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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – अड़तालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
भगवान्
का कुब्जा और अक्रूरजी के घर जाना
श्रीशुक
उवाच -
अथ
विज्ञाय भगवान् सर्वात्मा सर्वदर्शनः ।
सैरन्ध्र्याः
कामतप्तायाः प्रियमिच्छन् गृहं ययौ ॥ १ ॥
महार्होपस्करैराढ्यं
कामोपायोपबृंहितम् ।
मुक्तादामपताकाभिः
वितानशयनासनैः ।
धूपैः
सुरभिभिर्दीपैः स्रग् गन्धैरपि मण्डितम् ॥ २ ॥
गृहं
तमायान्तमवेक्ष्य सासनात्
सद्यः
समुत्थाय हि जातसम्भ्रमा ।
यथोपसङ्गम्य
सखीभिरच्युतं
सभाजयामास
सत्-आसनादिभिः ॥ ३ ॥
तथोद्धवः
साधुतयाभिपूजितो
न्यषीददुर्व्यामभिमृश्य
चासनम् ।
कृष्णोऽपि
तूर्णं शयनं महाधनं
विवेश
लोकाचरितान्यनुव्रतः ॥ ४ ॥
सा
मज्जनालेपदुकूलभूषण
स्रग्गन्धताम्बूलसुधासवादिभिः
।
प्रसाधितात्मोपससार
माधवं
सव्रीडलीलोत्स्मितविभ्रमेक्षितैः
॥ ५ ॥
आहूय
कान्तां नवसङ्गमह्रिया
विशङ्कितां
कङ्कणभूषिते करे ।
प्रगृह्य
शय्यामधिवेश्य रामया
रेमेऽनुलेपार्पणपुण्यलेशया
॥ ६ ॥
सानङ्गतप्तकुचयोरुरसस्तथाक्ष्णोः
जिघ्रन्त्यनन्तचरणेन
रुजो मृजन्ती ।
दोर्भ्यां
स्तनान्तरगतं परिरभ्य कान्तम्
आनन्दमूर्तिमजहादतिदीर्घतापम्
॥ ७ ॥
सैवं
कैवल्यनाथं तं प्राप्य दुष्प्राप्यमीश्वरम् ।
अङ्गरागार्पणेनाहो
दुर्भगेदमयाचत ॥ ८ ॥
आहोष्यतामिह
प्रेष्ठ दिनानि कतिचिन्मया ।
रमस्व
नोत्सहे त्यक्तुं सङ्गं तेऽम्बुरुहेक्षण ॥ ९ ॥
तस्यै
कामवरं दत्त्वा मानयित्वा च मानदः ।
सहोद्धवेन
सर्वेशः स्वधामागमदर्चितम् ॥ १० ॥
दुरार्ध्यं
समाराध्य विष्णुं सर्वेश्वरेश्वरम् ।
यो
वृणीते मनोग्राह्यं असत्त्वात् कुमनीष्यसौ ॥ ११ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! तदनन्तर सबके आत्मा तथा सब कुछ देखने वाले भगवान् श्रीकृष्ण
अपनेसे मिलनकी आकाङ्क्षा रखकर व्याकुल हुई कुब्जा का प्रिय करने—उसे सुख देनेकी इच्छासे उसके घर गये ।। १ ।। कुब्जाका घर बहुमूल्य
सामग्रियों से सम्पन्न था। उसमें श्ृंगार-रसका उद्दीपन करनेवाली बहुत-सी
साधन-सामग्री भी भरी हुई थी। मोतीकी झालरें और स्थान-स्थानपर झंडियाँ भी लगी हुई
थीं। चँदोवे तने हुए थे। सेजें बिछायी हुई थीं और बैठनेके लिये बहुत सुन्दर-सुन्दर
आसन लगाये हुए थे। धूपकी सुगन्ध फैल रही थी। दीपककी शिखाएँ जगमगा रही थीं।
स्थान-स्थानपर फूलोंके हार और चन्दन रखे हुए थे ।। २ ।। भगवान् को अपने घर आते
देख कुब्जा तुरंत हड़बड़ाकर अपने आसनसे उठ खड़ी हुई और सखियोंके साथ आगे बढक़र उसने
विधिपूर्वक भगवान्का स्वागत-सत्कार किया। फिर श्रेष्ठ आसन आदि देकर विविध
उपचारोंसे उनकी विधिपूर्वक पूजा की ।। ३ ।। कुब्जाने भगवान् के परमभक्त उद्धवजीकी
भी समुचित रीतिसे पूजा की; परंतु वे उसके सम्मानके लिये उसका
दिया हुआ आसन छूकर धरतीपर ही बैठ गये। (अपने स्वामीके सामने उन्होंने आसनपर बैठना
उचित न समझा।) भगवान् श्रीकृष्ण सच्चिदानन्द- स्वरूप होनेपर भी लोकाचारका अनुकरण
करते हुए तुरंत उसकी बहुमूल्य सेजपर जा बैठे ।। ४ ।। तब कुब्जा स्नान, अङ्गराग, वस्त्र, आभूषण,
हार, गन्ध (इत्र आदि), ताम्बूल
और सुधासव आदिसे अपनेको खूब सजाकर लीलामयी लजीली मुसकान तथा हाव-भावके साथ भगवान्की
ओर देखती हुई उनके पास आयी ।। ५ ।। कुब्जा नवीन मिलनके संकोचसे कुछ झिझक रही थी।
तब श्यासुन्दर श्रीकृष्णने उसे अपने पास बुला लिया और उसकी कङ्कणसे सुशोभित कलाई
पकडक़र अपने पास बैठा लिया और उसके साथ क्रीडा करने लगे। परीक्षित् ! कुब्जाने इस
जन्ममें केवल भगवान् को अङ्गराग अॢपत किया था, उसी एक
शुभकर्मके फलस्वरूप उसे ऐसा अनुपम अवसर मिला ।। ६ ।। कुब्जा भगवान् श्रीकृष्णके
चरणोंको अपने काम-संतप्त हृदय, वक्ष:स्थल और नेत्रोंपर रखकर
उनकी दिव्य सुगन्ध लेने लगी और इस प्रकार उसने अपने हृदयकी सारी आधि-व्याधि शान्त
कर ली। वक्ष:स्थल से सटे हुए आनन्दमूर्ति प्रियतम श्यामसुन्दरका अपनी दोनों भुजाओं
से गाढ़ आलिङ्गन करके कुब्जाने दीर्घकालसे बढ़े हुए वरिहतापको शान्त किया ।। ७ ।।
परीक्षित् ! कुब्जाने केवल अङ्गराग समॢपत किया था। उतनेसे ही उसे उन
सर्वशक्तिमान् भगवान् की प्राप्ति हुई, जो कैवल्यमोक्षके
अधीश्वर हैं और जिनकी प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। परंतु उस दुर्भगा ने उन्हें
प्राप्त करके भी व्रजगोपियोंकी भाँति सेवा न माँगकर यही माँगा— ।। ८ ।। ‘प्रियतम ! आप कुछ दिन यहीं रहकर मेरे साथ
क्रीडा कीजिये। क्योंकि हे कमलनयन ! मुझसे आपका साथ नहीं छोड़ा जाता’ ।। ९ ।। परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण सबका मान रखनेवाले और सर्वेश्वर
हैं। उन्होंने अभीष्ट वर देकर उसकी पूजा स्वीकार की और फिर अपने प्यारे भक्त
उद्धवजीके साथ अपने सर्वसम्मानित घरपर लौट आये ।। १० ।। परीक्षित् ! भगवान्
ब्रह्मा आदि समस्त ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं। उनको प्रसन्न कर लेना भी जीवके लिये
बहुत ही कठिन है। जो कोई उन्हें प्रसन्न करके उनसे विषय-सुख माँगता है, वह निश्चय ही दुर्बुद्धि है; क्योंकि वास्तवमें
विषय-सुख अत्यन्त तुच्छ—नहीं के बराबर है ।। ११ ।।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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