॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - बत्तीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
धूममार्ग
और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका
और
भक्तियोग की उत्कृष्टता का वर्णन
कपिल
उवाच –
अथ
यो गृहमेधीयान् धर्मानेवावसन्गृहे ।
काममर्थं
च धर्मान् स्वान् दोग्धि भूयः पिपर्ति तान् ॥ १ ॥
स
चापि भगवद्धर्मात् काममूढः पराङ्मुखः ।
यजते
क्रतुभिर्देवान् पितॄंश्च श्रद्धयान्वितः ॥ २ ॥
तत्
श्रद्धया क्रान्तमतिः पितृदेवव्रतः पुमान् ।
गत्वा
चान्द्रमसं लोकं सोमपाः पुनरेष्यति ॥ ३ ॥
यदा
चाहीन्द्रशय्यायां शेतेऽनन्तासनो हरिः ।
तदा
लोका लयं यान्ति ते एते गृहमेधिनाम् ॥ ४ ॥
कपिलदेवजी
कहते हैं—माताजी ! जो पुरुष घरमें रहकर सकामभावसे गृहस्थके धर्मोंका पालन करता है
और उनके फलस्वरूप अर्थ एवं कामका उपभोग करके फिर उन्हींका अनुष्ठान करता रहता है,
वह तरह-तरहकी कामनाओंसे मोहित रहनेके कारण भगवद्धर्मोंसे विमुख हो
जाता है और यज्ञोंद्वारा श्रद्धापूर्वक देवता तथा पितरोंकी ही आराधना करता रहता है
॥ १-२ ॥ उसकी बुद्धि उसी प्रकारकी श्रद्धासे युक्त रहती है, देवता
और पितर ही उसके उपास्य रहते हैं; अत: वह चन्द्रलोकमें जाकर
उनके साथ सोमपान करता है और फिर पुण्य क्षीण होनेपर इसी लोकमें लौट आता है ॥ ३ ॥
जिस समय प्रलयकालमें शेषशायी भगवान् शेषशय्यापर शयन करते हैं, उस समय सकाम गृहस्थाश्रमियोंको प्राप्त होनेवाले ये सब लोक भी लीन हो जाते
हैं ॥ ४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - बत्तीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
धूममार्ग
और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका
और
भक्तियोग की उत्कृष्टता का वर्णन
ये
स्वधर्मान्न दुह्यन्ति धीराः कामार्थहेतवे ।
निःसङ्गा
न्यस्तकर्माणः प्रशान्ताः शुद्धचेतसः ॥ ५ ॥
निवृत्तिधर्मनिरता
निर्ममा निरहङ्कृताः ।
स्वधर्माप्तेन
सत्त्वेन परिशुद्धेन चेतसा ॥ ६ ॥
सूर्यद्वारेण
ते यान्ति पुरुषं विश्वतोमुखम् ।
परावरेशं
प्रकृतिं अस्योत्पत्त्यन्तभावनम् ॥ ७ ॥
द्विपरार्धावसाने
यः प्रलयो ब्रह्मणस्तु ते ।
तावद्
अध्यासते लोकं परस्य परचिन्तकाः ॥ ८ ॥
जो
विवेकी पुरुष अपने धर्मों का अर्थ और भोग-विलास
के लिये उपयोग नहीं करते,
बल्कि भगवान् की प्रसन्नता के लिये ही उनका पालन करते हैं—वे अनासक्त, प्रशान्त, शुद्धचित्त,
निवृत्तिधर्मपरायण, ममतारहित और अहंकारशून्य
पुरुष स्वधर्मपालनरूप सत्त्वगुण के द्वारा सर्वथा शुद्धचित्त हो जाते हैं ॥ ५-६ ॥
वे अन्त में सूर्यमार्ग (अर्चिमार्ग या देवयान) के द्वारा सर्वव्यापी पूर्णपुरुष
श्रीहरि को ही प्राप्त होते हैं—जो कार्य-कारणरूप जगत् के
नियन्ता, संसार के उपादान-कारण और उसकी उत्पत्ति, पालन एवं संहार करनेवाले हैं ॥ ७ ॥ जो लोग परमात्मदृष्टि से हिरण्यगर्भ की उपासना
करते हैं,वे दो परार्ध में होनेवाले ब्रह्माजी के
प्रलयपर्यन्त उनके सत्यलोकमें ही रहते हैं ॥ ८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - बत्तीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
धूममार्ग
और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका
और
भक्तियोग की उत्कृष्टता का वर्णन
क्ष्माम्भोऽनलानिलवियन्
मनैन्द्रियार्थ
भूतादिभिः परिवृतं प्रतिसञ्जिहीर्षुः ।
अव्याकृतं
विशति यर्हि गुणत्रयात्मा
कालं पराख्यमनुभूय परः स्वयम्भूः ॥ ९ ॥
एवं
परेत्य भगवन् तमनुप्रविष्टा
ये योगिनो जितमरुन्मनसो विरागाः ।
तेनैव
साकममृतं पुरुषं पुराणं
ब्रह्म प्रधानमुपयान्ति अगताभिमानाः ॥ १० ॥
अथ
तं सर्वभूतानां हृत्पद्मेषु कृतालयम् ।
श्रुतानुभावं
शरणं व्रज भावेन भामिनि ॥ ११ ॥
(कपिलदेवजी
कहते हैं) जिस समय देवतादि से श्रेष्ठ ब्रह्माजी अपने द्विपरार्धकाल के अधिकार को
भोगकर पृथ्वी,
जल, अग्रि, वायु,
आकाश, मन, इन्द्रिय,
उनके विषय (शब्दादि) और अहंकारादि के सहित सम्पूर्ण विश्व का संहार
करने की इच्छा से त्रिगुणात्मि का प्रकृति के साथ एकरूप होकर निर्विशेष परमात्मा में
लीन हो जाते हैं, उस समय प्राण और मन को जीते हुए वे विरक्त
योगिगण भी देह त्यागकर उन भगवान् ब्रह्माजी में ही प्रवेश करते हैं और फिर उन्हीं
के साथ परमानन्दस्वरूप पुराणपुरुष परब्रह्म में लीन हो जाते हैं। इससे पहले वे
भगवान् में लीन नहीं हुए, क्योंकि अब तक उनमें अहंकार शेष
था ॥ ९-१० ॥ इसलिये माताजी ! अब तुम भी अत्यन्त भक्तिभाव से उन श्रीहरि की ही
चरण-शरण में जाओ; समस्त प्राणियों का हृदय-कमल ही उनका
मन्दिर है और तुमने भी मुझसे उनका प्रभाव सुन ही लिया है ॥ ११ ॥
शेष
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - बत्तीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
धूममार्ग
और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका
और
भक्तियोग की उत्कृष्टता का वर्णन
आद्यः
स्थिरचराणां यो वेदगर्भः सहर्षिभिः ।
योगेश्वरैः
कुमाराद्यैः सिद्धैर्योगप्रवर्तकैः ॥ १२ ॥
भेददृष्ट्याभिमानेन
निःसङ्गेनापि कर्मणा ।
कर्तृत्वात्सगुणं
ब्रह्म पुरुषं पुरुषर्षभम् ॥ १३ ॥
स
संसृत्य पुनः काले कालेनेश्वरमूर्तिना ।
जाते
गुणव्यतिकरे यथापूर्वं प्रजायते ॥ १४ ॥
ऐश्वर्यं
पारमेष्ठ्यं च तेऽपि धर्मविनिर्मितम् ।
निषेव्य
पुनरायान्ति गुणव्यतिकरे सति ॥ १५ ॥
वेदगर्भ
ब्रह्माजी भी—जो समस्त स्थावर-जङ्गम प्राणियोंके आदिकारण हैं—मरीचि
आदि ऋषियों, योगेश्वरों, सनकादिकों तथा
योगप्रवर्तक सिद्धों के सहित निष्काम कर्म के द्वारा आदिपुरुष पुरुषश्रेष्ठ सगुण
ब्रह्मको प्राप्त होकर भी भेददृष्टि और कर्तृत्वाभिमानके कारण भगवदिच्छासे, जब
सर्गकाल उपस्थित होता है तब, कालरूप ईश्वरकी प्रेरणासे
गुणोंमें क्षोभ होनेपर फिर पूर्ववत् प्रकट हो जाते हैं ॥ १२—१४
॥ इसी प्रकार पूर्वोक्त ऋषिगण भी अपने-अपने कर्मानुसार ब्रह्मलोकके ऐश्वर्यको
भोगकर भगवदिच्छासे गुणोंमें क्षोभ होनेपर पुन: इस लोकमें आ जाते हैं ॥ १५ ॥
शेष
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - बत्तीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०५)
धूममार्ग
और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका
और
भक्तियोग की उत्कृष्टता का वर्णन
ये
त्विहासक्तमनसः कर्मसु श्रद्धयान्विताः ।
कुर्वन्ति
अप्रतिषिद्धानि नित्यान्यपि च कृत्स्नशः ॥ १६ ॥
रजसा
कुण्ठमनसः कामात्मानोऽजितेन्द्रियाः ।
पितॄन्
यजन्ति अनुदिनं गृहेष्वभिरताशयाः ॥ १७ ॥
त्रैवर्गिकास्ते
पुरुषा विमुखा हरिमेधसः ।
कथायां
कथनीयोरु विक्रमस्य मधुद्विषः ॥ १८ ॥
नूनं
दैवेन विहता ये चाच्युतकथासुधाम् ।
हित्वा
शृण्वन्ति असद्गाथाः पुरीषमिव विड्भुजः ॥ १९ ॥
जिनका
चित्त इस लोकमें आसक्त है और जो कर्मोंमें श्रद्धा रखते हैं, वे वेद में कहे हुए काम्य और नित्य कर्मों का साङ्गोपाङ्ग अनुष्ठान करने में
ही लगे रहते हैं ॥ १६ ॥ उनकी बुद्धि रजोगुण की अधिकता के कारण कुण्ठित रहती है,
हृदय में कामनाओं का जाल फैला रहता है और इन्द्रियाँ उनके वशमें
नहीं होतीं; बस, अपने घरोंमें ही आसक्त
होकर वे नित्यप्रति पितरोंकी पूजामें लगे रहते हैं ॥ १७ ॥ ये लोग अर्थ, धर्म, और कामके ही परायण होते हैं; इसलिये जिनके महान् पराक्रम अत्यन्त कीर्तनीय हैं, उन
भवभयहारी श्रीमधुसूदन भगवान्की कथा-वार्ताओंसे तो ये विमुख ही रहते हैं ॥ १८ ॥
हाय ! विष्ठा-भोजी कूकर-सूकर आदि जीवोंके विष्ठा चाहनेके समान जो मनुष्य
भगवत्कथामृतको छोडक़र निन्दित विषय-वार्ताओंको सुनते हैं—वे
तो अवश्य ही विधाताके मारे हुए हैं, उनका बड़ा ही मन्द भाग्य
है ॥ १९ ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - बत्तीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०६)
धूममार्ग
और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका
और
भक्तियोग की उत्कृष्टता का वर्णन
दक्षिणेन
पथार्यम्णः पितृलोकं व्रजन्ति ते ।
प्रजामनु
प्रजायन्ते श्मशानान्तक्रियाकृतः ॥ २० ॥
ततस्ते
क्षीणसुकृताः पुनर्लोकमिमं सति ।
पतन्ति
विवशा देवैः सद्यो विभ्रंशितोदयाः ॥ २१ ॥
तस्मात्त्वं
सर्वभावेन भजस्व परमेष्ठिनम् ।
तद्गुणाश्रयया
भक्त्या भजनीयपदाम्बुजम् ॥ २२ ॥
वासुदेवे
भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः ।
जनयत्याशु
वैराग्यं ज्ञानं यद्ब्रह्मदर्शनम् ॥ २३ ॥
गर्भाधानसे
लेकर अन्त्येष्टितक सब संस्कारों को विधिपूर्वक करनेवाले ये सकामकर्मी सूर्य से
दक्षिण ओर के पितृयान या धूममार्गसे पित्रीश्वर अर्यमा के लोक में जाते हैं और फिर
अपनी ही सन्ततिके वंशमें उत्पन्न होते हैं ॥ २० ॥ माताजी ! पितृलोकके भोग भोग
लेनेपर जब उनके पुण्य क्षीण हो जाते हैं, तब देवतालोग उन्हें
वहाँके ऐश्वर्यसे च्युत कर देते हैं और फिर उन्हें विवश होकर तुरन्त ही इस लोकमें
गिरना पड़ता है ॥ २१ ॥ इसलिये माताजी ! जिनके चरण-कमल सदा भजनेयोग्य हैं, उन भगवान्का तुम उन्हींके गुणोंका आश्रय लेनेवाली भक्तिके द्वारा सब
प्रकारसे (मन, वाणी और शरीरसे) भजन करो ॥ २२ ॥ भगवान्
वासुदेवके प्रति किया हुआ भक्तियोग तुरंत ही संसारसे वैराग्य और
ब्रह्मसाक्षात्काररूप ज्ञानकी प्राप्ति करा देता है ॥ २३ ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - बत्तीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०७)
धूममार्ग
और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका
और
भक्तियोग की उत्कृष्टता का वर्णन
यदास्य
चित्तमर्थेषु समेष्विन्द्रियवृत्तिभिः ।
न
विगृह्णाति वैषम्यं प्रियं अप्रियमित्युत ॥ २४ ॥
स
तदैवात्मनात्मानं निःसङ्गं समदर्शनम् ।
हेयोपादेय
रहितं आरूढं पदमीक्षते ॥ २५ ॥
ज्ञानमात्रं
परं ब्रह्म परमात्मेश्वरः पुमान् ।
दृश्यादिभिः
पृथग्भावैः भगवान् एक ईयते ॥ २६ ॥
एतावानेव
योगेन समग्रेणेह योगिनः ।
युज्यतेऽभिमतो
ह्यर्थो यद् असङ्गस्तु कृत्स्नशः ॥ २७ ॥
वस्तुत:
सभी विषय भगवद्रूप होनेके कारण समान हैं। अत: जब इन्द्रियोंकी वृत्तियोंके द्वारा
भी भगवद्भक्तका चित्त उनमें प्रिय-अप्रियरूप विषमताका अनुभव नहीं करता—सर्वत्र भगवान्का ही दर्शन करता है—उसी समय वह
सङ्गरहित, सबमें समानरूपसे स्थित, त्याग
और ग्रहण करनेयोग्य, दोष और गुणोंसे रहित, अपनी महिमामें आरूढ़ अपने आत्माका ब्रह्मरूपसे साक्षात्कार करता है ॥
२४-२५ ॥ वही ज्ञानस्वरूप है, वही परब्रह्म है, वही परमात्मा है, वही ईश्वर है, वही पुरुष है; वही एक भगवान् स्वयं जीव, शरीर, विषय, इन्द्रियों आदि
अनेक रूपोंमें प्रतीत होता है ॥ २६ ॥ सम्पूर्ण संसारमें आसक्तिका अभाव हो जाना—बस, यही योगियोंके सब प्रकारके योग-साधनका एकमात्र
अभीष्ट फल है ॥ २७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - बत्तीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०८)
धूममार्ग
और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका
और
भक्तियोग की उत्कृष्टता का वर्णन
ज्ञानमेकं
पराचीनैः इन्द्रियैर्ब्रह्म निर्गुणम् ।
अवभात्यर्थरूपेण
भ्रान्त्या शब्दादिधर्मिणा ॥ २८ ॥
यथा
महान् अहंरूपः त्रिवृत् पञ्चविधः स्वराट् ।
एकादशविधस्तस्य
वपुरण्डं जगद्यतः ॥ २९ ॥
एतद्वै
श्रद्धया भक्त्या योगाभ्यासेन नित्यशः ।
समाहितात्मा
निःसङ्गो विरक्त्या परिपश्यति ॥ ३० ॥
ब्रह्म
एक है,
ज्ञानस्वरूप और निर्गुण है, तो भी वह बाह्य
वृत्तियोंवाली इन्द्रियोंके द्वारा भ्रान्तिवश शब्दादि धर्मोंवाले विभिन्न
पदार्थोंके रूपमें भास रहा है ॥ २८ ॥ जिस प्रकार एक ही परब्रह्म महत्तत्त्व,
वैकारिक, राजस और तामस—तीन
प्रकारका अहंकार, पञ्चमहाभूत एवं ग्यारह इन्द्रियरूप बन गया
और फिर वही स्वयंप्रकाश इनके संयोगसे जीव कहलाया, उसी प्रकार
उस जीवका शरीररूप यह ब्रह्माण्ड भी वस्तुत: ब्रह्म ही है, क्योंकि
ब्रह्मसे ही इसकी उत्पत्ति हुई है ॥ २९ ॥ किन्तु इसे ब्रह्मरूप वही देख सकता है,
जो श्रद्धा, भक्ति और वैराग्य तथा निरन्तरके
योगाभ्यासके द्वारा एकाग्रचित्त और असङ्गबुद्धि हो गया है ॥ ३० ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - बत्तीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०९)
धूममार्ग
और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका
और
भक्तियोग की उत्कृष्टता का वर्णन
इत्येतत्कथितं
गुर्वि ज्ञानं तद्ब्रह्मदर्शनम् ।
येन
अनुबुद्ध्यते तत्त्वं प्रकृतेः पुरुषस्य च ॥ ३१ ॥
ज्ञानयोगश्च
मन्निष्ठो नैर्गुण्यो भक्तिलक्षणः ।
द्वयोरप्येक
एवार्थो भगवत् शब्दलक्षणः ॥ ३२ ॥
यथेन्द्रियैः
पृथग्द्वारैः अर्थो बहुगुणाश्रयः ।
एको
नानेयते तद्वद् भगवान् शास्त्रवर्त्मभिः ॥ ३३ ॥
क्रियया
क्रतुभिर्दानैः तपःस्वाध्यायमर्शनैः ।
आत्मेन्द्रियजयेनापि
सन्न्यासेन च कर्मणाम् ॥ ३४ ॥
योगेन
विविधाङ्गेन भक्तियोगेन चैव हि ।
धर्मेणोभयचिह्नेन
यः प्रवृत्तिनिवृत्तिमान् ॥ ३५ ॥
आत्मतत्त्वावबोधेन
वैराग्येण दृढेन च ।
ईयते
भगवानेभिः सगुणो निर्गुणः स्वदृक् ॥ ३६ ॥
पूजनीय
माताजी ! मैंने तुम्हें यह ब्रह्मसाक्षात्कारका साधनरूप ज्ञान सुनाया, इसके द्वारा प्रकृति और पुरुषके यथार्थस्वरूपका बोध हो जाता है ॥ ३१ ॥
देवि ! निर्गुणब्रह्म-विषयक ज्ञानयोग और मेरे प्रति किया हुआ भक्तियोग—इन दोनोंका फल एक ही है। उसे ही भगवान् कहते हैं ॥ ३२ ॥ जिस प्रकार रूप,
रस एवं गन्ध आदि अनेक गुणोंका आश्रयभूत एक ही पदार्थ भिन्न-भिन्न
इन्द्रियों द्वारा विभिन्नरूप से अनुभूत होता है, वैसे ही
शास्त्र के विभिन्न मार्गों द्वारा एक ही भगवान् की अनेक प्रकारसे अनुभूति होती
है ॥ ३३ ॥ नाना प्रकारके कर्मकलाप, यज्ञ, दान, तप, वेदाध्ययन, वेदविचार (मीमांसा), मन और इन्द्रियों के संयम,
कर्मों के त्याग, विविध अङ्गोंवाले योग,
भक्तियोग, निवृत्ति और प्रवृत्तिरूप सकाम और
निष्काम दोनों प्रकारके धर्म, आत्मतत्त्वके ज्ञान और दृढ़
वैराग्य—इन सभी साधनोंसे सगुण-निर्गुणरूप स्वयंप्रकाश भगवान्को
ही प्राप्त किया जाता है ॥ ३४—३६ ॥
शेष
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - बत्तीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट१०)
धूममार्ग
और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका
और
भक्तियोग की उत्कृष्टता का वर्णन
प्रावोचं
भक्तियोगस्य स्वरूपं ते चतुर्विधम् ।
कालस्य
च अक्तगतेः योऽन्तर्धावति जन्तुषु ॥ ३७ ॥
जीवस्य
संसृतीर्बह्वीः अविद्याकर्म निर्मिताः ।
यास्वङ्ग
प्रविशन्नात्मा न वेद गतिमात्मनः ॥ ३८ ॥
नैतत्खलायोपदिशेन्
नाविनीताय कर्हिचित् ।
न
स्तब्धाय न भिन्नाय नैव धर्मध्वजाय च ॥ ३९ ॥
न
लोलुपायोपदिशेत् न गृहारूढचेतसे ।
नाभक्ताय
च मे जातु न मद्भक्तद्विषामपि ॥ ४० ॥
श्रद्दधानाय
भक्ताय विनीताय अनसूयवे ।
भूतेषु
कृतमैत्राय शुश्रूषाभिरताय च ॥ ४१ ॥
बहिर्जातविरागाय
शान्तचित्ताय दीयताम् ।
निर्मत्सराय
शुचये यस्याहं प्रेयसां प्रियः ॥ ४२ ॥
य
इदं श्रृणुयाद् अम्ब श्रद्धया पुरुषः सकृत् ।
यो
वाभिधत्ते मच्चित्तः स ह्येति पदवीं च मे ॥ ४३ ॥
(कपिलदेवजी
कहते हैं) माताजी ! सात्त्विक, राजस, तामस
और निर्गुण- भेदसे चार प्रकारके भक्तियोगका और जो प्राणियोंके जन्मादि विकारोंका
हेतु है तथा जिसकी गति जानी नहीं जाती, उस कालका स्वरूप मैं
तुमसे कह ही चुका हूँ ॥ ३७ ॥ देवि ! अविद्याजनित कर्मके कारण जीवकी अनेकों गतियाँ
होती हैं; उनमें जानेपर वह अपने स्वरूपको नहीं पहचान सकता ॥
३८ ॥ मैंने तुम्हें जो ज्ञानोपदेश दिया है—उसे दुष्ट,
दुर्विनीत, घमंडी, दुराचारी
और धर्मध्वजी (दम्भी) पुरुषोंको नहीं सुनाना चाहिये ॥ ३९ ॥ जो विषयलोलुप हो,
गृहासक्त हो, मेरा भक्त न हो अथवा मेरे
भक्तोंसे द्वेष करनेवाला हो, उसे भी इसका उपदेश कभी न करे ॥ ४०
॥ जो अत्यन्त श्रद्धालु, भक्त, विनयी,
दूसरोंके प्रति दोषदृष्टि न रखनेवाला, सब
प्राणियोंसे मित्रता रखनेवाला, गुरुसेवामें तत्पर, बाह्य विषयोंमें अनासक्त, शान्तचित्त, मत्सरशून्य और पवित्रचित्त हो तथा मुझे परम प्रियतम माननेवाला हो, उसे इसका अवश्य उपदेश करे ॥ ४१-४२ ॥ मा ! जो पुरुष मुझमें चित्त लगाकर
इसका श्रद्धापूर्वक एक बार भी श्रवण या कथन करेगा, वह मेरे
परमपदको प्राप्त होगा ॥ ४३ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे
कपिलेये द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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