॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अड़सठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
कौरवोंपर
बलरामजी का कोप और साम्ब का विवाह
श्रीशुक उवाच -
दुर्योधनसुतां राजन्
लक्ष्मणां समितिंजयः ।
स्वयंवरस्थामहरत् सांबो
जाम्बवतीसुतः ॥ १ ॥
कौरवाः कुपिता ऊचुः
दुर्विनीतोऽयमर्भकः ।
कदर्थीकृत्य नः कन्यां
अकामां अहरद् बलात् ॥ २ ॥
बध्नीतेमं दुर्विनीतं किं
करिष्यन्ति वृष्णयः ।
येऽस्मत् प्रसादोपचितां
दत्तां नो भुञ्जते महीम् ॥ ३ ॥
निगृहीतं सुतं श्रुत्वा
यद्येष्यन्तीह वृष्णयः ।
भग्नदर्पाः शमं यान्ति
प्राणा इव सुसंयताः ॥ ४ ॥
इति कर्णः शलो भूरिः
यज्ञकेतुः सुयोधनः ।
साम्बमारेभिरे बद्धुं
कुरुवृद्धानुमोदिताः ॥ ५ ॥
दृष्ट्वानुधावतः साम्बो धार्तराष्ट्रान् महारथः
।
प्रगृह्य रुचिरं चापं तस्थौ सिंह इवैकलः ॥ ६ ॥
तं ते जिघृक्षवः क्रुद्धाः तिष्ठ तिष्ठेति
भाषिणः ।
आसाद्य धन्विनो बाणैः कर्णाग्रण्यः समाकिरन् ॥ ७
॥
सोऽपविद्धः कुरुश्रेष्ठ कुरुभिर्यदुनन्दनः ।
नामृष्यत् तदचिन्त्यार्भः सिंह क्षुद्रमृगैरिव ॥
८ ॥
विस्फूर्ज्य रुचिरं चापं सर्वान् विव्याध सायकैः
।
कर्णादीन् षड्रथान् वीरः तावद्भिर्युगपत् पृथक्
॥ ९ ॥
चतुर्भिश्चतुरो वाहान् एकैकेन च सारथीन् ।
रथिनश्च महेष्वासान् तस्य तत्तेऽभ्यपूजयन् ॥ १०
॥
तं तु ते विरथं चक्रुः चत्वारश्चतुरो हयान् ।
एकस्तु सारथिं जघ्ने चिच्छेदान्यः शरासनम् ॥ ११
॥
तं बद्ध्वा विरथीकृत्य कृच्छ्रेण कुरवो युधि ।
कुमारं स्वस्य कन्यां च स्वपुरं जयिनोऽविशन् ॥
१२ ॥
तच्छ्रुत्वा नारदोक्तेन राजन् सञ्जातमन्यवः ।
कुरून् प्रत्युद्यमं चक्रुः उग्रसेनप्रचोदिताः ॥
१३ ॥
सान्त्वयित्वा तु तान् रामः सन्नद्धान्
वृष्णिपुङ्गवान् ।
नैच्छय् कुरूणां वृष्णीनां कलिं कलिमलापहः ॥ १४
॥
जगाम हास्तिनपुरं रथेनादित्यवर्चसा ।
ब्राह्मणैः कुलवृद्धैश्च वृतश्चन्द्र इव ग्रहैः
॥ १५ ॥
गत्वा गजाह्वयं रामो बाह्योपवनमास्थितः ।
उद्धवं प्रेषयामास धृतराष्ट्रं बुभुत्सया ॥ १६ ॥
सोऽभिवन्द्याम्बिकापुत्रं भीष्मं द्रोणं च
बाह्लिकम् ।
दुर्योधनं च विधिवद् राममागतमब्रवीत् ॥ १७ ॥
तेऽतिप्रीतास्तमाकर्ण्य प्राप्तं रामं
सुहृत्तमम् ।
तमर्चयित्वाभिययुः सर्वे मङ्गलपाणयः ॥ १८ ॥
तं सङ्गम्य यथान्यायं गामर्घ्यं च न्यवेदयन् ।
तेषां ये तत्प्रभावज्ञाः प्रणेमुः शिरसा बलम् ॥
१९ ॥
बन्धून् कुशलिनः श्रुत्वा पृष्ट्वा शिवमनामयम् ।
परस्परमथो रामो बभाषेऽविक्लवं वचः ॥ २० ॥
उग्रसेनः क्षितीशेशो यद् व आज्ञापयत् प्रभुः ।
तद् अव्यग्रधियः श्रुत्वा कुरुध्वं माविलम्बितम्
॥ २१ ॥
यद् यूयं बहवस्त्वेकं जित्वाधर्मेण धार्मिकम् ।
अबध्नीताथ तन्मृष्ये बन्धूनामैक्यकाम्यया ॥ २२ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! जाम्बवतीनन्दन
साम्ब अकेले ही बहुत बड़े-बड़े वीरोंपर विजय प्राप्त करनेवाले थे। वे स्वयंवरमें
स्थित दुर्योधनकी कन्या लक्ष्मणा को हर लाये ॥ १ ॥ इससे कौरवोंको बड़ा क्रोध हुआ,
वे बोले—‘यह बालक बहुत ढीठ है। देखो तो सही,
इसने हमलोगोंको नीचा दिखाकर बलपूर्वक हमारी कन्याका अपहरण कर लिया।
वह तो इसे चाहती भी न थी ॥ २ ॥ अत: इस ढीठको पकडक़र बाँध लो। यदि यदुवंशीलोग रुष्ट
भी होंगे तो वे हमारा क्या बिगाड़ लेंगे ? वे लोग हमारी ही
कृपासे हमारी ही दी हुई धन-धान्यसे परिपूर्ण पृथ्वीका उपभोग कर रहे हैं ॥ ३ ॥ यदि
वे लोग अपने इस लडक़ेके बंदी होनेका समाचार सुनकर यहाँ आयेंगे, तो हमलोग उनका सारा घमंड चूर-चूर कर देंगे और उन लोगोंके मिजाज वैसे ही
ठंडे हो जायँगे, जैसे संयमी पुरुषके द्वारा प्राणायाम आदि
उपायोंसे वशमें की हुई इन्द्रियाँ’ ॥ ४ ॥ ऐसा विचार करके
कर्ण, शल, भूरिश्रवा, यज्ञकेतु और दुर्योधनादि वीरोंने कुरुवंशके बड़े-बूढ़ोंकी अनुमति ली तथा
साम्बको पकड़ लेनेकी तैयारी की ॥ ५ ॥
जब महारथी
साम्बने देखा कि धृतराष्ट्रके पुत्र मेरा पीछा कर रहे हैं, तब वे एक सुन्दर धनुष चढ़ाकर सिंहके समान
अकेले ही रणभूमिमें डट गये ॥ ६ ॥ इधर कर्णको मुखिया बनाकर कौरववीर धनुष चढ़ाये हुए
साम्बके पास आ पहुँचे और क्रोधमें भरकर उनको पकड़ लेनेकी इच्छासे ‘खड़ा रह ! खड़ा रह !’ इस प्रकार ललकारते हुए बाणोंकी
वर्षा करने लगे ॥ ७ ॥ परीक्षित्! यदुनन्दन साम्ब अचिन्त्यैश्वर्यशाली भगवान्
श्रीकृष्णके पुत्र थे। कौरवोंके प्रहारसे वे उनपर चिढ़ गये, जैसे
सिंह तुच्छ हरिनोंका पराक्रम देखकर चिढ़ जाता है ॥ ८ ॥ साम्बने अपने सुन्दर धनुषका
टंकार करके कर्ण आदि छ: वीरोंपर, जो अलग-अलग छ: रथोंपर सवार
थे, छ:-छ: बाणोंसे एक साथ अलग-अलग प्रहार किया ॥ ९ ॥ उनमेंसे
चार-चार बाण उनके चार-चार घोड़ोंपर, एक-एक उनके सारथियोंपर
और एक-एक उन महान् धनुषधारी रथी वीरोंपर छोड़ा। साम्बके इस अद्भुत हस्तलाघव को
देखकर विपक्षी वीर भी मुक्तकण्ठसे उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ १० ॥ इसके बाद उन छ:हों
वीरोंने एक साथ मिलकर साम्बको रथहीन कर दिया। चार वीरोंने एक-एक बाणसे उनके चार
घोड़ोंको मारा, एकने सारथिको और एकने साम्बका धनुष काट डाला
॥ ११ ॥ इस प्रकार कौरवोंने युद्धमें बड़ी कठिनाई और कष्टसे साम्बको रथहीन करके
बाँध लिया। इसके बाद वे उन्हें तथा अपनी कन्या लक्ष्मणाको लेकर जय मनाते हुए
हस्तिनापुर लौट आये ॥ १२ ॥
परीक्षित् !
नारदजीसे यह समाचार सुनकर यदुवंशियोंको बड़ा क्रोध आया। वे महाराज उग्रसेनकी
आज्ञासे कौरवोंपर चढ़ाई करनेकी तैयारी करने लगे ॥ १३ ॥ बलरामजी कलहप्रधान कलियुगके
सारे पाप-तापको मिटानेवाले हैं। उन्होंने कुरुवंशियों और यदुवंशियोंके
लड़ाई-झगड़ेको ठीक न समझा। यद्यपि यदुवंशी अपनी तैयारी पूरी कर चुके थे, फिर भी उन्होंने उन्हें शान्त कर दिया और
स्वयं सूर्यके समान तेजस्वी रथपर सवार होकर हस्तिनापुर गये। उनके साथ कुछ ब्राह्मण
और यदुवंशके बड़े-बूढ़े भी गये। उनके बीचमें बलरामजीकी ऐसी शोभा हो रही थी,
मानो चन्द्रमा ग्रहोंसे घिरे हुए हों ॥ १४-१५ ॥ हस्तिनापुर पहुँचकर
बलरामजी नगरके बाहर एक उपवनमें ठहर गये और कौरवलोग क्या करना चाहते हैं, इस बातका पता लगानेके लिये उन्होंने उद्धवजीको धृतराष्ट्रके पास भेजा ॥ १६
॥
उद्धवजी ने
कौरवों की सभामें जाकर धृतराष्ट्र,
भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, बाह्लीक और दुर्योधनकी विधिपूर्वक अभ्यर्थना-वन्दना की और निवेदन किया कि ‘बलरामजी पधारे हैं’ ॥ १७ ॥ अपने परम हितैषी और
प्रियतम बलरामजीका आगमन सुनकर कौरवोंकी प्रसन्नताकी सीमा न रही। वे उद्धवजीका
विधिपूर्वक सत्कार करके अपने हाथोंमें माङ्गलिक सामग्री लेकर बलरामजीकी अगवानी
करने चले ॥ १८ ॥ फिर अपनी-अपनी अवस्था और सम्बन्धके अनुसार सब लोग बलरामजीसे मिले
तथा उनके सत्कारके लिये उन्हें गौ अर्पण की एवं अर्घ्य प्रदान किया। उनमें जो लोग
भगवान् बलरामजीका प्रभाव जानते थे, उन्होंने सिर झुकाकर
उन्हें प्रणाम किया ॥ १९ ॥ तदनन्तर उन लोगोंने परस्पर एक-दूसरेका कुशल-मङ्गल पूछा
और यह सुनकर कि सब भाई-बन्धु सकुशल हैं, बलरामजीने बड़ी
धीरता और गम्भीरताके साथ यह बात कही— ॥ २० ॥ ‘सर्वसमर्थ राजाधिराज महाराज उग्रसेनने तुमलोगोंको एक आज्ञा दी है। उसे
तुमलोग एकाग्रता और सावधानीके साथ सुनो और अविलम्ब उसका पालन करो ॥ २१ ॥
उग्रसेनजीने कहा है—हम जानते हैं कि तुमलोगोंने कइयोंने
मिलकर अधर्मसे अकेले धर्मात्मा साम्बको हरा दिया और बंदी कर लिया है। यह सब हम
इसलिये सह लेते हैं कि हम सम्बन्धियोंमें परस्पर फूट न पड़े, एकता बनी रहे। (अत: अब झगड़ा मत बढ़ाओ, साम्ब को उसकी
नववधू के साथ हमारे पास भेज दो) ॥ २२ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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