानतोऽनादिरुपाधिरात्
(यह सूक्ष्म अथवा लिंगशरीर अपञ्चीकृत भूतों से उत्पन्न हुआ है; यह वासनायुक्त होकर कर्म फलों का अनुभव कराने वाला है | और स्वस्वरूप का ज्ञान न होने के कारण आत्मा की अनादि उपाधि है)
स्वप्नो भवत्यस्य विभक्त्यवस्था
स्वमात्रशेषेण विभाति यत्र ।
स्वप्ने तु बुद्धिः स्वयमेव जाग्रत्-
कालीननानाविधवासनाभिः ।
कर्त्रादिभावं प्रतिपद्य राजते
यत्र स्वयंज्योतिरयं परात्मा ॥ १०० ॥
(स्वप्न इसकी अभिव्यक्ति की अवस्था है , जहां यह स्वयं ही बचा हुआ भासता है | स्वप्न में जहां यह स्वयंप्रकाश परात्मा शुद्ध चेतन ही [भिन्न भिन्न पदार्थों के रूप में] भासता है, बुद्धि जाग्रत्- कालीन नाना प्रकार की वासनाओं से, कर्ता आदि भावों को प्राप्त होकर स्वयं ही प्रतीत होने लगती है)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे
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