॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उनहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
देवर्षि
नारदजी का भगवान् की गृहचर्या देखना
श्रीशुक उवाच -
नरकं निहतं श्रुत्वा तथोद्वाहं च योषिताम् ।
कृष्णेनैकेन
बह्वीनां तद् दिदृक्षुः स्म नारदः ॥ १ ॥
चित्रं बतैतदेकेन
वपुषा युगपत् पृथक् ।
गृहेषु
द्व्यष्टसाहस्रं स्त्रिय एक उदावहत् ॥ २ ॥
इत्युत्सुको
द्वारवतीं देवर्षिर्द्रष्टुमागमत् ।
पुष्पितोपवनाराम
द्विजालिकुलनादिताम् ॥ ३ ॥
उत्फुल्लेन्दीवराम्भोज कह्लारकुमुदोत्पलैः ।
छुरितेषु
सरःसूच्चैः कूजितां हंससारसैः ॥ ४ ॥
प्रासादलक्षैर्नवभिः जुष्टां स्फाटिकराजतैः ।
महामरकतप्रख्यैः
स्वर्णरत्नपरिच्छदैः ॥ ५ ॥
विभक्तरथ्यापथचत्वरापणैः
शालासभाभी
रुचिरां सुरालयैः ।
संसिक्तमार्गाङ्गनवीथिदेहलीं
पतत्पताका
ध्वजवारितातपाम् ॥ ६ ॥
तस्यामन्तःपुरं श्रीमद् अर्चितं सर्वधिष्ण्यपैः ।
हरेः स्वकौशलं यत्र
त्वष्ट्रा कार्त्स्न्येन दर्शितम् ॥ ७ ॥
तत्र षोडशभिः सद्म
सहस्रैः समलङ्कृतम् ।
विवेशैकतमं शौरेः
पत्नीनां भवनं महत् ॥ ८ ॥
विष्टब्धं
विद्रुमस्तंभैः वैदूर्यफलकोत्तमैः ।
इन्द्रनीलमयैः
कुड्यैः जगत्या चाहतत्विषा ॥ ९ ॥
वितानैर्निर्मितैस्त्वष्ट्रा मुक्तादामविलम्बिभिः
।
दान्तैरासनपर्यङ्कैः मण्युत्तमपरिष्कृतैः ॥ १० ॥
दासीभिर्निष्ककण्ठीभिः सुवासोभिरलङ्कृतम् ।
पुम्भिः
सकञ्चुकोष्णीष सुवस्त्रमणिकुण्डलैः ॥ ११ ॥
रत्नप्रदीपनिकरद्युतिभिर्निरस्त
ध्वान्तं
विचित्रवलभीषु शिखण्डिनोऽङ्ग ।
नृत्यन्ति यत्र
विहितागुरुधूपमक्षैः
निर्यान्तमीक्ष्य घनबुद्धय उन्नदन्तः ॥ १२ ॥
तस्मिन्समानगुणरूपवयःसुवेष
दासीसहस्रयुतयानुसवं गृहिण्या ।
विप्रो ददर्श
चमरव्यजनेन रुक्म
दण्डेन
सात्वतपतिं परिवीजयन्त्या ॥ १३ ॥
तं सन्निरीक्ष्य
भगवान् सहसोत्थितश्री
पर्यङ्कतः
सकलधर्मभृतां वरिष्ठः ।
आनम्य पादयुगलं
शिरसा किरीट
जुष्टेन
साञ्जलिरवीविशदासने स्वे ॥ १४ ॥
तस्यावनिज्य चरणौ
तदपः स्वमूर्ध्ना
बिभ्रज्जगद्गुरुतमोऽपि
सतां पतिर्हि ।
ब्रह्मण्यदेव इति
यद्गुणनाम युक्तं
तस्यैव
यच्चरणशौचमशेषतीर्थम् ॥ १५ ॥
संपूज्य देवऋषिवर्यमृषिः
पुराणो
नारायणो नरसखो
विधिनोदितेन ।
वाण्याभिभाष्य
मितयामृतमिष्टया तं
प्राह प्रभो
भगवते करवाम हे किम् ॥ १६ ॥
श्रीनारद उवाच -
नैवाद्भुतं त्वयि विभोऽखिललोकनाथे
मैत्री जनेषु
सकलेषु दमः खलानाम् ।
निःश्रेयसाय हि
जगत्स्थितिरक्षणाभ्यां
स्वैरावतार
उरुगाय विदाम सुष्ठु ॥ १७ ॥
दृष्टं
तवाङ्घ्रियुगलं जनतापवर्गं
ब्रह्मादिभिर्हृदि विचिन्त्यमगाधबोधैः ।
संसारकूपपतितोत्तरणावलम्बं
ध्यायंश्चराम्यनुगृहाण यथा स्मृतिः स्यात् ॥ १८ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! जब देवर्षि
नारदने सुना कि भगवान् श्रीकृष्णने नरकासुर (भौमासुर) को मारकर अकेले ही हजारों
राजकुमारियोंके साथ विवाह कर लिया है, तब उनके मनमें भगवान्की
रहन-सहन देखनेकी बड़ी अभिलाषा हुई ॥ १ ॥ वे सोचने लगे—अहो,
यह कितने आश्चर्यकी बात है कि भगवान् श्रीकृष्णने एक ही शरीरसे एक
ही समय सोलह हजार महलोंमें अलग-अलग सोलह हजार राजकुमारियोंका पाणिग्रहण किया ॥ २ ॥
देवर्षि नारद इस उत्सुकतासे प्रेरित होकर भगवान्की लीला देखनेके लिये द्वारका आ
पहुँचे। वहाँके उपवन और उद्यान खिले हुए रंग-बिरंगे पुष्पोंसे लदे वृक्षोंसे
परिपूर्ण थे, उनपर तरह-तरहके पक्षी चहक रहे थे और भौंरे
गुञ्जार कर रहे थे ॥ ३ ॥ निर्मल जलसे भरे सरोवरोंमें नीले, लाल
और सफेद रंगके भाँति-भाँतिके कमल खिले हुए थे। कुमुद (कोर्ईं) और नवजात कमलोंकी
मानो भीड़ ही लगी हुई थी। उनमें हंस और सारस कलरव कर रहे थे ॥ ४ ॥ द्वारकापुरीमें
स्फटिकमणि और चाँदीके नौ लाख महल थे। वे फर्श आदिमें जड़ी हुई महामरकतमणि (पन्ने)
की प्रभासे जगमगा रहे थे और उनमें सोने तथा हीरोंकी बहुत-सी सामग्रियाँ शोभायमान
थीं ॥ ५ ॥ उसके राजपथ (बड़ी-बड़ी सडक़ें), गलियाँ, चौराहे और बाजार बहुत ही सुन्दर-सुन्दर थे। घुड़साल आदि पशुओंके रहनेके
स्थान, सभा-भवन और देव-मन्दिरोंके कारण उसका सौन्दर्य और भी
चमक उठा था। उसकी सडक़ों, चौक, गली और
दरवाजोंपर छिडक़ाव किया गया था। छोटी-छोटी झंडियाँ और बड़े-बड़े झंडे जगह-जगह फहरा
रहे थे, जिनके कारण रास्तोंपर धूप नहीं आ पाती थी ॥ ६ ॥
उसी
द्वारकानगरीमें भगवान् श्रीकृष्णका बहुत ही सुन्दर अन्त:पुर था। बड़े-बड़े लोकपाल
उसकी पूजा-प्रशंसा किया करते थे। उसका निर्माण करनेमें विश्वकर्माने अपना सारा
कला- कौशल, सारी कारीगरी लगा दी थी ॥ ७
॥ उस अन्त:पुर (रनिवास) में भगवान्की रानियोंके सोलह हजारसे अधिक महल शोभायमान थे,
उनमेंसे एक बड़े भवनमें देवर्षि नारदजीने प्रवेश किया ॥ ८ ॥ उस
महलमें मूँगोंके खंभे, वैदूर्यके उत्तम-उत्तम छज्जे तथा
इन्द्रनीलमणिकी दीवारें जगमगा रही थीं और वहाँकी गचें भी ऐसी इन्द्रनीलमणियोंसे
बनी हुई थीं, जिनकी चमक किसी प्रकार कम नहीं होती ॥ ९ ॥
विश्वकर्माने बहुत-से ऐसे चँदोवे बना रखे थे, जिनमें मोतीकी
लडिय़ोंकी झालरें लटक रही थीं। हाथी-दाँतके बने हुए आसन और पलँग थे, जिनमें श्रेष्ठ-श्रेष्ठ मणि जड़ी हुई थी ॥ १० ॥ बहुत-सी दासियाँ गलेमें
सोनेका हार पहने और सुन्दर वस्त्रोंसे सुसज्जित होकर तथा बहुत-से सेवक भी जामा-पगड़ी
और सुन्दर-सुन्दर वस्त्र पहने तथा जड़ाऊ कुण्डल धारण किये अपने-अपने काममें व्यस्त
थे और महलकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥ ११ ॥ अनेकों रत्न-प्रदीप अपनी जगमगाहटसे उसका
अन्धकार दूर कर रहे थे। अगरकी धूप देनेके कारण झरोखोंसे धूआँ निकल रहा था। उसे
देखकर रंग-बिरंगे मणिमय छज्जोंपर बैठे हुए मोर बादलोंके भ्रमसे कूक-कूककर नाचने
लगते ॥ १२ ॥ देवर्षि नारदजीने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण उस महलकी स्वामिनी
रुक्मिणीजीके साथ बैठे हुए हैं और वे अपने हाथों भगवान्को सोनेकी डाँड़ीवाले
चँवरसे हवा कर रही हैं। यद्यपि उस महलमें रुक्मिणीजीके समान ही गुण, रूप, अवस्था और वेष-भूषावाली सहस्रों दासियाँ भी हर
समय विद्यमान रहती थीं ॥ १३ ॥
नारदजीको
देखते ही समस्त धार्मिकों के मुकुटमणि
भगवान् श्रीकृष्ण रुक्मिणीजी के पलँगसे सहसा उठ खड़े हुए। उन्होंने देवर्षि
नारदके युगलचरणोंमें मुकुटयुक्त सिरसे प्रणाम किया और हाथ जोडक़र उन्हें अपने आसनपर
बैठाया ॥ १४ ॥ परीक्षित् ! इसमें सन्देह नहीं कि भगवान् श्रीकृष्ण चराचर जगत् के
परम गुरु हैं और उनके चरणोंका धोवन गङ्गाजल सारे जगत्को पवित्र करनेवाला है। फिर
भी वे परमभक्तवत्सल और संतोंके परम आदर्श,
उनके स्वामी हैं। उनका एक असाधारण नाम ब्रह्मण्यदेव भी है। वे
ब्राह्मणोंको ही अपना आराध्यदेव मानते हैं। उनका यह नाम उनके गुणके अनुरूप एवं
उचित ही है। तभी तो भगवान् श्रीकृष्णने स्वयं ही नारदजीके पाँव पखारे और उनका
चरणामृत अपने सिरपर धारण किया ॥ १५ ॥ नरशिरोमणि नरके सखा सर्वदर्शी पुराणपुरुष
भगवान् नारायणने शास्त्रोक्त विधिसे देवर्षिशिरोमणि भगवान् नारदकी पूजा की। इसके
बाद अमृतसे भी मीठे किन्तु थोड़े शब्दोंमें उनका स्वागत-सत्कार किया और फिर कहा—‘प्रभो ! आप तो स्वयं समग्र ज्ञान, वैराग्य, धर्म, यश, श्री और ऐश्वर्यसे
पूर्ण हैं। आपकी हम क्या सेवा करें’ ? ॥ १६ ॥
देवर्षि
नारदने कहा—भगवन् ! आप समस्त लोकोंके
एकमात्र स्वामी हैं। आपके लिये यह कोई नयी बात नहीं है कि आप अपने भक्तजनोंसे
प्रेम करते हैं और दुष्टोंको दण्ड देते हैं। परमयशस्वी प्रभो ! आपने जगत् की
स्थिति और रक्षाके द्वारा समस्त जीवोंका कल्याण करनेके लिये स्वेच्छासे अवतार
ग्रहण किया है। भगवन् ! यह बात हम भलीभाँति जानते हैं ॥ १७ ॥ यह बड़े सौभाग्यकी
बात है कि आज मुझे आपके चरणकमलोंके दर्शन हुए हैं। आपके ये चरणकमल सम्पूर्ण जनताको
परम साम्य, मोक्ष देनेमें समर्थ हैं। जिनके ज्ञानकी कोई सीमा
ही नहीं है, वे ब्रह्मा, शङ्कर आदि
सदा-सर्वदा अपने हृदयमें उनका चिन्तन करते रहते हैं। वास्तवमें वे श्रीचरण ही
संसाररूप कूएँमें गिरे हुए लोगोंको बाहर निकलनेके लिये अवलम्बन हैं। आप ऐसी कृपा
कीजिये कि आपके उन चरणकमलोंकी स्मृति सर्वदा बनी रहे और मैं चाहे जहाँ जैसे रहूँ,
उनके ध्यानमें तन्मय रहूँ ॥ १८ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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