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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)
रासलीलाका
आरम्भ
यर्ह्यम्बुजाक्ष
तव पादतलं रमाया
दत्तक्षणं
क्वचिदरण्यजनप्रियस्य ।
अस्प्राक्ष्म
तत्प्रभृति नान्यसमक्षमङ्ग
स्थातुं
त्वयाभिरमिता बत पारयामः ॥ ३६ ॥
श्रीर्यत्पदाम्बुजरजश्चकमे
तुलस्या
लब्ध्वापि
वक्षसि पदं किल भृत्यजुष्टम् ।
यस्याः
स्ववीक्षण कृतेऽन्यसुरप्रयासः
तद्वद्
वयं च तव पादरजः प्रपन्नाः ॥ ३७ ॥
तन्नः
प्रसीद वृजिनार्दन तेऽन्घ्रिमूलं
प्राप्ता
विसृज्य वसतीस्त्वदुपासनाशाः ।
त्वत्सुन्दरस्मित
निरीक्षणतीव्रकाम
तप्तात्मनां
पुरुषभूषण देहि दास्यम् ॥ ३८ ॥
वीक्ष्यालकावृतमुखं
तव कुण्डलश्री
गण्डस्थलाधरसुधं
हसितावलोकम् ।
दत्ताभयं
च भुजदण्डयुगं विलोक्य
वक्षः
श्रियैकरमणं च भवाम दास्यः ॥ ३९ ॥
का
स्त्र्यङ्ग ते कलपदायतमूर्च्छितेन
सम्मोहितार्यचरितान्न
चलेत्त्रिलोक्याम् ।
त्रैलोक्यसौभगमिदं
च निरीक्ष्य रूपं
यद्
गोद्विजद्रुममृगाः पुलकान्यबिभ्रन् ॥ ४० ॥
व्यक्तं
भवान् व्रजभयार्तिहरोऽभिजातो
देवो
यथाऽऽदिपुरुषः सुरलोकगोप्ता ।
तन्नो
निधेहि करपङ्कजमार्तबन्धो
तप्तस्तनेषु
च शिरःसु च किङ्करीणाम् ॥ ४१ ॥
प्यारे
कमलनयन ! तुम वनवासियों के प्यारे हो और वे भी तुमसे बहुत प्रेम करते हैं। इससे
प्राय: तुम उन्हींके पास रहते हो। यहाँतक कि तुम्हारे जिन चरणकमलोंकी सेवाका अवसर
स्वयं लक्ष्मीजीको भी कभी-कभी ही मिलता है, उन्हीं चरणोंका
स्पर्श हमें प्राप्त हुआ। जिस दिन यह सौभाग्य हमें मिला और तुमने हमें स्वीकार
करके आनन्दित किया, उसी दिनसे हम और किसीके सामने एक क्षणके
लिये भी ठहरनेमें असमर्थ हो गयी हैं—पति-पुत्रादिकोंकी सेवा
तो दूर रही ॥ ३६ ॥ हमारे स्वामी ! जिन लक्ष्मीजीका कृपाकटाक्ष प्राप्त करनेके लिये
बड़े-बड़े देवता तपस्या करते रहते हैं, वही लक्ष्मीजी
तुम्हारे वक्ष:स्थलमें बिना किसीकी प्रतिद्वन्ङ्क्षद्वताके स्थान प्राप्त कर
लेनेपर भी अपनी सौत तुलसी के साथ तुम्हारे चरणों की रज पानेकी अभिलाषा किया करती
हैं। अबतक के सभी भक्तों ने उस चरणरज का सेवन किया है। उन्हींके समान हम भी
तुम्हारी उसी चरणरज की शरणमें आयी हैं ॥ ३७ ॥ भगवन् ! अबतक जिसने भी तुम्हारे
चरणों की शरण ली, उसके सारे कष्ट तुमने मिटा दिये। अब तुम
हमपर कृपा करो। हमें भी अपने प्रसाद का भाजन बनाओ। हम तुम्हारी सेवा करनेकी
आशा-अभिलाषासे घर, गाँव, कुटुम्ब—सब कुछ छोडक़र तुम्हारे युगल चरणोंकी शरणमें आयी हैं। प्रियतम ! वहाँ तो
तुम्हारी आराधना के लिये अवकाश ही नहीं है। पुरुषभूषण ! पुरुषोत्तम ! तुम्हारी
मधुर मुसकान और चारु चितवन ने हमारे हृदयमें प्रेमकी—मिलनकी
आकाङ्क्षाकी आग धधका दी है; हमारा रोम-रोम उससे जल रहा है।
तुम हमें अपनी दासीके रूपमें स्वीकार कर लो। हमें अपनी सेवाका अवसर दो ॥ ३८ ॥
प्रियतम ! तुम्हारा सुन्दर मुखकमल जिसपर घुँघराली अलकें झलक रही हैं; तुम्हारे ये कमनीय कपोल, जिनपर सुन्दर- सुन्दर
कुण्डल अपना अनन्त सौन्दर्य बिखेर रहे हैं; तुम्हारे ये मधुर
अधर, जिनकी सुधा सुधाको भी लजानेवाली है; तुम्हारी यह नयनमनोहारी चितवन, जो मन्द-मन्द
मुसकानसे उल्लसित हो रही है; तुम्हारी ये दोनों भुजाएँ,
जो शरणागतोंको अभयदान देनेमें अत्यन्त उदार हैं और तुम्हारा यह
वक्ष:स्थल, जो लक्ष्मीजीका—सौन्दर्यकी
एकमात्र देवीका नित्य क्रीडास्थल है, देखकर हम सब तुम्हारी
दासी हो गयी हैं ॥ ३९ ॥ प्यारे श्यामसुन्दर ! तीनों लोकोंमें भी और ऐसी कौन-सी
स्त्री है, जो मधुर-मधुर पद और आरोह-अवरोह-क्रमसे विविध
प्रकारकी मूच्र्छनाओंसे युक्त तुम्हारी वंशीकी तान सुनकर तथा इस त्रिलोकसुन्दर
मोहिनी मूर्तिको—जो अपने एक बूँद सौन्दर्यसे त्रिलोकीको
सौन्दर्यका दान करती है एवं जिसे देखकर गौ, पक्षी, वृक्ष और हरिन भी रोमाञ्चित, पुलकित हो जाते हैं—अपने नेत्रोंसे निहार- कर आर्य-मर्यादासे विचलित न हो जाय, कुल-कान और लोक-लज्जाको त्यागकर तुममें अनुरक्त न हो जाय ॥ ४० ॥ हमसे यह
बात छिपी नहीं है कि जैसे भगवान् नारायण देवताओंकी रक्षा करते हैं, वैसे ही तुम व्रजमण्डलका भय और दु:ख मिटानेके लिये ही प्रकट हुए हो ! और
यह भी स्पष्ट ही है कि दीन-दुखियोंपर तुम्हारा बड़ा प्रेम, बड़ी
कृपा है । प्रियतम ! हम भी बड़ी दु:खिनी हैं । तुम्हारे मिलन की आकाङ्क्षा की आगसे
हमारा वक्ष:स्थल जल रहा है। तुम अपनी इन दासियोंके वक्ष:स्थल और सिरपर अपने कोमल
करकमल रखकर इन्हें अपना लो; हमें जीवनदान दो ॥४१॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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