शनिवार, 25 जुलाई 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

महारास

 

श्रीशुक उवाच -

इत्थं भगवतो गोप्यः श्रुत्वा वाचः सुपेशलाः ।

जहुर्विरहजं तापं तदङ्‌गोपचिताशिषः ॥ १ ॥

तत्रारभत गोविन्दो रासक्रीडामनुव्रतैः ।

स्त्रीरत्‍नैरन्वितः प्रीतैः अन्योन्याबद्धबाहुभिः ॥ २ ॥

रासोत्सवः सम्प्रवृत्तो गोपीमण्डलमण्डितः ।

योगेश्वरेण कृष्णेन तासां मध्ये द्वयोर्द्वयोः ॥ ३ ॥

प्रविष्टेन गृहीतानां कण्ठे स्वनिकटं स्त्रियः ।

यं मन्येरन् नभस्तावद् विमानशतसङ्‌कुलम् ॥ ४ ॥

दिवौकसां सदाराणां औत्सुक्यापहृतात्मनाम् ।

ततो दुन्दुभयो नेदुः निपेतुः पुष्पवृष्टयः ।

जगुर्गन्धर्वपतयः सस्त्रीकास्तद् यशोऽमलम् ॥ ५ ॥

वलयानां नूपुराणां किङ्‌किणीनां च योषिताम् ।

सप्रियाणामभूत् शब्दः तुमुलो रासमण्डले ॥ ६ ॥

तत्रातिशुशुभे ताभिः भगवान् देवकीसुतः ।

मध्ये मणीनां हैमानां महामरकतो यथा ॥ ७ ॥

पादन्यासैर्भुजविधुतिभिः

सस्मितैर्भ्रूविलासैः ।

भज्यन्मध्यैश्चलकुचपटैः

कुण्डलैर्गण्डलोलैः ।

स्विद्यन्मुख्यः कवररसना

ग्रन्थयः कृष्णवध्वो ।

गायन्त्यस्तं तडित इव ता

मेघचक्रे विरेजुः ॥ ८ ॥

उच्चैर्जगुर्नृत्यमाना रक्तकण्ठ्यो रतिप्रियाः ।

कृष्णाभिमर्शमुदिता यद्‍गीतेनेदमावृतम् ॥ ९ ॥

काचित् समं मुकुन्देन स्वरजातीरमिश्रिताः ।

उन्निन्ये पूजिता तेन प्रीयता साधु साध्विति ।

तदेव ध्रुवमुन्निन्ये तस्यै मानं च बह्वदात् ॥ १० ॥

काचिद् रासपरिश्रान्ता पार्श्वस्थस्य गदाभृतः ।

जग्राह बाहुना स्कन्धं श्लथद्वलयमल्लिका ॥ ११ ॥

तत्रैकांसगतं बाहुं कृष्णस्योत्पलसौरभम् ।

चन्दनालिप्तमाघ्राय हृष्टरोमा चुचुम्ब ह ॥ १२ ॥

कस्याश्चित् नाट्यविक्षिप्त कुण्डलत्विषमण्डितम् ।

गण्डं गण्डे सन्दधत्याः अदात्ताम्बूलचर्वितम् ॥ १३ ॥

नृत्यती गायती काचित् कूजन् नूपुरमेखला ।

पार्श्वस्थाच्युतहस्ताब्जं श्रान्ताधात् स्तनयोः शिवम् ॥ १४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंराजन्। गोपियाँ भगवान्‌ की इस प्रकार प्रेमभरी सुमधुर वाणी सुनकर जो कुछ विरहजन्य ताप शेष था, उससे भी मुक्त हो गयीं और सौन्दर्य-माधुर्यनिधि प्राणप्यारे के अङ्ग- सङ्ग से सफल-मनोरथ हो गयीं ॥ १ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णकी प्रेयसी और सेविका गोपियाँ एक-दूसरे की बाँह-में-बाँह डाले खड़ी थीं। उन स्त्रीरत्नों के साथ यमुनाजी के पुलिनपर भगवान्‌ ने अपनी रसमयी रासक्रीड़ा प्रारम्भ की ॥ २ ॥ सम्पूर्ण योगोंके स्वामी भगवान्‌ श्रीकृष्ण दो-दो गोपियोंके बीचमें प्रकट हो गये और उनके गलेमें अपना हाथ डाल दिया। इस प्रकार एक गोपी और एक श्रीकृष्ण, यही क्रम था। सभी गोपियाँ ऐसा अनुभव करती थीं कि हमारे प्यारे तो हमारे ही पास हैं। इस प्रकार सहस्र-सहस्र गोपियोंसे शोभायमान भगवान्‌ श्रीकृष्णका दिव्य रासोत्सव प्रारम्भ हुआ। उस समय आकाशमें शत-शत विमानोंकी भीड़ लग गयी। सभी देवता अपनी-अपनी पत्नियोंके साथ वहाँ आ पहुँचे। रासोत्सव के दर्शनकी लालसासे, उत्सुकतासे उनका मन उनके वशमें नहीं था ॥ ३-४ ॥ स्वर्गकी दिव्य दुन्दुभियाँ अपने आप बज उठीं। स्वर्गीय पुष्पोंकी वर्षा होने लगी। गन्धर्वगण अपनी-अपनी पत्नियोंके साथ भगवान्‌के निर्मल यशका गान करने लगे ॥ ५ ॥ रासमण्डलमें सभी गोपियाँ अपने प्रियतम श्यामसुन्दरके साथ नृत्य करने लगीं। उनकी कलाइयोंके कंगन, पैरोंके पायजेब और करधनीके छोटे-छोटे घुँघरू एक साथ बज उठे। असंख्य गोपियाँ थीं, इसलिये यह मधुर ध्वनि भी बड़े ही जोरकी हो रही थी ॥ ६ ॥ यमुनाजीकी रमणरेतीपर व्रजसुन्दरियोंके बीचमें भगवान्‌ श्रीकृष्णकी बड़ी अनोखी शोभा हुई। ऐसा जान पड़ता था, मानो अगणित पीली-पीली दमकती हुई सुवर्ण-मणियोंके बीचमें ज्योतिर्मयी नीलमणि चमक रही हो ॥ ७ ॥ नृत्यके समय गोपियाँ तरह-तरहसे ठुमुक-ठुमुककर अपने पाँव कभी आगे बढ़ातीं और कभी पीछे हटा लेतीं। कभी गतिके अनुसार धीरे-धीरे पाँव रखतीं, तो कभी बड़े वेगसे; कभी चाककी तरह घूम जातीं, कभी अपने हाथ उठा-उठाकर भाव बतातीं, तो कभी विभिन्न प्रकारसे उन्हें चमकातीं। कभी बड़े कलापूर्ण ढंगसे मुसकरातीं, तो कभी भौंहें मटकातीं। नाचते-नाचते उनकी पतली कमर ऐसी लचक जाती थी, मानो टूट गयी हो। झुकने, बैठने, उठने और चलनेकी फुर्तीसे उनके स्तन हिल रहे थे तथा वस्त्र उड़े जा रहे थे। कानोंके कुण्डल हिल-हिलकर कपोलोंपर आ जाते थे। नाचनेके परिश्रमसे उनके मुँहपर पसीनेकी बूँदें झलकने लगी थीं। केशोंकी चोटियाँ कुछ ढीली पड़ गयी थीं। नीवीकी गाँठें खुली जा रही थीं। इस प्रकार नटवर नन्दलालकी परम प्रेयसी गोपियाँ उनके साथ गा-गाकर नाच रही थीं। परीक्षित्‌ ! उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो बहुत-से श्रीकृष्ण तो साँवले-साँवले मेघ-मण्डल हैं और उनके बीच-बीचमें चमकती हुई गोरी गोपियाँ बिजली हैं। उनकी शोभा असीम थी ॥ ८ ॥ गोपियोंका जीवन भगवान्‌ की रति है, प्रेम है। वे श्रीकृष्णसे सटकर नाचते-नाचते ऊँचे स्वरसे मधुर गान कर रही थीं। श्रीकृष्णका संस्पर्श पा- पाकर और भी आनन्दमग्र हो रही थीं। उनके राग-रागिनियोंसे पूर्ण गानसे यह सारा जगत् अब भी गूँज रहा है ॥ ९ ॥ कोई गोपी भगवान्‌ के साथउनके स्वरमें स्वर मिलाकर गा रही थी। वह श्रीकृष्णके स्वरकी अपेक्षा और भी ऊँचे स्वरसे राग अलापने लगी। उसके विलक्षण और उत्तम स्वरको सुनकर वे बहुत ही प्रसन्न हुए और वाह-वाह करके उसकी प्रशंसा करने लगे। उसी रागको एक दूसरी सखीने ध्रुपद में गाया। उसका भी भगवान्‌ ने बहुत सम्मान किया ॥ १० ॥ एक गोपी नृत्य करते-करते थक गयी। उसकी कलाइयों से कंगन और चोटियों से बेलाके फूल खिसकने लगे। तब उसने अपने बगलमें ही खड़े मुरलीमनोहर श्यामसुन्दरके कंधेको अपनी बाँहसे कसकर पकड़ लिया ॥ ११ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपना एक हाथ दूसरी गोपीके कंधेपर रख रखा था। वह स्वभावसे तो कमलके समान सुगन्धसे युक्त था ही, उसपर बड़ा सुगन्धित चन्दनका लेप भी था। उसकी सुगन्धसे वह गोपी पुलकित हो गयी, उसका रोम-रोम खिल उठा। उसने झटसे उसे चूम लिया ॥ १२ ॥ एक गोपी नृत्य कर रही थी। नाचने के कारण उसके कुण्डल हिल रहे थे, उनकी छटासे उसके कपोल और भी चमक रहे थे। उसने अपने कपोलोंको भगवान्‌ श्रीकृष्णके कपोलसे सटा दिया और भगवान्‌ने उसके मुँहमें अपना चबाया हुआ पान दे दिया ॥ १३ ॥ कोई गोपी नूपुर और करधनीके घुँघरुओंको झनकारती हुई नाच और गा रही थी। वह जब बहुत थक गयी, तब उसने अपने बगलमें ही खड़े श्यामसुन्दरके शीतल करकमलको अपने दोनों स्तनोंपर रख लिया ॥ १४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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