॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
श्रीकृष्ण
के विरह में गोपियों की दशा
श्रीशुक
उवाच
अन्तर्हिते
भगवति सहसैव व्रजाङ्गनाः ।
अतप्यंस्तमचक्षाणाः
करिण्य इव यूथपम् ॥ १ ॥
गत्यानुरागस्मितविभ्रमेक्षितै-
र्मनोरमालापविहारविभ्रमैः
।
आक्षिप्तचित्ताः
प्रमदा रमापते-
स्तास्ता
विचेष्टा जगृहुस्तदात्मिकाः ॥ २ ॥
गतिस्मितप्रेक्षणभाषणादिषु
प्रियाः
प्रियस्य प्रतिरूढमूर्तयः ।
असावहं
त्वित्यबलास्तदात्मिका
न्यवेदिषुः
कृष्णविहारविभ्रमाः ॥ ३ ॥
गायन्त्य
उच्चैरमुमेव संहता
विचिक्युरुन्मत्तकवद्वनाद्वनम्
।
पप्रच्छुराकाशवदन्तरं
बहि-
र्भूतेषु
सन्तं पुरुषं वनस्पतीन् ॥ ४ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं— परीक्षित् ! भगवान् सहसा अन्तर्धान हो गये। उन्हें न देखकर
व्रजयुवतियों की वैसी ही दशा हो गयी, जैसे यूथपति गजराज के
बिना हथिनियों की होती है। उनका हृदय विरहकी ज्वाला से जलने लगा ॥ १ ॥ भगवान्
श्रीकृष्ण की मदोन्मत्त गजराज की-सी चाल, प्रेमभरी मुसकान,
विलासभरी चितवन, मनोरम प्रेमालाप, भिन्न-भिन्न प्रकार की लीलाओं तथा शृङ्गार-रस की भाव-भङ्गियोंने उनके
चित्तको चुरा लिया था। वे प्रेमकी मतवाली गोपियाँ श्रीकृष्णमय हो गयीं और फिर
श्रीकृष्णकी विभिन्न चेष्टाओंका अनुकरण करने लगीं ॥ २ ॥ अपने प्रियतम श्रीकृष्णकी
चाल-ढाल, हास-विलास और चितवन-बोलन आदिमें श्रीकृष्णकी प्यारी
गोपियाँ उनके समान ही बन गयीं; उनके शरीरमें भी वही गति-मति,
वही भाव-भङ्गी उतर आयी। वे अपने को सर्वथा भूलकर श्रीकृष्णस्वरूप हो
गयीं और उन्हीं के लीला-विलास का अनुकरण करती हुई ‘मैं
श्रीकृष्ण ही हूँ’—इस प्रकार कहने लगीं ॥ ३ ॥ वे सब परस्पर
मिलकर ऊँचे स्वरसे उन्हींके गुणोंका गान करने लगीं और मतवाली होकर एक वनसे दूसरे
वनमें, एक झाड़ी से दूसरी झाड़ी में जा-जाकर श्रीकृष्ण को
ढूँढने लगीं। परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण कहीं दूर थोड़े ही गये थे। वे तो
समस्त जड-चेतन पदार्थोंमें तथा उनके बाहर भी आकाश के समान एकरस स्थित ही हैं। वे
वहीं थे, उन्हीं में थे, परंतु उन्हें
न देखकर गोपियाँ वनस्पतियों से—पेड़-पौधों से उनका पता पूछने
लगीं ॥ ४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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