रविवार, 28 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

वर्षा और शरद् ऋतु का वर्णन

 

श्रीशुक उवाच ।

तयोस्तदद्‍भुतं कर्म दावाग्नेर्मोक्षमात्मनः ।

गोपाः स्त्रीभ्यः समाचख्युः प्रलम्बवधमेव च ॥ १ ॥

गोपवृद्धाश्च गोप्यश्च तदुपाकर्ण्य विस्मिताः ।

मेनिरे देवप्रवरौ कृष्णरामौ व्रजं गतौ ॥ २ ॥

ततः प्रावर्तत प्रावृट् सर्वसत्त्वसमुद्‍भवा ।

विद्योतमानपरिधिः विस्फूर्जित नभस्तला ॥ ३ ॥

सान्द्रनीलाम्बुदैर्व्योम सविद्युत् स्तनयित्‍नुभिः ।

अस्पष्टज्योतिः आच्छन्नं ब्रह्मेव सगुणं बभौ ॥ ४ ॥

अष्टौ मासान् निपीतं यद् भूम्याश्चोदमयं वसु ।

स्वगोभिर्मोक्तुमारेभे पर्जन्यः काल आगते ॥ ५ ॥

तडिद्वन्तो महामेघाः चण्ड श्वसन वेपिताः ।

प्रीणनं जीवनं ह्यस्य मुमुचुः करुणा इव ॥ ६ ॥

तपःकृशा देवमीढा आसीद् वर्षीयसी मही ।

यथैव काम्यतपसः तनुः सम्प्राप्य तत्फलम् ॥ ७ ॥

निशामुखेषु खद्योताः तमसा भान्ति न ग्रहाः ।

यथा पापेन पाखण्डा न हि वेदाः कलौ युगे ॥ ८ ॥

श्रुत्वा पर्जन्यनिनदं मण्डुकाः व्यसृजन् गिरः ।

तूष्णीं शयानाः प्राग् यद्वद् ब्राह्मणा नियमात्यये ॥ ९ ॥

आसन् उत्पथवाहिन्यः क्षुद्रनद्योऽनुशुष्यतीः ।

पुंसो यथास्वतंत्रस्य देहद्रविण सम्पदः ॥ १० ॥

हरिता हरिभिः शष्पैः इन्द्रगोपैश्च लोहिता ।

उच्छिलीन्ध्रकृतच्छाया नृणां श्रीरिव भूरभूत् ॥ ११ ॥

क्षेत्राणि शष्यसम्पद्‌भिः कर्षकाणां मुदं ददुः ।

मानिनां उनुतापं वै दैवाधीनं अजानताम् ॥ १२ ॥

जलस्थलौकसः सर्वे नववारिनिषेवया ।

अबिभ्रन् रुचिरं रूपं यथा हरिनिषेवया ॥ १३ ॥

सरिद्‌भी सङ्‌गतः सिन्धुः चुक्षोभ श्वसनोर्मिमान् ।

अपक्वयोगिनश्चित्तं कामाक्तं गुणयुग् यथा ॥ १४ ॥

गिरयो वर्षधाराभिः हन्यमाना न विव्यथुः ।

अभिभूयमाना व्यसनैः यथा अधोक्षजचेतसः ॥ १५ ॥

मार्गा बभूवुः सन्दिग्धाः तृणैश्छन्ना ह्यसंस्कृताः ।

नाभ्यस्यमानाः श्रुतयो द्विजैः कालहता इव ॥ १६ ॥

लोकबन्धुषु मेघेषु विद्युतश्चलसौहृदाः ।

स्थैर्यं न चक्रुः कामिन्यः पुरुषेषु गुणिष्विव ॥ १७ ॥

धनुर्वियति माहेन्द्रं निर्गुणं च गुणिन्यभात् ।

व्यक्ते गुणव्यतिकरे अगुणवान् पुरुषो यथा ॥ १८ ॥

न रराजोडुपश्छन्नः स्वज्योत्स्नाराजितैर्घनैः ।

अहंमत्या भासितया स्वभासा पुरुषो यथा ॥ १९ ॥

मेघागमोत्सवा हृष्टाः प्रत्यनन्दन् शिखण्डिनः ।

गृहेषु तप्ता निर्विण्णा यथाच्युतजनागमे ॥ २० ॥

पीत्वापः पादपाः पद्‌भिः आसन्नानात्ममूर्तयः ।

प्राक् क्षामास्तपसा श्रान्ता यथा कामानुसेवया ॥ २१ ॥

सरःस्वशान्तरोधःसु न्यूषुरङ्‌गापि सारसाः ।

गृहेष्वशान्तकृत्येषु ग्राम्या इव दुराशयाः ॥ २२ ॥

जलौघैर्निरभिद्यन्त सेतवो वर्षतीश्वरे ।

पाषण्डिनामसद्वादैः वेदमार्गाः कलौ यथा ॥ २३ ॥

व्यमुञ्चन् वान्वायुभिर्नुन्ना भूतेभ्योऽथामृतं घनाः ।

यथाऽऽशिषो विश्पतयः काले काले द्विजेरिताः ॥ २४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! ग्वालबालों ने घर पहुँचकर अपनी मा, बहिन आदि स्त्रियों से श्रीकृष्ण और बलराम ने जो कुछ अद्भुत कर्म किये थेदावानल से उनको बचाना, प्रलम्ब को मारना इत्यादिसबका वर्णन किया ॥ १ ॥ बड़े-बड़े बूढ़े गोप और गोपियाँ भी राम और श्यामकी अलौकिक लीलाएँ सुनकर विस्मित हो गयीं। वे सब ऐसा मानने लगे कि श्रीकृष्ण और बलरामके वेषमें कोई बहुत बड़े देवता ही व्रजमें पधारे हैं॥ २ ॥

इसके बाद वर्षा ऋतुका शुभागमन हुआ। इस ऋतुमें सभी प्रकारके प्राणियोंकी बढ़ती हो जाती है। उस समय सूर्य और चन्द्रमापर बार-बार प्रकाशमय मण्डल बैठने लगे। बादल, वायु, चमक, कडक़ आदिसे आकाश क्षुब्ध-सा दीखने लगा ॥ ३ ॥ आकाशमें नीले और घने बादल घिर आते, बिजली कौंधने लगती, बार-बार गड़-गड़ाहट सुनायी पड़ती; सूर्य, चन्द्रमा और तारे ढके रहते। इससे आकाशकी ऐसी शोभा होती, जैसे ब्रह्मस्वरूप होनेपर भी गुणोंसे ढक जानेपर जीवकी होती है ॥ ४ ॥ सूर्यने राजाकी तरह पृथ्वीरूप प्रजासे आठ महीनेतक जलका कर ग्रहण किया था, अब समय आनेपर वे अपनी किरण-करोंसे फिर उसे बाँटने लगे ॥ ५ ॥ जैसे दयालु पुरुष जब देखते हैं कि प्रजा बहुत पीडि़त हो रही है, तब वे दयापरवश होकर अपने जीवन-प्राणतक निछावर कर देते हैंवैसे ही बिजलीकी चमकसे शोभायमान घनघोर बादल तेज हवाकी प्रेरणासे प्राणियोंके कल्याणके लिये अपने जीवनस्वरूप जलको बरसाने लगे ॥ ६ ॥ जेठ-आषाढक़ी गर्मीसे पृथ्वी सूख गयी थी। अब वर्षाके जलसे सिंचकर वह फिर हरी-भरी हो गयीजैसे सकामभावसे तपस्या करते समय पहले तो शरीर दुर्बल हो जाता है, परंतु जब उसका फल मिलता है, तब हृष्ट-पुष्ट हो जाता है ॥ ७ ॥ वर्षाके सायंकालमें बादलोंसे घना अँधेरा छा जानेपर ग्रह और तारोंका प्रकाश तो नहीं दिखलायी पड़ता, परंतु जुगनू चमकने लगते हैंजैसे कलियुग में पापकी प्रबलता हो जानेसे पाखण्ड मतोंका प्रचार हो जाता है और वैदिक सम्प्रदाय लुप्त हो जाते हैं ॥ ८ ॥ जो मेढक पहले चुपचाप सो रहे थे, अब वे बादलोंकी गरज सुनकर टर्र-टर्र करने लगेजैसे नित्य-नियमसे निवृत्त होनेपर गुरुके आदेशानुसार ब्रह्मचारी लोग वेदपाठ करने लगते हैं ॥ ९ ॥ छोटी-छोटी नदियाँ, जो जेठ-आषाढ़में बिलकुल सूखनेको आ गयी थीं, वे अब उमड़-घुमडक़र अपने घेरेसे बाहर बहने लगींजैसे अजितेन्द्रिय पुरुषके शरीर और धन सम्पत्तियोंका कुमार्गमें उपयोग होने लगता है ॥ १० ॥ पृथ्वीपर कहीं-कहीं हरी-हरी घासकी हरियाली थी, तो कहीं-कहीं बीरबहूटियोंकी लालिमा और कहीं-कहीं बरसाती छत्तों (सफेद कुकुरमुत्तों) के कारण वह सफेद मालूम देती थी। इस प्रकार उसकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो किसी राजाकी रंग-बिरंगी सेना हो ॥ ११ ॥ सब खेत अनाजोंसे भरे-पूरे लहलहा रहे थे। उन्हें देखकर किसान तो मारे आनन्दके फूले न समाते थे, परंतु सब कुछ प्रारब्धके अधीन हैयह बात न जाननेवाले धनियोंके चित्तमें बड़ी जलन हो रही थी कि अब हम इन्हें अपने पंजेमें कैसे रख सकेंगे ॥ १२ ॥ नये बरसाती जलके सेवनसे सभी जलचर और थलचर प्राणियोंकी सुन्दरता बढ़ गयी थी, जैसे भगवान्‌की सेवा करनेसे बाहर और भीतरके दोनों ही रूप सुघड़ हो जाते हैं ॥ १३ ॥ वर्षा-ऋतुमें हवाके झोकोंसे समुद्र एक तो यों ही उत्ताल तरङ्गोंसे युक्त हो रहा था, अब नदियोंके संयोगसे वह और भी क्षुब्ध हो उठाठीक वैसे ही जैसे वासनायुक्त योगीका चित्त विषयोंका सम्पर्क होनेपर कामनाओंके उभारसे भर जाता है ॥ १४ ॥ मूसलधार वर्षाकी चोट खाते रहनेपर भी पर्वतोंको कोई व्यथा नहीं होती थीजैसे दु:खोंकी भरमार होनेपर भी उन पुरुषोंको किसी प्रकारकी व्यथा नहीं होती, जिन्होंने अपना चित्त भगवान्‌को ही समर्पित कर रखा है ॥ १५ ॥ जो मार्ग कभी साफ नहीं किये जाते थे, वे घाससे ढक गये और उनको पहचानना कठिन हो गयाजैसे जब द्विजाति वेदोंका अभ्यास नहीं करते, तब कालक्रमसे वे उन्हें भूल जाते हैं ॥ १६ ॥ यद्यपि बादल बड़े लोकोपकारी हैं, फिर भी बिजलियाँ उनमें स्थिर नहीं रहतींठीक वैसे ही, जैसे चपल अनुरागवाली कामिनी स्त्रियाँ गुणी पुरुषोंके पास भी स्थिरभावसे नहीं रहतीं ॥ १७ ॥ आकाश मेघोंके गर्जन-तर्जनसे भर रहा था। उसमें निर्गुण (बिना डोरीके) इन्द्र-धनुषकी वैसी ही शोभा हुई, जैसी सत्त्व-रज आदि गुणोंके क्षोभसे होनेवाले विश्वके बखेड़ेमें निर्गुण ब्रह्मकी ॥ १८ ॥ यद्यपि चन्द्रमा की उज्ज्वल चाँदनी से बादलों का पता चलता था, फिर भी उन बादलों ने ही चन्द्रमाको ढककर शोभाहीन भी बना दिया थाठीक वैसे ही, जैसे पुरुषके आभाससे आभासित होनेवाला अहंकार ही उसे ढककर प्रकाशित नहीं होने देता ॥ १९ ॥ बादलोंके शुभागमनसे मोरोंका रोम-रोम खिल रहा था, वे अपनी कुहक और नृत्यके द्वारा आनन्दोत्सव मना रहे थेठीक वैसे ही, जैसे गृहस्थीके जंजालमें फँसे हुए लोग, जो अधिकतर तीनों तापोंसे जलते और घबराते रहते हैं, भगवान्‌ के भक्तोंके शुभागमनसे आनन्दमग्न हो जाते हैं ॥ २० ॥ जो वृक्ष जेठ-आषाढ़में सूख गये थे, वे अब अपनी जड़ोंसे जल पीकर पत्ते, फूल तथा डालियोंसे खूब सज-धज गयेजैसे सकामभावसे तपस्या करनेवाले पहले तो दुर्बल हो जाते हैं, परंतु कामना पूरी होनेपर मोटे-तगड़े हो जाते हैं ॥ २१ ॥ परीक्षित्‌ ! तालाबोंके तट काँटेकीचड़ और जलके बहावके कारण प्राय: अशान्त ही रहते थे, परंतु सारस एक क्षणके लिये भी उन्हें नहीं छोड़ते थेजैसे अशुद्ध हृदयवाले विषयी पुरुष काम-धंधोंकी झंझटसे कभी छुटकारा नहीं पाते, फिर भी घरोंमें ही पड़े रहते हैं ॥ २२ ॥ वर्षा ऋतुमें इन्द्रकी प्रेरणासे मूसलधार वर्षा होती है, इससे नदियोंके बाँध और खेतोंकी मेड़ें टूट-फूट जाती हैंजैसे कलियुगमें पाखण्डियोंके तरह तरह के मिथ्या मतवादोंसे वैदिक मार्गकी मर्यादा ढीली पड़ जाती है ॥ २३ ॥ वायुकी प्रेरणासे घने बादल प्राणियोंके लिये अमृतमय जलकी वर्षा करने लगते हैंजैसे ब्राह्मणोंकी प्रेरणासे धनीलोग समय-समयपर दानके द्वारा प्रजाकी अभिलाषाएँ पूर्ण करते हैं ॥ २४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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