॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
राजसूय यज्ञकी
पूर्ति और दुर्योधनका अपमान
श्रीराजोवाच -
अजातशत्रोस्तं दृष्ट्वा राजसूयमहोदयम् ।
सर्वे मुमुदिरे
ब्रह्मन् नृदेवा ये समागताः ॥ १ ॥
दुर्योधनं
वर्जयित्वा राजानः सर्षयः सुराः ।
इति श्रुतं नो
भगवन् तत्र कारणमुच्यताम् ॥ २ ॥
श्रीबादरायणिरुवाच -
पितामहस्य ते यज्ञे राजसूये महात्मनः ।
बान्धवाः
परिचर्यायां तस्यासन् प्रेमबंधनाः ॥ ३ ॥
भीमो महानसाध्यक्षो
धनाध्यक्षः सुयोधनः ।
सहदेवस्तु पूजायां
नकुलो द्रव्यसाधने ॥ ४ ॥
गुरुशुश्रूषणे
जिष्णुः कृष्णः पादावनेजने ।
परिवेषणे द्रुपदजा
कर्णो दाने महामनाः ॥ ५ ॥
युयुधानो विकर्णश्च
हार्दिक्यो विदुरादयः ।
बाह्लीकपुत्रा
भूर्याद्या ये च सन्तर्दनादयः ॥ ६ ॥
निरूपिता महायज्ञे
नानाकर्मसु ते तदा ।
प्रवर्तन्ते स्म
राजेन्द्र राज्ञः प्रियचिकीर्षवः ॥ ७ ॥
ऋत्विक् सदस्यबहुवित्सु सुहृत्तमेषु
स्विष्टेषु
सूनृतसमर्हणदक्षिणाभिः ।
चैद्ये च
सात्वतपतेश्चरणं प्रविष्टे
चक्रुस्ततस्त्ववभृथ स्नपनं द्युनद्याम् ॥ ८ ॥
मृदङ्गशङ्खपणव धुन्धुर्यानकगोमुखाः ।
वादित्राणि
विचित्राणि नेदुरावभृथोत्सवे ॥ ९ ॥
नर्तक्यो
ननृतुर्हृष्टा गायका यूथशो जगुः ।
वीणावेणुतलोन्नादः
तेषां स दिवमस्पृशत् ॥ १० ॥
चित्रध्वजपताकाग्रैः इभेन्द्रस्यन्दनार्वभिः ।
स्वलङ्कृतैर्भटैर्भूपा निर्ययू रुक्ममालिनः ॥ ११
॥
यदुसृञ्जयकाम्बोज
कुरुकेकयकोशलाः ।
कम्पयन्तो भुवं
सैन्यैः यजनपुरःसराः ॥ १२ ॥
सदस्यर्त्विग्द्विजश्रेष्ठा
ब्रह्मघोषेण भूयसा ।
देवर्षिपितृगन्धर्वाः तुष्टुवुः पुष्पवर्षिणः ॥
१३ ॥
स्वलंकृता नरा
नार्यो गन्धस्रग् भूषणाम्बरैः ।
विलिंपन्त्यो
अभिसिंच विजह्रुर्विविधै रसैः ॥ १४ ॥
तैलगोरसगन्धोद
हरिद्रासान्द्रकुंकुमैः ।
पुम्भिर्लिप्ताः
प्रलिंपन्त्यो विजह्रुर्वारयोषितः ॥ १५ ॥
गुप्ता नृभिर्निरगमन्नुपलब्धुमेतद्
देव्यो यथा
दिवि विमानवरैर्नृदेव्यः ।
ता मातुलेयसखिभिः
परिषिच्यमानाः
सव्रीडहासविकसद्
वदना विरेजुः ॥ १६ ॥
ता देवरानुत सखीन्
सिन्सिषिचुर्दृतीभिः
क्लिन्नाम्बरा
विवृतगात्रकुचोरुमध्याः ।
औत्सुक्यमुक्त कवरा
च्च्यवमानमाल्याः
क्षोभं
दधुर्मलधियां रुचिरैर्विहारैः ॥ १७ ॥
स सम्राड् रथमारुढः सदश्वं रुक्ममालिनम् ।
व्यरोचत स्वपत्नीभिः
क्रियाभिः क्रतुराडिव ॥ १८ ॥
पत्नीसंयाजावभृथ्यैः
चरित्वा ते तमृत्विजः ।
आचान्तं स्नापयां
चक्रुः गंगायां सह कृष्णया ॥ १९ ॥
देवदुन्दुभयो नेदुः
नरदुंदुभिभिः समम् ।
मुमुचुः
पुष्पवर्षाणि देवर्षिपितृमानवाः ॥ २० ॥
सस्नुस्तत्र ततः
सर्वे वर्णाश्रमयुता नराः ।
महापातक्यपि यतः
सद्यो मुच्येत किल्बिषात् ॥ २१ ॥
अथ राजाहते क्षौमे
परिधाय स्वलङ्कृतः ।
ऋत्विक् सदस्य
विप्रादीन् आनर्चाभरणाम्बरैः ॥ २२ ॥
बन्धूञ्ज्ञातीन्
नृपान् मित्र सुहृदोऽन्यांश्च सर्वशः ।
अभीक्ष्णं पूजयामास
नारायणपरो नृपः ॥ २३ ॥
सर्वे जनाः सुररुचो मणिकुण्डलस्रग्
उष्णीषकञ्चुक
दुकूलमहार्घ्यहाराः ।
नार्यश्च
कुण्डलयुगालकवृन्दजुष्ट
वक्त्रश्रियः
कनकमेखलया विरेजुः ॥ २४ ॥
राजा
परीक्षित्ने पूछा—भगवन् ! अजातशत्रु धर्मराज
युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमहोत्सवको देखकर, जितने मनुष्य,
नरपति, ऋषि, मुनि और
देवता आदि आये थे, वे सब आनन्दित हुए। परन्तु दुर्योधनको
बड़ा दु:ख, बड़ी पीड़ा हुई; यह बात
मैंने आपके मुखसे सुनी है। भगवन् ! आप कृपा करके इसका कारण बतलाइये ॥ १-२ ॥
श्रीशुकदेवजी
महाराजने कहा—परीक्षित् ! तुम्हारे दादा
युधिष्ठिर बड़े महात्मा थे। उनके प्रेमबन्धनसे बँधकर सभी बन्धु-बान्धवोंने राजसूय
यज्ञमें विभिन्न सेवाकार्य स्वीकार किया था ॥ ३ ॥ भीमसेन भोजनालयकी देख-रेख करते
थे। दुर्योधन कोषाध्यक्ष थे। सहदेव अभ्यागतोंके स्वागत-सत्कारमें नियुक्त थे और
नकुल विविध प्रकारकी सामग्री एकत्र करनेका काम देखते थे ॥ ४ ॥ अर्जुन गुरुजनोंकी
सेवा-शुश्रूषा करते थे और स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण आये हुए अतिथियोंके पाँव
पखारनेका काम करते थे। देवी द्रौपदी भोजन परसनेका काम करतीं और उदारशिरोमणि कर्ण
खुले हाथों दान दिया करते थे ॥ ५ ॥ परीक्षित् ! इसी प्रकार सात्यकि, विकर्ण, हार्दिक्य, विदुर,
भूरिश्रवा आदि बाह्लीकके पुत्र और सन्तर्दन आदि राजसूय यज्ञमें
विभिन्न कर्मोंमें नियुक्त थे। वे सब-के-सब वैसा ही काम करते थे, जिससे महाराज युधिष्ठिरका प्रिय और हित हो ॥६-७॥
परीक्षित् !
जब ऋत्विज्, सदस्य और बहुज्ञ पुरुषोंका
तथा अपने इष्ट-मित्र एवं बन्धु-बान्धवोंका सुमधुर वाणी, विविध
प्रकारकी पूजा-सामग्री और दक्षिणा आदिसे भलीभाँति सत्कार हो चुका तथा शिशुपाल
भक्तवत्सल भगवान्के चरणोंमें समा गया, तब धर्मराज युधिष्ठिर
गङ्गाजीमें यज्ञान्त- स्नान करने गये ॥ ८ ॥ उस समय जब वे अवभृथ-स्नान करने लगे,
तब मृदङ्ग, शङ्ख, ढोल,
नौबत, नगारे और नरसिंगे आदि तरह-तरहके बाजे
बजने लगे ॥ ९ ॥ नर्तकियाँ आनन्दसे झूम-झूमकर नाचने लगीं। झुंड-के-झुंड गवैये गाने
लगे और वीणा, बाँसुरी तथा झाँझ-मँजीरे बजने लगे। इनकी तुमुल
ध्वनि सारे आकाशमें गूँज गयी ॥ १० ॥ सोनेके हार पहने हुए यदु, सृञ्जय, कम्बोज, कुरु, केकय और कोसल देशके नरपति रंग-बिरंगी ध्वजा-पताकाओंसे युक्त और खूब
सजे-धजे गजराजों, रथों, घोड़ों तथा
सुसज्जित वीर सैनिकोंके साथ महाराज युधिष्ठिरको आगे करके पृथ्वीको कँपाते हुए चल
रहे थे ॥ ११-१२ ॥ यज्ञके सदस्य ऋत्विज् और बहुत-से श्रेष्ठ ब्राह्मण वेदमन्त्रोंका
ऊँचे स्वरसे उच्चारण करते हुए चले। देवता, ऋषि, पितर, गन्धर्व आकाशसे पुष्पोंकी वर्षा करते हुए उनकी
स्तुति करने लगे ॥ १३ ॥ इन्द्रप्रस्थके नर-नारी इत्र-फुलेल, पुष्पोंके
हार, रंग-बिरंगे वस्त्र और बहुमूल्य आभूषणोंसे सज-धजकर
एक-दूसरेपर जल, तेल, दूध, मक्खन आदि रस डालकर भिगो देते, एक-दूसरेके शरीरमें
लगा देते और इस प्रकार क्रीडा करते हुए चलने लगे ॥ १४ ॥ वाराङ्गनाएँ पुरुषोंको तेल,
गोरस, सुगन्धित जल, हल्दी
और गाढ़ी केसर मल देतीं और पुरुष भी उन्हें उन्हीं वस्तुओंसे सराबोर कर देते ॥ १५
॥
उस समय इस
उत्सवको देखनेके लिये जैसे उत्तम-उत्तम विमानोंपर चढक़र आकाशमें बहुत- सी देवियाँ
आयी थीं, वैसे ही सैनिकोंके द्वारा
सुरक्षित इन्द्रप्रस्थकी बहुत-सी राजमहिलाएँ भी सुन्दर- सुन्दर पालकियोंपर सवार
होकर आयी थीं। पाण्डवोंके ममेरे भाई श्रीकृष्ण और उनके सखा उन रानियोंके ऊपर तरह-तरहके
रंग आदि डाल रहे थे। इससे रानियोंके मुख लजीली मुसकराहटसे खिल उठते थे और उनकी
बड़ी शोभा होती थी ॥ १६ ॥ उन लोगोंके रंग आदि डालनेसे रानियोंके वस्त्र भीग गये
थे। इससे उनके शरीरके अङ्ग-प्रत्यङ्ग—वक्ष:स्थल, जंघा और कटिभाग कुछ-कुछ दीख-से रहे थे। वे भी पिचकारी और पात्रोंमें रंग
भर-भरकर अपने देवरों और उनके सखाओंपर उड़ेल रही थीं। प्रेमभरी उत्सुकताके कारण
उनकी चोटियों और जूड़ोंके बन्धन ढीले पड़ गये थे तथा उनमें गुँथे हुए फूल गिरते जा
रहे थे। परीक्षित् ! उनका यह रुचिर और पवित्र विहार देखकर मलिन अन्त:करणवाले पुरुषोंका
चित्त चञ्चल हो उठता था, काम-मोहित हो जाता था ॥ १७ ॥ चक्रवर्ती
राजा युधिष्ठिर द्रौपदी आदि रानियोंके साथ सुन्दर घोड़ोंसे युक्त एवं सोनेके
हारोंसे सुसज्जित रथपर सवार होकर ऐसे शोभायमान हो रहे थे, मानो
स्वयं राजसूय यज्ञ प्रयाज आदि क्रियाओंके साथ मूर्तिमान् होकर प्रकट हो गया हो ॥
१८ ॥ ऋत्विजोंने पत्नी-संयाज (एक प्रकारका यज्ञकर्म) तथा यज्ञान्त-स्नानसम्बन्धी
कर्म करवाकर द्रौपदीके साथ सम्राट् युधिष्ठिरको आचमन करवाया और इसके बाद
गङ्गास्नान ॥ १९ ॥ उस समय मनुष्योंकी दुन्दुभियोंके साथ ही देवताओंकी दुन्दुभियाँ
भी बजने लगीं। बड़े-बड़े देवता, ऋषि-मुनि, पितर और मनुष्य पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ॥ २० ॥ महाराज युधिष्ठिरके स्नान
कर लेनेके बाद सभी वर्णों एवं आश्रमोंके लोगोंने गङ्गाजीमें स्नान किया; क्योंकि इस स्नानसे बड़े-से-बड़ा महापापी भी अपनी पाप-राशिसे तत्काल मुक्त
हो जाता है ॥ २१ ॥ तदनन्तर धर्मराज युधिष्ठिरने नयी रेशमी धोती और दुपट्टा धारण
किया तथा विविध प्रकारके आभूषणोंसे अपनेको सजा लिया। फिर ऋत्विज्, सदस्य, ब्राह्मण आदिको वस्त्राभूषण दे-देकर उनकी
पूजा की ॥ २२ ॥ महाराज युधिष्ठिर भगवत्परायण थे, उन्हें
सबमें भगवान्के ही दर्शन होते। इसलिये वे भाई-बन्धु, कुटुम्बी,
नरपति, इष्ट-मित्र, हितैषी
और सभी लोगोंकी बार-बार पूजा करते ॥ २३ ॥ उस समय सभी लोग जड़ाऊ कुण्डल, पुष्पोंके हार, पगड़ी, लंबी
अँगरखी, दुपट्टा तथा मणियोंके बहुमूल्य हार पहनकर देवताओंके
समान शोभायमान हो रहे थे। स्त्रियोंके मुखोंकी भी दोनों कानोंके कर्णफूल और
घुँघराली अलकोंसे बड़ी शोभा हो रही थी तथा उनके कटिभागमें सोनेकी करधनियाँ तो बहुत
ही भली मालूम हो रही थीं ॥ २४ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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