॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पचीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
देवहूति
का प्रश्र तथा भगवान् कपिलद्वारा
भक्तियोग
की महिमा का वर्णन
शौनक
उवाच ।
कपिलस्तत्त्वसङ्ख्याता
भगवान् आत्ममायया ।
जातः
स्वयमजः साक्षाद् आत्मप्रज्ञप्तये नृणाम् ॥ १ ॥
न
ह्यस्य वर्ष्मणः पुंसां वरिम्णः सर्वयोगिनाम् ।
विश्रुतौ
श्रुतदेवस्य भूरि तृप्यन्ति मेऽसवः ॥ २ ॥
यद्
यद् विधत्ते भगवान् स्वच्छन्दात्मात्ममायया ।
तानि
मे श्रद्दधानस्य कीर्तन्यान्यनुकीर्तय ॥ ३ ॥
सूत
उवाच -
द्वैपायनसखस्त्वेवं
मैत्रेयो भगवांस्तथा ।
प्राहेदं
विदुरं प्रीत आन्वीक्षिक्यां प्रचोदितः ॥ ४ ॥
मैत्रेय
उवाच -
पितरि
प्रस्थितेऽरण्यं मातुः प्रियचिकीर्षया ।
तस्मिन्
बिन्दुसरेऽवात्सीत् भगवान् कपिलः किल ॥ ५ ॥
तमासीनमकर्माणं
तत्त्वमार्गाग्रदर्शनम् ।
स्वसुतं
देवहूत्याह धातुः संस्मरती वचः ॥ ६ ॥
शौनकजीने
पूछा—सूतजी ! तत्त्वों की संख्या करने वाले भगवान् कपिल साक्षात् अजन्मा
नारायण होकर भी लोगों को आत्मज्ञान का उपदेश करने के लिये अपनी माया से उत्पन्न
हुए थे ॥ १ ॥ मैंने भगवान् के बहुत-से चरित्र सुने हैं, तथापि
इन योगिप्रवर पुरुषश्रेष्ठ कपिलजी की कीर्ति को सुनते-सुनते मेरी इन्द्रियाँ तृप्त
नहीं होतीं ॥ २ ॥ सर्वथा स्वतन्त्र श्रीहरि अपनी योगमाया द्वारा भक्तों की इच्छा के
अनुसार शरीर धारण करके जो-जो लीलाएँ करते हैं, वे सभी कीर्तन
करने योग्य हैं; अत: आप मुझे वे सभी सुनाइये, मुझे उन्हें सुननेमें बड़ी श्रद्धा है ॥ ३ ॥
सूतजी
कहते हैं—मुने ! आपकी ही भाँति जब विदुर ने भी यह आत्मज्ञानविषयक प्रश्र किया,
तो श्रीव्यासजी के सखा भगवान् मैत्रेय जी प्रसन्न होकर इस प्रकार
कहने लगे ॥ ४ ॥
श्रीमैत्रेयजीने
कहा—विदुरजी ! पिताके वनमें चले जानेपर भगवान् कपिल जी माता का प्रिय करने की
इच्छासे उस बिन्दुसर तीर्थ में रहने लगे ॥ ५ ॥ एक दिन तत्त्वसमूह के पारदर्शी
भगवान् कपिल कर्मकलाप से विरत हो आसनपर विराजमान थे। उस समय ब्रह्माजीके वचनोंका
स्मरण करके देवहूति ने उनसे कहा ॥ ६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पचीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
देवहूति
का प्रश्र तथा भगवान् कपिलद्वारा
भक्तियोग
की महिमा का वर्णन
देवहूतिरुवाच
।
निर्विण्णा
नितरां भूमन् असत् इन्द्रियतर्षणात् ।
येन
सम्भाव्यमानेन प्रपन्नान्धं तमः प्रभो ॥ ७ ॥
तस्य
त्वं तमसोऽन्धस्य दुष्पारस्याद्य पारगम् ।
सच्चक्षुर्जन्मनामन्ते
लब्धं मे त्वदनुग्रहात् ॥ ८ ॥
य
आद्यो भगवान् पुंसां ईश्वरो वै भवान्किल ।
लोकस्य
तमसान्धस्य चक्षुः सूर्य इवोदितः ॥ ९ ॥
अथ
मे देव सम्मोहं अपाक्रष्टुं त्वमर्हसि ।
योऽवग्रहोऽहं
मम इति इति एतस्मिन् योजितस्त्वया ॥ १० ॥
तं
त्वा गताहं शरणं शरण्यं
स्वभृत्यसंसारतरोः कुठारम् ।
जिज्ञासयाहं
प्रकृतेः पूरुषस्य
नमामि सद्धर्मविदां वरिष्ठम् ॥ ११ ॥
देवहूति
बोली—भूमन् ! प्रभो ! इन दुष्ट इन्द्रियोंकी विषय-लालसा से मैं बहुत ऊब गयी हूँ
और इनकी इच्छा पूरी करते रहने से ही घोर अज्ञानान्धकार में पड़ी हुई हूँ ॥ ७ ॥ अब
आपकी कृपा से मेरी जन्मपरम्परा समाप्त हो चुकी है, इसीसे इस
दुस्तर अज्ञानान्धकार से पार लगाने के लिये सुन्दर नेत्ररूप आप प्राप्त हुए हैं ॥
८ ॥ आप सम्पूर्ण जीवों के स्वामी भगवान् आदिपुरुष हैं तथा अज्ञानान्धकार से अन्धे
पुरुषों के लिये नेत्रस्वरूप सूर्य की भाँति उदित हुए हैं ॥ ९ ॥ देव ! इन देह-गेह
आदिमें जो मैं- मेरे पन का दुराग्रह होता है, वह भी आपका ही
कराया हुआ है; अत: अब आप मेरे इस महामोह को दूर कीजिये ॥ १०
॥ आप अपने भक्तों के संसाररूप वृक्षके लिये कुठार के समान हैं; मैं प्रकृति और पुरुषका ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से आप शरणागतवत्सल की
शरण में आयी हूँ। आप भागवतधर्म जाननेवालों में सबसे श्रेष्ठ हैं, मैं आपको प्रणाम करती हूँ ॥ ११ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पचीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
देवहूति
का प्रश्र तथा भगवान् कपिलद्वारा
भक्तियोग
की महिमा का वर्णन
मैत्रेय
उवाच –
इति
स्वमातुर्निरवद्यमीप्सितं
निशम्य पुंसां अपवर्गवर्धनम् ।
धियाभिनन्द्यात्मवतां
सतां गतिः
बभाष ईषत् स्मितशोभिताननः ॥ १२ ॥
श्रीभगवानुवाच
–
योग
आध्यात्मिकः पुंसां मतो निःश्रेयसाय मे ।
अत्यन्तोपरतिर्यत्र
दुःखस्य च सुखस्य च ॥ १३ ॥
तमिमं
ते प्रवक्ष्यामि यं अवोचं पुरानघे ।
ऋषीणां
श्रोतुकामानां योगं सर्वाङ्गनैपुणम् ॥ १४ ॥
श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं—इस प्रकार माता देवहूति ने अपनी जो अभिलाषा प्रकट की, वह परम पवित्र और लोगोंका मोक्षमार्गमें अनुराग उत्पन्न करनेवाली थी,
उसे सुनकर आत्मज्ञ सत्पुरुषोंकी गति श्रीकपिलजी उसकी मन-ही-मन
प्रशंसा करने लगे और फिर मृदु मुसकानसे सुशोभित मुखारविन्दसे इस प्रकार कहने लगे ॥
१२ ॥
भगवान्
कपिलने कहा—माता ! यह मेरा निश्चय है कि अध्यात्मयोग ही मनुष्यों के आत्यन्तिक कल्याण
का मुख्य साधन है, जहाँ दु:ख और सुख की सर्वथा निवृत्ति हो
जाती है ॥१३॥ साध्वि ! सब अङ्गों से सम्पन्न उस योग का मैंने पहले नारदादि
ऋषियोंके सामने, उनकी सुननेकी इच्छा होने पर, वर्णन किया था। वही अब मैं आपको सुनाता हूँ ॥ १४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पचीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
देवहूति
का प्रश्र तथा भगवान् कपिलद्वारा
भक्तियोग
की महिमा का वर्णन
चेतः
खल्वस्य बन्धाय मुक्तये चात्मनो मतम् ।
गुणेषु
सक्तं बन्धाय रतं वा पुंसि मुक्तये ॥ १५ ॥
अहं
ममाभिमानोत्थैः कामलोभादिभिर्मलैः ।
वीतं
यदा मनः शुद्धं अदुःखं असुखं समम् ॥ १६ ॥
तदा
पुरुष आत्मानं केवलं प्रकृतेः परम् ।
निरन्तरं
स्वयंज्योतिः अणिमानं अखण्डितम् ॥ १७ ॥
ज्ञानवैराग्ययुक्तेन
भक्तियुक्तेन चात्मना ।
परिपश्यति
उदासीनं प्रकृतिं च हतौजसम् ॥ १८ ॥
न
युज्यमानया भक्त्या भगवति अखिलात्मनि ।
सदृशोऽस्ति
शिवः पन्था योगिनां ब्रह्मसिद्धये ॥ १९ ॥
इस
जीव के बन्धन और मोक्ष का कारण मन ही माना गया है । विषयों में आसक्त होने पर वह
बन्धन का हेतु होता है और परमात्मा में अनुरक्त होने पर वही मोक्ष का कारण बन जाता
है ॥ १५ ॥ जिस समय यह मन मैं और मेरेपन के कारण होनेवाले काम-लोभ आदि विकारोंसे
मुक्त एवं शुद्ध हो जाता है, उस समय वह सुख-दु:खसे छूटकर सम
अवस्थामें आ जाता है ॥ १६ ॥ तब जीव अपने ज्ञान- वैराग्य और भक्तिसे युक्त हृदयसे
आत्माको प्रकृतिसे परे, एकमात्र (अद्वितीय), भेदरहित, स्वयंप्रकाश, सूक्ष्म,
अखण्ड और उदासीन (सुख-दु:खशून्य) देखता है तथा प्रकृतिको शक्तिहीन
अनुभव करता है ॥ १७-१८ ॥ योगियों के लिये भगवत्प्राप्ति के निमित्त सर्वात्मा
श्रीहरि के प्रति की हुई भक्ति के समान और कोई मङ्गलमय मार्ग नहीं है ॥ १९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पचीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०५)
देवहूति
का प्रश्र तथा भगवान् कपिलद्वारा
भक्तियोग
की महिमा का वर्णन
प्रसङ्गमजरं
पाशं आत्मनः कवयो विदुः ।
स
एव साधुषु कृतो मोक्षद्वारं अपावृतम् ॥ २० ॥
तितिक्षवः
कारुणिकाः सुहृदः सर्वदेहिनाम् ।
अजातशत्रवः
शान्ताः साधवः साधुभूषणाः ॥ २१ ॥
मय्यनन्येन
भावेन भक्तिं कुर्वन्ति ये दृढाम् ।
मत्कृते
त्यक्तकर्माणः त्यक्तस्वजनबान्धवाः ॥ २२ ॥
मदाश्रयाः
कथा मृष्टाः शृण्वन्ति कथयन्ति च ।
तपन्ति
विविधास्तापा नैतान् मद्गतचेतसः ॥ २३ ॥
विवेकीजन
सङ्ग या आसक्ति को ही आत्मा का अच्छेद्य बन्धन मानते हैं; किन्तु वही सङ्ग या आसक्ति जब संतों-महापुरुषों के प्रति हो जाती है,
तो मोक्षका खुला द्वार बन जाती है ॥ २० ॥
जो
लोग सहनशील,
दयालु, समस्त देहधारियों के अकारण हितू,
किसी के प्रति भी शत्रुभाव न रखनेवाले, शान्त,
सरलस्वभाव और सत्पुरुषों का सम्मान करनेवाले होते हैं, जो मुझ में अनन्यभाव से सुदृढ़ प्रेम करते हैं, मेरे
लिये सम्पूर्ण कर्म तथा अपने सगे-सम्बन्धियों को भी त्याग देते हैं, और मेरे परायण रहकर मेरी पवित्र कथाओंका श्रवण, कीर्तन
करते हैं तथा मुझमें ही चित्त लगाये रहते हैं— उन भक्तों को
संसार के तरह-तरह के ताप कोई कष्ट नहीं पहुँचाते हैं ॥ २१—२३॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पचीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०६)
देवहूति
का प्रश्र तथा भगवान् कपिलद्वारा
भक्तियोग
की महिमा का वर्णन
ते
एते साधवः साध्वि सर्वसङ्गविवर्जिताः ।
सङ्गस्तेष्वथ
ते प्रार्थ्यः सङ्गदोषहरा हि ते ॥ २४ ॥
सतां
प्रसङ्गान् मम वीर्यसंविदो
भवन्ति हृत्कर्णरसायनाः कथाः ।
तज्जोषणादाश्वपवर्गवर्त्मनि
श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ॥ २५ ॥
भक्त्या
पुमान्जातविराग ऐन्द्रियाद्
दृष्टश्रुतान् मद्रचनानुचिन्तया ।
चित्तस्य
यत्तो ग्रहणे योगयुक्तो
यतिष्यते ऋजुभिर्योगमार्गैः ॥ २६ ॥
असेवयायं
प्रकृतेर्गुणानां
ज्ञानेन वैराग्यविजृम्भितेन ।
योगेन
मय्यर्पितया च भक्त्या
मां प्रत्यगात्मानमिहावरुन्धे ॥ २७ ॥
(भगवान्
कपिल अपनी माता देवहूति से कहरहे हैं) साध्वि ! ऐसे-ऐसे सर्वसङ्गपरित्यागी
महापुरुष ही साधु होते हैं,
तुम्हें उन्हीं के सङ्ग की इच्छा करनी चाहिये; क्योंकि वे आसक्ति से उत्पन्न सभी दोषों को हर लेनेवाले हैं ॥ २४ ॥
सत्पुरुषों के समागम से मेरे पराक्रमों का यथार्थ ज्ञान कराने वाली तथा हृदय और
कानों को प्रिय लगनेवाली कथाएँ होती हैं। उनका सेवन करनेसे शीघ्र ही मोक्षमार्ग में
श्रद्धा, प्रेम और भक्तिका क्रमश: विकास होगा ॥ २५ ॥ फिर
मेरी सृष्टि आदि लीलाओं का चिन्तन करनेसे प्राप्त हुई भक्ति के द्वारा लौकिक एवं
पारलौकिक सुखों में वैराग्य हो जाने पर मनुष्य सावधानतापूर्वक योग के भक्तिप्रधान
सरल उपायों से समाहित होकर मनोनिग्रह के लिये यत्न करेगा ॥ २६ ॥ इस प्रकार प्रकृति
के गुणों से उत्पन्न हुए शब्दादि विषयों का त्याग करने से, वैराग्ययुक्त
ज्ञान से, योग से और मेरे प्रति की हुई सुदृढ़ भक्ति से
मनुष्य मुझ अपने अन्तरात्मा को इस देह में ही प्राप्त कर लेता है ॥ २७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
०००००
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पचीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०७)
देवहूति
का प्रश्र तथा भगवान् कपिलद्वारा
भक्तियोग
की महिमा का वर्णन
देवहूतिरुवाच
।
काचित्
त्वय्युचिता भक्तिः कीदृशी मम गोचरा ।
यया
पदं ते निर्वाणं अञ्जसा अन्वाश्नवै अहम् ॥ २८ ॥
यो
योगो भगवद्बाणो निर्वाणात्मंस्त्वयोदितः ।
कीदृशः
कति चाङ्गानि यतस्तत्त्वावबोधनम् ॥ २९ ॥
तद्
एतन्मे विजानीहि यथाहं मन्दधीर्हरे ।
सुखं
बुद्ध्येय दुर्बोधं योषा भवदनुग्रहात् ॥ ३० ॥
मैत्रेय
उवाच ।
विदित्वार्थं
कपिलो मातुरित्थं
जातस्नेहो यत्र तन्वाभिजातः ।
तत्त्वाम्नायं
यत्प्रवदन्ति साङ्ख्यं
प्रोवाच वै भक्तिवितानयोगम् ॥ ३१ ॥
देवहूतिने
कहा—भगवन् ! आपकी समुचित भक्तिका स्वरूप क्या है ? और
मेरी-जैसी अबलाओंके लिये कैसी भक्ति ठीक है, जिससे कि मैं
सहजमें ही आपके निर्वाणपदको प्राप्त कर सकूँ ? ॥ २८ ॥
निर्वाणस्वरूप प्रभो ! जिसके द्वारा तत्त्वज्ञान होता है और जो लक्ष्यको बेधनेवाले
बाणके समान भगवान्की प्राप्ति करानेवाला है, वह आपका कहा
हुआ योग कैसा है और उसके कितने अङ्ग हैं ? ॥ २९ ॥ हरे ! यह
सब आप मुझे इस प्रकार समझाइये जिससे कि आपकी कृपासे मैं मन्दमति स्त्रीजाति भी इस
दुर्बोध विषयको सुगमतासे समझ सकूँ ॥ ३० ॥
श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं—विदुरजी ! जिसके शरीरसे उन्होंने स्वयं जन्म लिया था, उस अपनी माताका ऐसा अभिप्राय जानकर कपिलजीके हृदयमें स्नेह उमड़ आया और
उन्होंने प्रकृति आदि तत्त्वोंका निरूपण करनेवाले शास्त्रका, जिसे सांख्य कहते हैं, उपदेश किया। साथ ही
भक्ति-विस्तार एवं योगका भी वर्णन किया ॥ ३१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पचीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०८)
देवहूति
का प्रश्र तथा भगवान् कपिलद्वारा
भक्तियोग
की महिमा का वर्णन
श्रीभगवानुवाच
–
देवानां
गुणलिङ्गानां आनुश्रविककर्मणाम् ।
सत्त्व
एवैकमनसो वृत्तिः स्वाभाविकी तु या ॥ ३२ ॥
अनिमित्ता
भागवती भक्तिः सिद्धेर्गरीयसी ।
जरयत्याशु
या कोशं निगीर्णमनलो यथा ॥ ३३ ॥
नैकात्मतां
मे स्पृहयन्ति केचिन्
मत्पादसेवाभिरता मदीहाः ।
येऽन्योन्यतो
भागवताः प्रसज्य
सभाजयन्ते मम पौरुषाणि ॥ ३४ ॥
श्रीभगवान्ने
कहा—माता ! जिसका चित्त एकमात्र भगवान्में ही लग गया है, ऐसे मनुष्यकी वेदविहित कर्मोंमें लगी हुई तथा विषयोंका ज्ञान करानेवाली
(कर्मेन्द्रिय एवं ज्ञानेन्द्रिय—दोनों प्रकारकी)
इन्द्रियोंकी जो सत्त्वमूर्ति श्रीहरिके प्रति स्वाभाविकी प्रवृत्ति है, वही भगवान्की अहैतुकी भक्ति है। यह मुक्तिसे भी बढक़र है; क्योंकि जठरानल जिस प्रकार खाये हुए अन्नको पचाता है, उसी प्रकार यह भी कर्मसंस्कारोंके भंडाररूप लिङ्गशरीरको तत्काल भस्म कर
देती है ॥ ३२-३३ ॥ मेरी चरणसेवामें प्रीति रखनेवाले और मेरी ही प्रसन्नताके लिये
समस्त कार्य करनेवाले कितने ही बड़भागी भक्त, जो एक दूसरेसे
मिलकर प्रेमपूर्वक मेरे ही पराक्रमोंकी चर्चा किया करते हैं, मेरे साथ एकीभाव (सायुज्यमोक्ष) की भी इच्छा नहीं करते ॥ ३४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पचीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०९)
देवहूति
का प्रश्र तथा भगवान् कपिलद्वारा
भक्तियोग
की महिमा का वर्णन
पश्यन्ति
ते मे रुचिराण्यम्ब सन्तः
प्रसन्नवक्त्रारुणलोचनानि ।
रूपाणि
दिव्यानि वरप्रदानि
साकं वाचं स्पृहणीयां वदन्ति ॥ ३५ ॥
तैर्दर्शनीयावयवैरुदार
विलासहासेक्षितवामसूक्तैः ।
हृतात्मनो
हृतप्राणांश्च भक्तिः
अनिच्छतो मे गतिमण्वीं प्रयुङ्क्ते ॥ ३६ ॥
(श्रीभगवान्
कह रहे हैं) माँ ! वे साधुजन अरुण-नयन एवं मनोहर मुखारविन्दसे युक्त मेरे परम
सुन्दर और वरदायक दिव्य रूपोंकी झाँकी करते हैं, और उनके साथ
सप्रेम सम्भाषण भी करते हैं, जिसके लिये बड़े-बड़े तपस्वी भी
लालायित रहते हैं ॥ ३५ ॥ दर्शनीय अङ्ग-प्रत्यङ्ग, उदार
हास-विलास, मनोहर चितवन और सुमधुर वाणीसे युक्त मेरे उन
रूपोंकी माधुरीमें उनका मन और इन्द्रियाँ फँस जाती हैं। ऐसी मेरी भक्ति न चाहनेपर
भी उन्हें परमपदकी प्राप्ति करा देती है ॥ ३६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पचीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट१०)
देवहूति
का प्रश्र तथा भगवान् कपिलद्वारा
भक्तियोग
की महिमा का वर्णन
अथो
विभूतिं मम मायाविनस्तां
ऐश्वर्यमष्टाङ्गमनुप्रवृत्तम् ।
श्रियं
भागवतीं वास्पृहयन्ति भद्रां
परस्य मे तेऽश्नुवते तु लोके ॥ ३७ ॥
न
कर्हिचिन्मत्पराः शान्तरूपे
नङ्क्ष्यन्ति नो मेऽनिमिषो लेढि हेतिः ।
येषामहं
प्रिय आत्मा सुतश्च
सखा गुरुः सुहृदो दैवमिष्टम् ॥ ३८ ॥
अविद्याकी
निवृत्ति हो जानेपर यद्यपि वे मुझ मायापतिके सत्यादि लोकोंकी भोगसम्पत्ति, भक्तिकी प्रवृत्तिके पश्चात् स्वयं प्राप्त होनेवाली अष्टसिद्धि अथवा
वैकुण्ठलोकके भगवदीय ऐश्वर्यकी भी इच्छा नहीं करते, तथापि
मेरे धाममें पहुँचनेपर उन्हें ये सब विभूतियाँ स्वयं ही प्राप्त हो जाती हैं ॥ ३७
॥ जिनका एकमात्र मैं ही प्रिय, आत्मा, पुत्र,
मित्र, गुरु, सुहृद् और
इष्टदेव हूँ—वे मेरे ही आश्रयमें रहनेवाले भक्तजन शान्तिमय
वैकुण्ठधाममें पहुँचकर किसी प्रकार भी इन दिव्य भोगोंसे रहित नहीं होते और न
उन्हें मेरा कालचक्र ही ग्रस सकता है ॥ ३८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पचीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट११)
देवहूति
का प्रश्र तथा भगवान् कपिलद्वारा
भक्तियोग
की महिमा का वर्णन
इमं
लोकं तथैव अमुं आत्मानं उभयायिनम् ।
आत्मानं
अनु ये चेह ये रायः पशवो गृहाः ॥ ३९ ॥
विसृज्य
सर्वान् अन्यांश्च मामेवं विश्वतोमुखम् ।
भजन्ति
अनन्यया भक्त्या तान्मृत्योरतिपारये ॥ ४० ॥
नान्यत्र
मद्भगवतः प्रधानपुरुषेश्वरात् ।
आत्मनः
सर्वभूतानां भयं तीव्रं निवर्तते ॥ ४१ ॥
(श्रीभगवान्
कह रहे हैं) माताजी ! जो लोग इहलोक, परलोक और इन दोनों
लोकोंमें साथ जानेवाले वासनामय लिङ्गदेहको तथा शरीरसे सम्बन्ध रखनेवाले जो धन,
पशु एवं गृह आदि पदार्थ हैं, उन सबको और
अन्यान्य संग्रहोंको भी छोडक़र अनन्य भक्तिसे सब प्रकार मेरा ही भजन करते हैं—उन्हें मैं मृत्युरूप संसारसागरसे पार कर देता हूँ ॥ ३९-४० ॥ मैं साक्षात्
भगवान् हूँ, प्रकृति और पुरुषका भी प्रभु हूँ तथा समस्त प्राणियोंका
आत्मा हूँ; मेरे सिवा और किसीका आश्रय लेनेसे मृत्युरूप
महाभयसे छुटकारा नहीं मिल सकता ॥ ४१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पचीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट१२)
देवहूति
का प्रश्र तथा भगवान् कपिलद्वारा
भक्तियोग
की महिमा का वर्णन
मद्भयाद्
वाति वातोऽयं सूर्यस्तपति मद्भयात् ।
वर्षतीन्द्रो
दहत्यग्निः मृत्युश्चरति मद्भयात् ॥ ४२ ॥
ज्ञानवैराग्ययुक्तेन
भक्तियोगेन योगिनः ।
क्षेमाय
पादमूलं मे प्रविशन्ति अकुतोभयम् ॥ ४३ ॥
एतावान्
एव लोकेऽस्मिन् पुंसां निःश्रेयसोदयः ।
तीव्रेण
भक्तियोगेन मनो मय्यर्पितं स्थिरम् ॥ ४४ ॥
मेरे
भयसे यह वायु चलती है,
मेरे भयसे सूर्य तपता है, मेरे भयसे इन्द्र
वर्षा करता और अग्रि जलाती है तथा मेरे ही भयसे मृत्यु अपने कार्यमें प्रवृत्त
होता है ॥ ४२ ॥ योगिजन ज्ञान-वैराग्ययुक्त भक्तियोगके द्वारा शान्ति प्राप्त
करनेके लिये मेरे निर्भय चरणकमलोंका आश्रय लेते हैं ॥ ४३ ॥ संसारमें मनुष्यके लिये
सबसे बड़ी कल्याणप्राप्ति यही है कि उसका चित्त तीव्र भक्तियोगके द्वारा मुझमें
लगकर स्थिर हो जाय ॥ ४४ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे
पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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