☼ श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम: ☼
अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् (पोस्ट ०२)
अथ देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् (पोस्ट ०२)
जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया |
तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ||४||
परित्यक्ता देवा विविधविधसेवाकुलतया
मया पञ्चा शीतेरधिकमपनीते तु वयसि |
इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता
निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम् ||५||
श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा
निरातङ्को रङ्को विहरति चिरं कोटिकनकैः |
तवापर्णे कर्णे विशति मनु वर्णे फलमिदं
जनः को जानीते जननि जननीयं जपविधौ ||६||
जगदम्ब! मातः! मैंने तुम्हारे चरणोंकी सेवा कभी नहीं की, देवि! तुम्हें अधिक धन भी समर्पित नहीं किया; तथापि मुझ-जैसे अधमपर जो तुम अनुपम स्नेह करती हो, इसका कारण यही है कि संसार में
कुपुत्र पैदा हो सकता है,
किंतु कहीं भी कुमाता नहीं होती॥४॥
गणेशजीको जन्म देनेवाली माता पार्वती! [अन्य देवताओं की आराधना
करते समय] मुझे नाना प्रकारकी सेवाओं में व्यग्र रहना पड़ता था, इसलिये पचासी वर्षसे अधिक अवस्था बीत जानेपर
मैंने देवताओंको छोड़ दिया है, अब उनकी सेवा-पूजा मुझसे नहीं हो पाती; अतएव उनसे कुछ भी सहायता मिलनेकी आशा नहीं है। इस समय यदि
तुम्हारी कृपा नहीं होगी तो मैं अवलम्बरहित होकर किसकी शरण जाऊँगा॥५॥
माता अपर्णा! तुम्हारे मन्त्रका एक अक्षर भी कानमें पड़ जाय
तो उसका फल यह
होता है कि मूर्ख चाण्डाल भी मधुपाक के समान मधुर वाणीका उच्चारण करनेवाला उत्तम
वक्ता हो जाता है,
दीन मनुष्य भी करोड़ों स्वर्ण-मुद्राओंसे सम्पन्न हो
चिरकालतक निर्भय विहार करता रहता है। जब मन्त्र के एक अक्षर के श्रवण का ऐसा फल है
तो जो लोग विधिपूर्वक जपमें लगे रहते हैं, उनके जप से प्राप्त होनेवाला उत्तम फल कैसा होगा? इसको कौन मनुष्य जान सकता है॥ ६॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से
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