||श्री परमात्मने नम:||
भगवत्तत्त्व
(वासुदेवः सर्वम्)..पोस्ट 09
ज्ञानीके
व्यवहार की विशेषता
तत्त्वज्ञान
होनेसे पूर्वतक साधक (अन्तःकरणको अपना माननेके कारण) तत्त्वमें अन्तःकरणसहित अपनी
स्थिति मानता है । ऐसी स्थितिमें उसकी वृत्तियाँ व्यवहारसे हटकर तत्त्वोन्मुखी हो
जाती हैं,
अतः उसके द्वारा संसारके व्यवहारमें भूलें भी हो सकती हैं ।
अन्तःकरण-(जडता-) से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेपर जड-चेतनके सम्बन्धसे
होनेवाला सूक्ष्म ‘अहम्’ पूर्णतः नष्ट
हो जाता है । फिर तत्त्वज्ञ पुरुषकी स्वरूपमें नित्य-निरन्तर स्वाभाविक स्थिति
रहती है । इसलिये साधनावस्थामें अन्तःकरणको लेकर तत्त्वमें तल्लीन होनेके कारण जो
व्यवहारमें भूलें हो सकती हैं, वे भूलें सिद्धावस्थाको
प्राप्त तत्त्वज्ञ पुरुषके द्वारा नहीं होतीं, अपितु उसका
व्यवहार स्वतः स्वाभाविक सुचारुरूपसे होता है और दूसरोंके लिये आदर्श होता है [*]
। इसका कारण यह है कि अन्तःकरणसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेपर तत्त्वज्ञ
पुरुषकी स्थिति तो अपने स्वाभाविक स्वरूप अर्थात् तत्त्वमें हो जाती है और
अन्तःकरणकी स्थिति अपने स्वाभाविक स्थान‒शरीर-(जडता-) में हो
जाती है । ऐसी स्थितिमें तत्त्व तो रहता है, पर तत्त्वज्ञ
(तत्त्वका ज्ञाता) नहीं रहता अर्थात् व्यक्तित्व (अहम्) पूर्णतः मिट जाता है ।
व्यक्तित्वके मिटनेपर राग-द्वेष कौन करे और किससे करे ? उसके
अपने कहलानेवाले अन्तःकरणमें अन्तकरणसहित संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अत्यन्त अभाव
हो जाता है और परमात्मतत्त्वकी सत्ताका भाव नित्य-निरन्तर जाग्रत् रहता है ।
अन्तःकरणसे अपना कोई सम्बन्ध न रहनेपर उसका अन्तःकरण मानो जल जाता है । जैसे गैसकी
जली हुई बत्तीसे विशेष प्रकाश होता है, वैसे ही उस जले हुए
अन्तःकरणसे विशेष ज्ञान प्रकाशित होता है ।
जिस
प्रकार परमात्माकी सत्ता-स्फूर्तिसे संसारमात्रका व्यवहार चलते रहनेपर भी
परमात्मतत्त्व- (ब्रह्म-) में किंचित भी अन्तर नहीं आता, उसी प्रकार तत्त्वज्ञ पुरुषके स्वभाव [†], जिज्ञासुओंकी
जाननेकी अभिलाषा [‡] और भगवत्प्रेरणा [§]‒-- इनके द्वारा तत्त्वज्ञ पुरुषके
शरीरसे सुचारु रूप से व्यवहार होते रहने पर भी उसके स्वरूप में किंचित भी अन्तर
नहीं आता । उसमें स्वतःसिद्ध निर्लिप्तता रहती है [**] । जबतक प्रारब्धका वेग रहता
है, तब तक उसके अन्तःकरण और बहिःकरणसे आदर्श व्यवहार होता
रहता है ।
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[*]
“यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥“
…………………….(गीता ३ । २१)
‘श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी
वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं । वह जो कुछ (वचनोंसे) प्रमाण देता है, दूसरे मनुष्य उसीके अनुसार आचरण करते हैं ।’
[†] “सदृशं चेष्टते
स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि
निग्रहः किं करिष्यति ॥“
……………….(गीता ३ ।
३३)
[‡]
“तद्विद्धि
प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः
॥“
……………..(गीता
४ । ३४)
[§]
अहम्का
नाश होनेपर तत्त्वज्ञ महापुरुषकी भगवान्के साथ एकता हो जाती है‒‘मम साधर्म्यमागताः’ (गीता १४ । २), अतः उसके द्वारा होनेवाली मात्र क्रियाएँ भगवत्प्रेरित ही होती हैं ।
[**]
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति
न लिप्यते ॥…(गीता १३ । ३१)
प्रकाश च प्रवृत्तिं च
मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि
न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥“…(गीता १४ । २२)
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येव
योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥“…(गीता १४ । २३)
नारायण
! नारायण !!
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ”
पुस्तकसे
जय श्री हरि
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