॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
भरतजीका
ब्राह्मणकुलमें जन्म
श्रीशुक
उवाच
अथ
कस्यचिद्द्विजवरस्याङ्गिरःप्रवरस्य
शमदमतपःस्वाध्यायाध्ययनत्यागसन्तोषतितिक्षाप्रश्रयविद्यानसूयात्मज्ञानानन्दयुक्तस्यात्मस-दृशश्रुतशीलाचाररूपौदार्यगुणा
नव सोदर्या अङ्गजा बभूवुर्मिथुनं च यवीयस्यां भार्यायाम् ||१|| यस्तु तत्र
पुमांस्तं परमभागवतं राजर्षिप्रवरं भरतमुत्सृष्टमृगशरीरं चरमशरीरेण विप्रत्वं
गतमाहुः ||२||
तत्रापि
स्वजनसङ्गाच्च भृशमुद्विजमानो भगवतः
कर्मबन्धविध्वंसनश्रवणस्मरणगुणविवरणचरणारविन्दयुगलं मनसा विदधदात्मनः
प्रतिघातमाशङ्कमानो
भगवदनुग्रहेणानुस्मृतस्वपूर्वजन्मावलिरात्मानमुन्मत्तजडान्धबधिरस्वरूपेण दर्शयामास
लोकस्य ||३||
तस्यापि
ह वा आत्मजस्य विप्रः पुत्रस्नेहानुबद्धमना आसमावर्तना-त्संस्कारान्यथोपदेशं
विदधान उपनीतस्य च पुनः शौचाचमनादीन्कर्मनियमाननभिप्रेतानपि समशिक्षयदनुशिष्टेन हि
भाव्यं पितुः पुत्रेणेति ||४||
स
चापि तदु ह पितृसन्निधावेवासध्रीचीनमिव स्म करोति छन्दांस्यध्यापयिष्यन्सह
व्याहृतिभिः सप्रणवशिरस्त्रिपदीं सावित्रीं
ग्रैष्म-वासन्तिकान्मासानधीयानमप्यसमवेतरूपं ग्राहयामास ||५||
एवं
स्वतनुज आत्मन्यनुरागावेशितचित्तः
शौचाध्ययनव्रतनियमगुर्वनलशुश्रूषणाद्यौपकुर्वाणककर्माण्यनभियुक्तान्यपि
समनुशिष्टेन भाव्यमित्यसदाग्रहः पुत्रमनुशास्य स्वयं तावदनधिगतमनोरथः
कालेनाप्रमत्तेन स्वयं गृह एव प्रमत्त उसंहृतः ||६||
अथ
यवीयसी द्विजसती स्वगर्भजातं मिथुनं सपत्न्या उपन्यस्य स्वयमनुसंस्थया पतिलोकमगात्
||७||
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—राजन् ! आङ्गिरस गोत्रमें शम, दम, तप, स्वाध्याय, वेदाध्ययन,
त्याग (अतिथि आदिको अन्न देना), सन्तोष,
तितिक्षा, विनय, विद्या
(कर्मविद्या), अनसूया (दूसरोंके गुणोंमें दोष न ढूँढऩा),
आत्मज्ञान (आत्माके कर्तृत्व और भोक्तृत्वका ज्ञान) एवं आनन्द
(धर्मपालनजनित सुख) सभी गुणोंसे सम्पन्न एक श्रेष्ठ ब्राह्मण थे। उनकी बड़ी
स्त्रीसे उन्हींके समान विद्या, शील, आचार,
रूप और उदारता आदि गुणोंवाले नौ पुत्र हुए तथा छोटी पत्नीसे एक ही
साथ एक पुत्र और एक कन्याका जन्म हुआ ॥ १ ॥ इन दोनोंमें जो पुरुष था वह परम भागवत
राजर्षिशिरोमणि भरत ही थे। वे मृगशरीरका परित्याग करके अन्तिम जन्ममें ब्राह्मण
हुए थे—ऐसा महापुरुषोंका कथन है ॥ २ ॥ इस जन्ममें भी भगवान्की
कृपासे अपनी पूर्व-जन्मपरम्पराका स्मरण रहनेके कारण, वे इस
आशङ्कासे कि कहीं फिर कोई विघ्र उपस्थित न हो जाय, अपने
स्वजनोंके सङ्गसे भी बहुत डरते थे। हर समय जिनका श्रवण, स्मरण
और गुणकीर्तन सब प्रकारके कर्मबन्धनको काट देता है, श्रीभगवान्के
उन युगल चरणकमलोंको ही हृदयमें धारण किये रहते तथा दूसरोंकी दृष्टिमें अपनेको पागल,
मूर्ख, अंधे और बहरेके समान दिखाते ॥ ३ ॥ पिताका
तो उनमें भी वैसा ही स्नेह था। इसलिये ब्राह्मणदेवताने अपने पागल पुत्रके भी
शास्त्रानुसार समावर्तनपर्यन्त विवाहसे पूर्वके सभी संस्कार करनेके विचारसे उनका
उपनयनसंस्कार किया। यद्यपि वे चाहते नहीं थे तो भी ‘पिताका
कर्तव्य है कि पुत्रको शिक्षा दे’ इस शास्त्रविधिके अनुसार
उन्होंने इन्हें शौच-आचमन आदि आवश्यक कर्मोंकी शिक्षा दी ॥ ४ ॥ किन्तु भरतजी तो
पिताके सामने ही उनके उपदेशके विरुद्ध आचरण करने लगते थे। पिता चाहते थे कि
वर्षाकालमें इसे वेदाध्ययन आरम्भ करा दूँ। किन्तु वसन्त और ग्रीष्मऋतुके चैत्र,
वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़—चार महीनोंतक पढ़ाते रहनेपर भी वे इन्हें व्याहृति और शिरोमन्त्र प्रणवके
सहित त्रिपदा गायत्री भी अच्छी तरह याद न करा सके ॥ ५ ॥
ऐसा
होनेपर भी अपने इस पुत्रमें उनका आत्माके समान अनुराग था। इसलिये उसकी प्रवृत्ति न
होनेपर भी वे ‘पुत्रको अच्छी तरह शिक्षा देनी चाहिये’ इस अनुचित
आग्रहसे उसे शौच, वेदाध्ययन, व्रत,
नियम तथा गुरु और अग्रिकी सेवा आदि ब्रह्मचर्याश्रमके आवश्यक
नियमोंकी शिक्षा देते ही रहे। किन्तु अभी पुत्रको सुशिक्षित देखनेका उनका मनोरथ
पूरा न हो पाया था और स्वयं भी भगवद्भजनरूप अपने मुख्य कर्तव्यसे असावधान रहकर
केवल घरके धंधोंमें ही व्यस्त थे कि सदा सजग रहनेवाले कालभगवान्ने आक्रमण करके
उनका अन्त कर दिया ॥ ६ ॥ तब उनकी छोटी भार्या अपने गर्भसे उत्पन्न हुए दोनों बालक
अपनी सौतको सौंपकर स्वयं सती होकर पतिलोकको चली गयी ॥ ७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
भरतजीका
ब्राह्मणकुलमें जन्म
पितर्युपरते
भ्रातर एनमतत्प्रभावविदस्त्रय्यां विद्यायामेव पर्यवसितमतयो न परविद्यायां
जडमतिरिति भ्रातुरनुशासननिर्बन्धान्न्यवृत्सन्त ||८||
स
च प्राकृतैर्द्विपदपशुभिरुन्मत्तजडबधिरमूकेत्यभिभाष्यमाणो यदा तदनुरूपाणि प्रभाषते
कर्माणि च कार्यमाणः परेच्छया करोति विष्टितो वेतनतो वा याच्ञ्या यदृच्छया
वोपसादितमल्पं
बहु
मृष्टं कदन्नं वाभ्यवहरति परं नेन्द्रि
यप्रीतिनिमित्तम्नित्यनिवृत्तनिमित्तस्वसिद्धविशुद्धानुभवानन्दस्वात्मलाभाधिगमः
सुखदुःख-योर्द्वन्द्वनिमित्तयोरसम्भावितदेहाभिमानः ||९||
शीतोष्णवातवर्षेषु
वृष इवानावृताङ्गः पीनः संहननाङ्गः स्थण्डिल संवेशनानुन्मर्दनामज्जनरजसा
महामणिरिवानभिव्यक्तब्रह्मवर्चसः कुपटावृतकटिरुपवीतेनोरुमषिणा द्विजातिरिति
ब्रह्मबन्धुरिति संज्ञयातज्ज्ञजनावमतो विचचार ||१०||
यदा
तु परत आहारं कर्मवेतनत ईहमानः स्वभ्रातृभिरपि केदारकर्मणि निरूपितस्तदपि करोति
किन्तु न समं विषमं न्यूनमधिकमिति वेद
कणपिण्याकफलीकरणकुल्माषस्थालीपुरीषादीन्यप्यमृतवदभ्यवहरति ||११||
अथ
कदाचित्कश्चिद्वृषलपतिर्भद्र काल्यै पुरुषपशुमालभतापत्यकामः ||१२||
तस्य
ह दैवमुक्तस्य पशोः पदवीं तदनुचराः परिधावन्तो निशि निशीथसमये तमसावृतायामनधिगतपशव
आकस्मिकेन विधिना केदारान्वीरासनेन मृगवराहादिभ्यः
संरक्षमाणमङ्गिरःप्रवरसुतमपश्यन् ||१३||
अथ
त एनमनवद्यक्षणमवमृश्य भर्तृकर्मनिष्पत्तिं मन्यमाना बद्ध्वा रशनया
चण्डिकागृहमुपनिन्युर्मुदा विकसितवदनाः ||१४||
अथ
पणयस्तं स्वविधिनाभिषिच्याहतेन वाससाच्छाद्य भूषणालेपस्रक्तिलकादिभिरुपस्कृतं
भुक्तवन्तं धूपदीपमाल्यलाजकिसलया-ङ्कुरफलोपहारोपेतया वैशससंस्थया महता
गीतस्तुतिमृदङ्गपणव-घोषेण च पुरुषपशुं भद्र काल्याः पुरत उपवेशयामासुः ||१५||
अथ
वृषलराजपणिः पुरुषपशोरसृगासवेन देवीं भद्र कालीं
यक्ष्य-माणस्तदभिमन्त्रितमसिमतिकरालनिशितमुपाददे ||१६||
भरतजीके
भाई कर्मकाण्डको सबसे श्रेष्ठ समझते थे। वे ब्रह्मज्ञानरूप पराविद्यासे सर्वथा
अनभिज्ञ थे। इसलिये उन्हें भरतजीका प्रभाव भी ज्ञात नहीं था, वे उन्हें निरा मूर्ख समझते थे। अत: पिताके परलोक सिधारनेपर उन्होंने
उन्हें पढ़ाने-लिखानेका आग्रह छोड़ दिया ॥ ८ ॥ भरतजीको मानापमानका कोई विचार न था।
जब साधारण नर-पशु उन्हें पागल, मूर्ख अथवा बहरा कहकर पुकारते
तब वे भी उसीके अनुरूप भाषण करने लगते। कोई भी उनसे कुछ भी काम कराना चाहते,
तो वे उनकी इच्छाके अनुसार कर देते। बेगारके रूपमें, मजदूरीके रूपमें, माँगनेपर अथवा बिना माँगे जो भी
थोड़ा-बहुत अच्छा या बुरा अन्न उन्हें मिल जाता, उसीको जीभका
जरा भी स्वाद न देखते हुए खा लेते। अन्य किसी कारणसे उत्पन्न न होनेवाला
स्वत:सिद्ध केवल ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मज्ञान उन्हें प्राप्त हो गया था; इसलिये शीतोष्ण, मानापमान आदि द्वन्द्वोंसे होनेवाले
सुख- दु:खादिमें उन्हें देहाभिमानकी स्फूर्ति नहीं होती थी ॥ ९ ॥ वे सर्दी,
गरमी, वर्षा और आँधीके समय साँडक़े समान नंगे पड़े
रहते थे। उनके सभी अङ्ग हृष्ट-पुष्ट एवं गठे हुए थे। वे पृथ्वीपर ही पड़े रहते थे,
कभी तेल-उबटन आदि नहीं लगाते थे और न कभी स्नान ही करते थे, इससे उनके शरीरपर मैल जम गयी थी। उनका ब्रह्मतेज धूलिसे ढके हुए मूल्यवान्
मणिके समान छिप गया था। वे अपनी कमरमें एक मैला-कुचैला कपड़ा लपेटे रहते थे। उनका
यज्ञोपवीत भी बहुत ही मैला हो गया था। इसलिये अज्ञानी जनता ‘यह
कोई द्विज है’, ‘कोई अधम ब्राह्मण है’ ऐसा
कहकर उनका तिरस्कार कर दिया करती थी, किन्तु वे इसका कोई
विचार न करके स्वच्छन्द विचरते थे ॥ १० ॥ दूसरोंकी मजदूरी करके पेट पालते देख जब
उन्हें उनके भाइयोंने खेतकी क्यारियाँ ठीक करनेमें लगा दिया तब वे उस कार्यको भी
करने लगे। परंतु उन्हें इस बातका कुछ भी ध्यान न था कि उन क्यारियोंकी भूमि समतल
है या ऊँची-नीची, अथवा वह छोटी है या बड़ी। उनके भाई उन्हें
चावलकी कनी, खली, भूसी, घुने हुए उड़द अथवा बरतनोंमें लगी हुई जले अन्नकी खुरचन—जो कुछ भी दे देते, उसीको वे अमृतके समान खा लेते थे
॥ ११ ॥
किसी
समय डाकुओंके सरदारने,
जिसके सामन्त शूद्र जातिके थे, पुत्रकी
कामनासे भद्रकालीको मनुष्यकी बलि देनेका संकल्प किया ॥ १२ ॥ उसने जो पुरुष-पशु बलि
देनेके लिये पकड़ मँगाया था, वह दैववश उसके फंदेसे निकलकर
भाग गया। उसे ढूँढऩेके लिये उसके सेवक चारों ओर दौड़े; किन्तु
अँधेरी रातमें आधी रातके समय कहीं उसका पता न लगा। इसी समय दैवयोगसे अकस्मात् उनकी
दृष्टि इन आङ्गिरसगोत्रीय ब्राह्मणकुमारपर पड़ी, जो वीरासनसे
बैठे हुए मृग-वराहादि जीवोंसे खेतोंकी रखवाली कर रहे थे ॥ १३ ॥ उन्हेंने देखा कि
यह पशु तो बड़े अच्छे लक्षणोंवाला है, इससे हमारे स्वामीका
कार्य अवश्य सिद्ध हो जायगा। यह सोचकर उनका मुख आनन्दसे खिल उठा और वे उन्हें
रस्सियोंसे बाँधकर चण्डिकाके मन्दिरमें ले आये ॥ १४ ॥
तदनन्तर
उन चोरोंने अपनी पद्धतिके अनुसार विधिपूर्वक उनको अभिषेक एवं स्नान कराकर कोरे
वस्त्र पहनाये तथा नाना प्रकारके आभूषण, चन्दन, माला और तिलक आदिसे विभूषित कर अच्छी तरह भोजन कराया। फिर धूप, दीप, माला, खील, पत्ते, अङ्कुर और फल आदि उपहार-सामग्रीके सहित बलिदानकी
विधिसे गान, स्तुति और मृदङ्ग एवं ढोल आदिका महान् शब्द करते
उस पुरुष-पशुको भद्रकालीके सामने नीचा सिर कराके बैठा दिया ॥ १५ ॥ इसके पश्चात्
दस्युराजके पुरोहित बने हुए लुटेरेने उस नर-पशुके रुधिरसे देवीको तृप्त करनेके
लिये देवीमन्त्रोंसे अभिमन्त्रित एक तीक्ष्ण खड्ग उठाया ॥ १६ ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
भरतजीका
ब्राह्मणकुलमें जन्म
इति
तेषां वृषलानां रजस्तमःप्रकृतीनां धनमदरजौत्सिक्तमनसां भगवत्कलावीरकुलं
कदर्थीकृत्योत्पथेन स्वैरं विहरतां हिंसावि-हाराणां कर्मातिदारुणं यद्ब्रह्मभूतस्य
साक्षाद्ब्रह्मर्षिसुतस्य निर्वैरस्य सर्वभूतसुहृदः सूनायामप्यननुमतमालम्भनं
तदुपलभ्य ब्रह्मतेजसा-तिदुर्विषहेण दन्दह्यमानेन वपुषा सहसोच्चचाट सैव देवी
भद्रकाली ||१७||
भृशममर्षरोषावेशरभसविलसितभ्रुकुटिविटपकुटिलदंष्ट्रारुणेक्षणाटोपातिभयानकवदना
हन्तुकामेवेदं महाट्टहासमतिसंरम्भेण विमुञ्चन्ती तत उत्पत्य पापीयसां दुष्टानां
तेनैवासिना विवृक्णशीर्ष्णां गलात्स्रवन्तमसृगासवमत्युष्णं सह गणेन
निपीयातिपानमदविह्वलो-च्चैस्तरां स्वपार्षदैः सह जगौ ननर्त च विजहार च
शिरःकन्दुक-लीलया ||१८||
एवमेव
खलु महदभिचारातिक्रमः कार्त्स्न्येनात्मने फलति ||९||
न
वा एतद्विष्णुदत्त महदद्भुतं यदसम्भ्रमः स्वशिरश्छेदन आपतितेऽपि
विमुक्तदेहाद्यात्मभावसुदृढहृदयग्रन्थीनां सर्वसत्त्वसुहृदात्मनां निर्वैराणां
साक्षाद्भगवतानिमिषारिवरायुधेनाप्रमत्तेन तैस्तैर्भावैः परिरक्ष्यमाणानां
तत्पादमूलमकुतश्चिद्भयमुपसृतानां भागवतपरमहंसानाम् ||२०||
चोर
स्वभावसे तो रजोगुणी-तमोगुणी थे ही, धनके मदसे उनका
चित्त और भी उन्मत्त हो गया था। हिंसामें भी उनकी स्वाभाविक रुचि थी। इस समय तो वे
भगवान्के अंशस्वरूप ब्राह्मणकुलका तिरस्कार करके स्वच्छन्दतासे कुमार्गकी ओर बढ़
रहे थे। आपत्तिकालमें भी जिस हिंसाका अनुमोदन किया गया है, उसमें
भी ब्राह्मण-वधका सर्वथा निषेध है, तो भी वे साक्षात् ब्रह्मभावको
प्राप्त हुए वैरहीन तथा समस्त प्राणियोंके सुहृद् एक ब्रह्मर्षिकुमार की बलि देना
चाहते थे। यह भयङ्कर कुकर्म देखकर देवी भद्रकालीके शरीरमें अति दु:सह ब्रह्मतेजसे
दाह होने लगा और वे एकाएक मूर्तिको फोडक़र प्रकट हो गयीं ॥ १७ ॥ अत्यन्त असहनशीलता
और क्रोधके कारण उनकी भौंहें चढ़ी हुई थीं तथा कराल दाढ़ों और चढ़ी हुई लाल
आँखोंके कारण उनका चेहरा बड़ा भयानक जान पड़ता था। उनके उस विकराल वेषको देखकर ऐसा
जान पड़ता था मानो वे इस संसारका संहार कर डालेंगी। उन्होंने क्रोधसे तडक़कर बड़ा
भीषण अट्टहास किया और उछलकर उस अभिमन्त्रित खड्गसे ही उन सारे पापियोंके सिर उड़ा
दिये और अपने गणोंके सहित उनके गलेसे बहता हुआ गरम-गरम रुधिररूप आसव पीकर अति
उन्मत्त हो ऊँचे स्वरसे गाती और नाचती हुई उन सिरोंको ही गेंद बनाकर खेलने लगीं ॥
१८ ॥ सच है, महापुरुषोंके प्रति किया हुआ अत्याचाररूप अपराध
इसी प्रकार ज्यों-का-त्यों अपने ही ऊपर पड़ता है ॥ १९ ॥ परीक्षित् ! जिनकी
देहाभिमानरूप सुदृढ़ हृदयग्रन्थि छूट गयी है, जो समस्त
प्राणियोंके सुहृद् एवं आत्मा तथा वैरहीन हैं, साक्षात्
भगवान् ही भद्रकाली आदि भिन्न-भिन्न रूप धारण करके अपने कभी न चूकनेवाले
कालचक्ररूप श्रेष्ठ शस्त्रसे जिनकी रक्षा करते हैं और जिन्होंने भगवान्के निर्भय
चरणकमलोंका आश्रय ले रखा है—उन भगवद्भक्त परमहंसोंके लिये
अपना सिर कटनेका अवसर आनेपर भी किसी प्रकार व्याकुल न होना—यह
कोई बड़े आश्चर्यकी बात नहीं है ॥ २० ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे जडभरतचरिते
नवमोऽध्यायः
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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