शनिवार, 18 अप्रैल 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

भरतवंश का वर्णन, राजा रन्तिदेव की कथा

श्रीशुक उवाच ।
वितथस्य सुतान् मन्योः बृहत्क्षत्रो जयस्ततः ।
महावीर्यो नरो गर्गः सङ्‌कृतिस्तु नरात्मजः ॥ १ ॥
गुरुश्च रन्तिदेवश्च सङ्‌कृतेः पाण्डुनन्दन ।
रन्तिदेवस्य महिमा इहामुत्र च गीयते ॥ २ ॥
वियद्वित्तस्य ददतो लब्धं लब्धं बुभुक्षतः ।
निष्किञ्चनस्य धीरस्य सकुटुम्बस्य सीदतः ॥ ३ ॥
व्यतीयुः अष्टचत्वारिंशत् अहनि अपिबतः किल ।
घृतपायससंयावं तोयं प्रातरुपस्थितम् ॥ ४ ॥
कृच्छ्रप्राप्तकुटुम्बस्य क्षुत्तृड्भ्यां जातवेपथोः ।
अतिथिर्ब्राह्मणः काले भोक्तुकामस्य चागमत् ॥ ५ ॥
तस्मै संव्यभजत् सोऽन्नं आदृत्य श्रद्धयान्वितः ।
हरिं सर्वत्र संपश्यन् स भुक्त्वा प्रययौ द्विजः ॥ ६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! वितथ अथवा भरद्वाजका पुत्र था मन्यु। मन्युके पाँच पुत्र हुएबृहत्क्षत्र, जय, महावीर्य, नर और गर्ग। नरका पुत्र था संकृति ॥ १ ॥ संकृतिके दो पुत्र हुएगुरु और रन्तिदेव। परीक्षित्‌ ! रन्तिदेवका निर्मल यश इस लोक और परलोकमें सब जगह गाया जाता है ॥ २ ॥ रन्तिदेव आकाशके समान बिना उद्योगके ही दैववश प्राप्त वस्तुका उपभोग करते और दिनोंदिन उनकी पूँजी घटती जाती। जो कुछ मिल जाता उसे भी दे डालते और स्वयं भूखे रहते। वे संग्रह-परिग्रह, ममता से रहित तथा बड़े धैर्यशाली थे और अपने कुटुम्बके साथ दु:ख भोग रहे थे ॥ ३ ॥ एक बार तो लगातार अड़तालीस दिन ऐसे बीत गये कि उन्हें पानीतक पीनेको न मिला। उनचासवें दिन प्रात:काल ही उन्हें कुछ घी, खीर, हलवा और जल मिला ॥ ४ ॥ उनका परिवार बड़े संकटमें था । भूख और प्यास के मारे वे लोग काँप रहे थे। परंतु ज्यों ही उन लोगों ने भोजन करना चाहा, त्यों ही एक ब्राह्मण अतिथि के रूपमें आ गया ॥ ५ ॥ रन्तिदेव सबमें श्रीभगवान्‌ के ही दर्शन करते थे। अतएव उन्होंने बड़ी श्रद्धा से आदरपूर्वक उसी अन्नमें से ब्राह्मण को भोजन कराया। ब्राह्मणदेवता भोजन करके चले गये ॥ ६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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