॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
श्रीकृष्णका
मथुराजी में प्रवेश
ततः
सुदाम्नो भवनं मालाकारस्य जग्मतुः ।
तौ
दृष्ट्वा स समुत्थाय ननाम शिरसा भुवि ॥ ४३ ॥
तयोरासनमानीय
पाद्यं चार्घ्यार्हणादिभिः ।
पूजां
सानुगयोश्चक्रे स्रक्ताम्बूलानुलेपनैः ॥ ४४ ॥
प्राह
नः सार्थकं जन्म पावितं च कुलं प्रभो ।
पितृदेवर्षयो
मह्यं तुष्टा ह्यागमनेन वाम् ॥ ४५ ॥
भवन्तौ
किल विश्वस्य जगतः कारणं परम् ।
अवतीर्णाविहांशेन
क्षेमाय च भवाय च ॥ ४६ ॥
न
हि वां विषमा दृष्टिः सुहृदोर्जगदात्मनोः ।
समयोः
सर्वभूतेषु भजन्तं भजतोरपि ॥ ४७ ॥
तावज्ञापयतं
भृत्यं किमहं करवाणि वाम् ।
पुंसोऽत्यनुग्रहो
ह्येष भवद्भिः यन्नियुज्यते ॥ ४८ ॥
इत्यभिप्रेत्य
राजेन्द्र सुदामा प्रीतमानसः ।
शस्तैः
सुगन्धैः कुसुमैं माला विरचिता ददौ ॥ ४९ ॥
ताभिः
स्वलङ्कृतौ प्रीतौ कृष्णरामौ सहानुगौ ।
प्रणताय
प्रपन्नाय ददतुर्वरदौ वरान् ॥ ५० ॥
सोऽपि
वव्रेऽचलां भक्तिं तस्मिन् एवाखिलात्मनि ।
तद्भक्तेषु
च सौहार्दं भूतेषु च दयां पराम् ॥ ५१ ॥
इति
तस्मै वरं दत्त्वा श्रियं चान्वयवर्धिनीम् ।
बलमायुर्यशः
कान्तिं निर्जगाम सहाग्रजः ॥ ५२ ॥
इसके
बाद भगवान् श्रीकृष्ण सुदामा मालीके घर गये। दोनों भाइयोंको देखते ही सुदामा उठ
खड़ा हुआ और पृथ्वीपर सिर रखकर उन्हें प्रणाम किया ॥ ४३ ॥ फिर उनको आसनपर बैठाकर
उनके पाँव पखारे,
हाथ धुलाए और तदनन्तर ग्वालबालोंके सहित सबकी फूलोंके हार, पान, चन्दन आदि सामग्रियों से विधिपूर्वक पूजा की ॥
४४ ॥ इसके पश्चात् उसने प्रार्थना की—‘प्रभो ! आप दोनोंके
शुभागमनसे हमारा जन्म सफल हो गया। हमारा कुल पवित्र हो गया। आज हम पितर, ऋषि और देवताओंके ऋणसे मुक्त हो गये। वे हमपर परम सन्तुष्ट हैं ॥ ४५ ॥ आप
दोनों सम्पूर्ण जगत्के परम कारण हैं। आप संसारके अभ्युदय-उन्नति और नि:श्रेयस—मोक्षके लिये ही इस पृथ्वीपर अपने ज्ञान, बल आदि
अंशोंके साथ अवतीर्ण हुए हैं ॥ ४६ ॥ यद्यपि आप प्रेम करनेवालोंसे ही प्रेम करते
हैं, भजन करनेवालोंको ही भजते हैं—फिर
भी आपकी दृष्टिमें विषमता नहीं है। क्योंकि आप सारे जगत्के परम सुहृद् और आत्मा
हैं। आप समस्त प्राणियों और पदार्थोंमें समरूपसे स्थित हैं ॥ ४७ ॥ मैं आपका दास
हूँ। आप दोनों मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं आपलोगोंकी क्या सेवा करूँ। भगवन् ! जीवपर
आपका यह बहुत बड़ा अनुग्रह है, पूर्ण कृपा-प्रसाद है कि आप
उसे आज्ञा देकर किसी कार्यमें नियुक्त करते हैं ॥ ४८ ॥ राजेन्द्र ! सुदामा मालीने
इस प्रकार प्रार्थना करनेके बाद भगवान्का अभिप्राय जानकर बड़े प्रेम और आनन्दसे
भरकर अत्यन्त सुन्दर-सुन्दर तथा सुगन्धित पुष्पोंसे गुँथे हुए हार उन्हें पहनाये ॥
४९ ॥ जब ग्वालबाल और बलरामजीके साथ भगवान् श्रीकृष्ण उन सुन्दर-सुन्दर मालाओंसे
अलंकृत हो चुके, तब उन वरदायक प्रभुने प्रसन्न होकर विनीत और
शरणागत सुदामाको श्रेष्ठ वर दिये ॥ ५० ॥ सुदामा मालीने उनसे यह वर माँगा कि ‘प्रभो ! आप ही समस्त प्राणियोंके आत्मा हैं। सर्वस्वरूप आपके चरणोंमें
मेरी अविचल भक्ति हो। आपके भक्तोंसे मेरा सौहार्द, मैत्रीका
सम्बन्ध हो और समस्त प्राणियोंके प्रति अहैतुक दयाका भाव बना रहे’ ॥ ५१ ॥ भगवान् श्रीकृष्णने सुदामाको उसके माँगे हुए वर तो दिये ही—ऐसी लक्ष्मी भी दी, जो वंशपरम्पराके साथ-साथ बढ़ती
जाय; और साथ ही बल, आयु, कीर्ति तथा कान्तिका भी वरदान दिया। इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजीके
साथ वहाँसे विदा हुए ॥ ५२ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे
पूर्वार्धे पुरप्रवेशो नाम एकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४१ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें