॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौथा अध्याय..(पोस्ट०४)
कंस
के हाथ से छूटकर योगमाया का
आकाश
में जाकर भविष्यवाणी करना
श्रीशुक
उवाच ।
एवं
दुर्मंत्रिभिः कंसः सह सम्मन्त्र्य दुर्मतिः ।
ब्रह्महिंसां
हितं मेने कालपाशावृतोऽसुरः ॥ ४३ ॥
सन्दिश्य
साधुलोकस्य कदने कदनप्रियान् ।
कामरूपधरान्
दिक्षु दानवान् गृहमाविशत् ॥ ४४ ॥
ते
वै रजःप्रकृतयः तमसा मूढचेतसः ।
सतां
विद्वेषमाचेरुः आरात् आगतमृत्यवः ॥ ४५ ॥
आयुः
श्रियं यशो धर्मं लोकानाशिष एव च ।
हन्ति
श्रेयांसि सर्वाणि पुंसो महदतिक्रमः ॥ ४६ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! एक तो कंसकी बुद्धि स्वयं ही बिगड़ी हुई थी; फिर उसे मन्त्री ऐसे मिले थे, जो उससे भी बढक़र दुष्ट
थे । इस प्रकार उनसे सलाह करके कालके फंदेमें फँसे हुए असुर कंसने यही ठीक समझा कि
ब्राह्मणोंको ही मार डाला जाय ॥ ४३ ॥ उसने हिंसाप्रेमी राक्षसोंको संतपुरुषोंकी
हिंसा करनेका आदेश दे दिया । वे इच्छानुसार रूप धारण कर सकते थे । जब वे इधर-उधर
चले गये, तब कंसने अपने महलमें प्रवेश किया ॥ ४४ ॥ उन
असुरोंकी प्रकृति थी रजोगुणी । तमोगुण के कारण उनका चित्त उचित और अनुचित के विवेक
से रहित हो गया था । उनके सिर पर मौत नाच रही थी । यही कारण है कि उन्होंने संतों से
द्वेष किया ॥ ४५ ॥ परीक्षित् ! जो लोग महान् संत पुरुषों का अनादर करते हैं,
उनका वह कुकर्म उनकी आयु, लक्ष्मी, कीर्ति, धर्म, लोक-परलोक,
विषयभोग और सब-के-सब कल्याणके साधनोंको नष्ट कर देता है ॥ ४६ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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