॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)
महारास
जो
लोग भगवान् श्रीकृष्ण को केवल मनुष्य मानते हैं और केवल मानवीय भाव एवं आदर्श की
कसौटी पर उनके चरित्र को कसना चाहते हैं, वे पहले ही शास्त्र से विमुख हो जाते
हैं, उनके चित्त में धर्मं की कोई धारणा ही नहीं रहती और वे भगवान् को भी अपनी
बुद्धि के पीछे चलाना चाहते हैं | इसलिए साधकों के सामने उनकी युक्तियों का कोई
महत्त्व ही नहीं रहता | जो शास्त्र के “श्रीकृष्ण स्वयं भगवान् हैं” इस वचन को
नहीं मानता,वह उनकी लीलाओं को किस आधार पर सत्य मानकर उनकी आलोचना करता है –यह समझ
में नहीं आता | जैसे मानवधर्म, देवधर्म,पशुधर्म पृथक्-पृथक् होते हैं, वैसे ही
भगवद्धर्म भी पृथक् होता है और भगवान् के
चरित्र का परीक्षण उसकी ही कसौटी पर होना चाहिए | भगवान् का एकमात्र धर्म है –प्रेमपरवशता,
दयापरवशता और भक्तों की अभिलाषा की पूर्ति | यशोदा के हाथों से ऊखल में बंध जाने
वाले श्रीकृष्ण अपने निजजन गोपियों के प्रेम के कारण उनके साथ नाचें, यह उनका सहज
धर्म है |
यदि
यह हठ ही हो कि श्रीकृष्ण का चरित्र मानवीय धारणाओं और आदर्शों के अनुकूल ही होना
चाहिए, तो इसमें भी कोई आपत्ति की बात नहीं है |
श्रीकृष्ण की अवस्था उस समय दस वर्ष के लगभग थी, जैसा की भागवत में स्पष्ट
वर्णन मिलता है | गाँवों में रहने वाले बहुत-से दस वर्ष के बच्चे तो नंगे ही रहते
हैं | उन्हें कामवृत्ति और स्त्री-पुरुष सम्बन्ध का कुछ ज्ञान ही नहीं रहता |
लड़के-लडकी एक साथ खेलते हैं,नाचते हैं,गाते हैं,त्यौहार मनाते हैं,गुड्डी-गुड्डे
की शादी करते हैं,बरात ले जाते हैं और आपस में भोज-भात भी करते हैं | गाँव के बड़े
बूढ़े लोग बच्चों का यह मनोरंजन देखकर प्रसन्न ही होते हैं, उनके मन में किसी
प्रकार का दुर्भाव नहीं आता | ऐसे बच्चों को युवती स्त्रियाँ भी बड़े प्रेम से
देखती हैं, आदर करती हैं, नहलाती हैं, खिलाती हैं | यह तो साधारण बच्चों की बात है
| श्रीकृष्ण जैसे असाधारण धी-शक्तिसम्पन्न बालक जिनके अनेक सद्गुण बाल्यकाल में ही
प्रकट हो चुके थे;
जिनकी सम्मति, चातुर्य और शक्तिसे बड़ी-बड़ी
विपत्तियों से व्रजवासियों ने त्राण पाया था; उनके प्रति
वहाँ की स्त्रियों, बालिकाओं और बालकों का कितना आदर रहा
होगा—इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। उनके सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वर्य से आकृष्ट होकर गाँव की बालक-बालिकाएँ उनके साथ ही
रहती थीं और श्रीकृष्ण भी अपनी मौलिक प्रतिभा से राग, ताल
आदि नये-नये ढंग से उनका मनोरञ्जन करते थे और उन्हें शिक्षा देते थे। ऐसे ही
मनोरञ्जनों में से रासलीला भी एक थी, ऐसा समझना चाहिये। जो
श्रीकृष्णको केवल मनुष्य समझते हैं, उनकी दृष्टि में भी यह
दोष की बात नहीं होनी चाहिये। वे उदारता और बुद्धिमानीके साथ भागवत में आये हुए
काम-रति आदि शब्दोंका ठीक वैसा ही अर्थ समझें, जैसा कि
उपनिषद् और गीतामें इन शब्दोंका अर्थ होता है। वास्तवमें गोपियोंके निष्कपट
प्रेमका ही नामान्तर काम है और भगवान् श्रीकृष्णका आत्मरमण अथवा उनकी दिव्य
क्रीडा ही रति है। इसीलिये स्थान-स्थानपर उनके लिये विभु, परमेश्वर,
लक्ष्मीपति, भगवान्, योगेश्वरेश्वर,
आत्माराम, मन्मथमन्मथ आदि शब्द आये हैं—जिससे किसीको कोई भ्रम न हो जाय।
जब
गोपियाँ श्रीकृष्णकी वंशीध्वनि सुनकर वनमें जाने लगी थीं, तब उनके सगे-सम्बन्धियोंने उन्हें जानेसे रोका था। रातमें अपनी बालिकाओंको
भला कौन बाहर जाने देता। फिर भी वे चली गयीं और इससे घरवालोंको किसी प्रकारकी
अप्रसन्नता नहीं हुई। और न तो उन्होंने श्रीकृष्णपर या गोपियोंपर किसी प्रकारका
लाञ्छन ही लगाया। उनका श्रीकृष्णपर, गोपियोंपर विश्वास था और
वे उनके बचपन और खेलोंसे परिचित थे। उन्हें तो ऐसा मालूम हुआ मानो गोपियाँ हमारे पास
ही हैं। इसको दो प्रकारसे समझ सकते हैं। एक तो यह कि श्रीकृष्णके प्रति उनका इतना
विश्वास था कि श्रीकृष्णके पास गोपियोंका रहना भी अपने ही पास रहना है। यह तो
मानवीय दृष्टि है। दूसरी दृष्टि यह है कि श्रीकृष्णकी योगमायाने ऐसी व्यवस्था कर
रखी थी, गोपोंको वे घरमें ही दीखती थीं। किसी भी दृष्टिसे
रासलीला दूषित प्रसङ्ग नहीं है, बल्कि अधिकारी पुरुषोंके
लिये तो यह सम्पूर्ण मनोमलको नष्ट करनेवाला है। रासलीलाके अन्तमें कहा गया है कि
जो पुरुष श्रद्धा-भक्तिपूर्वक रासलीलाका श्रवण और वर्णन करता है, उसके हृदयका रोग-काम बहुत ही शीघ्र नष्ट हो जाता है और उसे भगवान् का
प्रेम प्राप्त होता है। भागवतमें अनेक स्थानपर ऐसा वर्णन आता है कि जो भगवान् की
मायाका वर्णन करता है, वह मायासे पार हो जाता है। जो भगवान्
के कामजय का वर्णन करता है, वह कामपर विजय प्राप्त करता है।
राजा परीक्षित्ने अपने प्रश्नों में जो
शङ्काएँ की हैं, उनका उत्तर प्रश्नों के अनुरूप ही अध्याय २९
के श्लोक १३ से १६ तक और अध्याय ३३ के श्लोक ३० से ३७ तक श्रीशुकदेवजी ने दिया है।
उस
उत्तर से वे शङ्काएँ तो हट गयी हैं, परंतु भगवान् की
दिव्यलीला का रहस्य नहीं खुलने पाया; सम्भवत: उस रहस्यको
गुप्त रखनेके लिये ही ३३वें अध्यायमें रासलीलाप्रसङ्ग समाप्त कर दिया गया। वस्तुत:
इस लीलाके गूढ़ रहस्यकी प्राकृत-जगत्में व्याख्या की भी नहीं जा सकती । क्योंकि यह
इस जगत् की क्रीडा ही नहीं है। यह तो उस दिव्य आनन्दमय रसमय राज्यकी चमत्कारमयी
लीला है, जिसके श्रवण और दर्शनके लिये परमहंस मुनिगण भी सदा
उत्कण्ठित रहते हैं। कुछ लोग इस लीलाप्रसंगको भागवत में क्षेपक मानते हैं, वे वास्तवमें दुराग्रह करते हैं। क्योंकि प्राचीन-से-प्राचीन प्रतियोंमें
भी यह प्रसंग मिलता है और जरा विचार करके देखनेसे यह सर्वथा सुसंगत और निर्दोष
प्रतीत होता है। भगवान् श्रीकृष्ण कृपा करके ऐसी विमल बुद्धि दें, जिससे हमलोग इसका कुछ रहस्य समझनेमें समर्थ हों।
भगवान्
के इस दिव्य-लीलाके वर्णनका यही प्रयोजन है कि जीव गोपियोंके उस अहैतुक प्रेमका, जो कि श्रीकृष्णको ही सुख पहुँचानेके लिये था, स्मरण
करे और उसके द्वारा भगवान् के रसमय दिव्यलीलालोक में भगवान् के अनन्त प्रेमका
अनुभव करे। हमें रासलीलाका अध्ययन करते समय किसी प्रकारकी भी शङ्का न करके इस भाव को
जगाये रखना चाहिये।
—हनुमानप्रसाद पोद्दार
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे
पूर्वार्धे रासक्रीडावर्णनं नाम त्रयोत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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