बुधवार, 31 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग

 

यदाऽऽरंभेषु निर्विण्णो विरक्तः संयतेंद्रियः ।

 अभ्यासेनात्मनो योगी धारयेद् अचलं मनः ॥ १८ ॥

 धार्यमाणं मनो यर्हि भ्राम्यत् आशु अनवस्थितम् ।

 अतन्द्रितोऽनुरोधेन मार्गेणात्मवशं नयेत् ॥ १९ ॥

 मनोगतिं न विसृजेत् जितप्राणो जितेंद्रियः ।

 सत्त्वसंपन्नया बुद्ध्या मन आत्मवशं नयेत् ॥ २० ॥

 एष वै परमो योगो मनसः सङ्ग्रहः स्मृतः ।

 हृदयज्ञत्वमन्विच्छन् दम्यस्येवार्वतो मुहुः ॥ २१ ॥

 साङ्ख्येन सर्वभावानां प्रतिलोमानुलोमतः ।

 भवाप्ययावनुध्यायेन् मनो यावत्प्रसीदति ॥ २२ ॥

 निर्विण्णस्य विरक्तस्य पुरुषस्योक्तवेदिनः ।

 मनस्त्यजति दौरात्म्यं चिन्तितस्यानुचिन्तया ॥ २३ ॥

 यमादिभिः योगपथैः आन्वीक्षिक्या च विद्यया ।

 ममार्चोपासनाभिर्वा नान्यैर्योग्यं स्मरेन्मनः ॥ २४ ॥

 यदि कुर्यात्प्रमादेन योगी कर्म विगर्हितम् ।

 योगेनैव दहेदंहो नान्यत्तत्र कदाचन ॥ २५ ॥

 स्वे स्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुणः परिकीर्तितः ।

 कर्मणां जात्यशुद्धानां अनेन नियमः कृतः ।

 गुणदोषविधानेन सङ्गानां त्याजनेच्छया ॥ २६ ॥

 जातश्रद्धो मत्कथासु निर्विण्णः सर्वकर्मसु ।

 वेद दुःखात्मकान् कामान् परित्यागेऽप्यनीश्वरः ॥ २७ ॥

 ततो भजेत मां प्रीतः श्रद्धालुर्दृढनिश्चयः ।

 जुषमाणश्च तान्कामान् दुःखोदर्कांश्च गर्हयन् ॥ २८ ॥

 प्रोक्तेन भक्तियोगेन भजतो मासकृन्मुनेः ।

 कामा हृदय्या नश्यन्ति सर्वे मयि हृदि स्थिते ॥ २९ ॥

 भिद्यते हृदयग्रन्थिः छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।

 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि मयि दृष्टेऽखिलात्मनि ॥ ३० ॥

 तस्मान्मद्‍भक्तियुक्तस्य योगिनो वै मदात्मनः ।

 न ज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह ॥ ३१ ॥

 यत्कर्मभिर्यत्तपसा ज्ञानवैराग्यतश्च यत् ।

 योगेन दानधर्मेण श्रेयोभिः इतरैरपि ॥ ३२ ॥

 सर्वं मद्‍भक्तियोगेन मद्‍भक्तो लभतेऽञ्जसा ।

 स्वर्गापवर्गं मद्धाम कथञ्चिद् यदि वाञ्छति ॥ ३३ ॥

 न किञ्चित् साधवो धीरा भक्ता ह्येकान्तिनो मम ।

 वाञ्छन्त्यपि मया दत्तं कैवल्यं अपुनर्भवम् ॥ ३४ ॥

 नैरपेक्ष्यं परं प्राहुः निःश्रेयसमनल्पकम् ।

 तस्मान्निराशिषो भक्तिः निरपेक्षस्य मे भवेत् ॥ ३५ ॥

 न मय्येकान्तभक्तानां गुणदोषोद्‍भवा गुणाः ।

 साधूनां समचित्तानां बुद्धेः परमुपेयुषाम् ॥ ३६ ॥

 एवमेतान्मया दिष्टान् अनुतिष्ठन्ति मे पथः ।

 क्षेमं विन्दन्ति मत्स्थानं यद्‍ ब्रह्म परमं विदुः ॥ ३७ ॥

 

प्रिय उद्धव ! जब पुरुष दोषदर्शन  के कारण कर्मोंसे उद्विग्न और विरक्त हो जाय, तब जितेन्द्रिय होकर वह योगमें स्थित हो जाय और अभ्यास—आत्मानुसन्धान के द्वारा अपना मन मुझ परमात्मामें निश्चलरूपसे धारण करे ॥ १८ ॥ जब स्थिर करते समय मन चञ्चल होकर इधर-उधर भटकने लगे, तब झटपट बड़ी सावधानीसे उसे मनाकर, समझा-बुझाकर, फुसलाकर अपने वशमें कर ले ॥ १९ ॥ इन्द्रियों और प्राणोंको अपने वशमें रखे और मनको एक क्षणके लिये भी स्वतन्त्र न छोड़े। उसकी एक-एक चाल, एक-एक हरकतको देखता रहे। इस प्रकार सत्त्वसम्पन्न बुद्धिके द्वारा धीरे-धीरे मनको अपने वशमें कर लेना चाहिये ॥ २० ॥ जैसे सवार घोड़ेको अपने वशमें करते समय उसे अपने मनोभावकी पहचान कराना चाहता है—अपनी इच्छाके अनुसार उसे चलाना चाहता है और बार-बार फुसलाकर उसे अपने वशमें कर लेता है, वैसे ही मनको फुसलाकर, उसे मीठी-मीठी बातें सुनाकर वशमें कर लेना भी परम योग है ॥ २१ ॥ सांख्यशास्त्रमें प्रकृतिसे लेकर शरीरपर्यन्त सृष्टिका जो क्रम बतलाया गया है, उसके अनुसार सृष्टि-चिन्तन करना चाहिये और जिस क्रमसे शरीर आदिका प्रकृतिमें लय बताया गया है, उस प्रकार लय-चिन्तन करना चाहिये। यह क्रम तबतक जारी रखना चाहिये, जबतक मन शान्त—स्थिर न हो जाय ॥ २२ ॥ जो पुरुष संसारसे विरक्त हो गया है और जिसे संसारके पदार्थोंमें दु:ख-बुद्धि हो गयी है, वह अपने गुरुजनोंके उपदेशको भलीभाँति समझकर बार-बार अपने स्वरूपके ही चिन्तनमें संलग्न  रहता है। इस अभ्याससे बहुत शीघ्र ही उसका मन अपनी वह चञ्चलता, जो अनात्मा शरीर आदिमें आत्मबुद्धि करनेसे हुई है, छोड़ देता है ॥ २३ ॥ यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि आदि योगमार्गोंसे, वस्तुतत्त्वका निरीक्षण-परीक्षण करनेवाली आत्मविद्यासे तथा मेरी प्रतिमाकी उपासनासे—अर्थात् कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोगसे मन परमात्माका चिन्तन करने लगता है; और कोई उपाय नहीं है ॥ २४ ॥

उद्धवजी ! वैसे तो योगी कभी कोई निन्दित कर्म करता ही नहीं; परन्तु यदि कभी उससे प्रमादवश कोई अपराध बन जाय तो योगके द्वारा ही उस पापको जला डाले, कृच्छ्रचान्द्रायण आदि दूसरे प्रायश्चित्त कभी न करे ॥ २५ ॥ अपने-अपने अधिकारमें जो निष्ठा है, वही गुण कहा गया है। इस गुण-दोष और विधि-निषेधके विधानसे यही तात्पर्य निकलता है कि किसी प्रकार विषयासक्तिका परित्याग हो जाय; क्योंकि कर्म तो जन्मसे ही अशुद्ध हैं, अनर्थके मूल हैं। शास्त्रका तात्पर्य उनका नियन्त्रण, नियम ही है। जहाँतक हो सके प्रवृत्तिका संकोच ही करना चाहिये ॥ २६ ॥ जो साधक समस्त कर्मोंसे विरक्त हो गया हो, उनमें दु:खबुद्धि रखता हो, मेरी लीलाकथाके प्रति श्रद्धालु हो और यह भी जानता हो कि सभी भोग और भोगवासनाएँ दु:खरूप हैं, किन्तु इतना सब जानकर भी जो उनके परित्यागमें समर्थ न हो, उसे चाहिये कि उन भोगोंको तो भोग ले; परन्तु उन्हें सच्चे हृदयसे दु:खजनक समझे और मन-ही-मन उनकी निन्दा करे तथा उसे अपना दुर्भाग्य ही समझे। साथ ही इस दुविधाकी स्थितिसे छुटकारा पानेके लिये श्रद्धा, दृढ़ निश्चय और प्रेमसे मेरा भजन करे ॥ २७-२८ ॥ इस प्रकार मेरे बतलाये हुए भक्तियोगके द्वारा निरन्तर मेरा भजन करनेसे मैं उस साधकके हृदयमें आकर बैठ जाता हूँ और मेरे विराजमान होते ही उसके हृदयकी सारी वासनाएँ अपने संस्कारोंके साथ नष्ट हो जाती हैं ॥ २९ ॥ इस तरह जब उसे मुझ सर्वात्माका साक्षात्कार हो जाता है, तब तो उसके हृदयकी गाँठ टूट जाती है, उसके सारे संशय छिन्न- भिन्न हो जाते हैं और कर्मवासनाएँ सर्वथा क्षीण हो जाती हैं ॥ ३० ॥ इसीसे जो योगी मेरी भक्तिसे युक्त और मेरे चिन्तनमें मग्न रहता है, उसके लिये ज्ञान अथवा वैराग्यकी आवश्यकता नहीं होती। उसका कल्याण तो प्राय: मेरी भक्तिके द्वारा ही हो जाता है ॥ ३१ ॥ कर्म, तपस्या, ज्ञान, वैराग्य, योगाभ्यास, दान, धर्म और दूसरे कल्याणसाधनोंसे जो कुछ स्वर्ग, अपवर्ग, मेरा परम धाम अथवा कोई भी वस्तु प्राप्त होती है, वह सब मेरा भक्त मेरे भक्तियोगके प्रभावसे ही, यदि चाहे तो, अनायास प्राप्त कर लेता है ॥ ३२-३३ ॥ मेरे अनन्यप्रेमी एवं धैर्यवान् साधु भक्त स्वयं तो कुछ चाहते ही नहीं; यदि मैं उन्हें देना चाहता हूँ और देता भी हूँ तो भी दूसरी वस्तुओंकी तो बात ही क्या—वे कैवल्य-मोक्ष भी नहीं लेना चाहते ॥ ३४ ॥ उद्धवजी ! सबसे श्रेष्ठ एवं महान् नि:श्रेयस (परम कल्याण) तो निरपेक्षताका ही दूसरा नाम है। इसलिये जो निष्काम और निरपेक्ष होता है, उसीको मेरी भक्ति प्राप्त होती है ॥ ३५ ॥ मेरे अनन्यप्रेमी भक्तोंका और उन समदर्शी महात्माओंका; जो बुद्धिसे अतीत परमतत्त्वको प्राप्त हो चुके हैं, इन विधि और निषेधसे होनेवाले पुण्य और पापसे कोई सम्बन्ध ही नहीं होता ॥ ३६ ॥ इस प्रकार जो लोग मेरे बतलाये हुए इन ज्ञान, भक्ति और कर्ममार्गोंका आश्रय लेते हैं, वे मेरे परम कल्याणस्वरूप धामको प्राप्त होते हैं, क्योंकि वे परब्रह्मतत्त्वको जान लेते हैं ॥ ३७ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां एकादशस्कन्धे विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग

 

 श्रीउद्धव उवाच -

 विधिश्च प्रतिषेधश्च निगमो हि ईश्वरस्य ते ।

 अवेक्षते अरविंदाक्ष गुणं दोषं च कर्मणाम् ॥ १ ॥

 वर्णाश्रमविकल्पं च प्रतिलोमानुलोमजम् ।

 द्रव्यदेशवयः कालान् स्वर्गं नरकमेव च ॥ २ ॥

 गुणदोषभिदादृष्टिं अंतरेण वचस्तव ।

 निःश्रेयसं कथं नॄणां निषेध विधिलक्षणम् ॥ ३ ॥

 पितृ देव मनुष्यानां वेदश्चक्षुस्तवेश्वर ।

 श्रेयस्त्वनुपलब्धेऽर्थे साध्यसाधनयोरपि ॥ ४ ॥

 गुणदोषभिदादृष्टिः निगमात्ते न हि स्वतः ।

 निगमेनापवादश्च भिदाया इति ह भ्रमः ॥ ५ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

 योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया ।

 ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित् ॥ ६ ॥

 निर्विण्णानां ज्ञानयोगो न्यासिनामिह कर्मसु ।

 तेषु अनिर्विण्णचित्तानां कर्मयोगस्तु कामिनाम् ॥ ७ ॥

 यदृच्छया मत्कथादौ जातश्रद्धस्तु यः पुमान् ।

 न निर्विण्णो नातिसक्तो भक्तियोगोऽस्य सिद्धिदः ॥ ८ ॥

 तावत् कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता ।

 मत्कथाश्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते ॥ ९ ॥

 स्वधर्मस्थो यजन् यज्ञैः अनाशीःकाम उद्धव ।

 न याति स्वर्गनरकौ यद्यन्यन् न समाचरेत् ॥ १० ॥

 अस्मिंल्लोके वर्तमानः स्वधर्मस्थोऽनघः शुचिः ।

 ज्ञानं विशुद्धमाप्नोति मद्‍भक्तिं वा यदृच्छया ॥ ११ ॥

 स्वर्गिणोऽप्येतमिच्छंति लोकं निरयिणस्तथा ।

 साधकं ज्ञानभक्तिभ्यां उभयं तद् असाधकम् ॥ १२ ॥

 न नरः स्वर्गतिं काङ्क्षेत् नारकीं वा विचक्षणः ।

 न इमं लोकं च काङ्क्षेत देहावेशात् प्रमाद्यति ॥ १३ ॥

 एतद् विद्वान् पुरा मृत्योः अभवाय घटेत सः ।

 अप्रमत्त इदं ज्ञात्वा मर्त्यमप्यर्थसिद्धिदम् ॥ १४ ॥

 छिद्यमानं यमैः एतैः कृतनीडं वनस्पतिम् ।

 खगः स्वकेतं उत्सृज्य क्षेमं याति ह्यलंपटः ॥ १५ ॥

 अहोरात्रैः छिद्यमानं बुद्ध्वाऽऽयुर्भयवेपथुः ।

 मुक्तसङ्गः परं बुद्ध्वा निरीह उपशाम्यति ॥ १६ ॥

 नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं

     प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम् ।

 मयानुकूलेन नभस्वतेरितं

     पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा ॥ १७ ॥

 

उद्धवजीने कहा—कमलनयन श्रीकृष्ण ! आप सर्वशक्तिमान् हैं। आपकी आज्ञा ही वेद है; उसमें कुछ कर्मोंको करनेकी विधि है और कुछके करनेका निषेध है। यह विधि-निषेध कर्मोंके गुण और दोषकी परीक्षा करके ही तो होता है ॥ १ ॥ वर्णाश्रम-भेद, प्रतिलोम और अनुलोमरूप वर्णसंकर, कर्मोंके उपयुक्त और अनुपयुक्त द्रव्य, देश, आयु और काल तथा स्वर्ग और नरकके भेदोंका बोध भी वेदोंसे ही होता है ॥ २ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि आपकी वाणी ही वेद है, परन्तु उसमें विधि-निषेध ही तो भरा पड़ा है। यदि उसमें गुण और दोषमें भेद करनेवाली दृष्टि न हो, तो वह प्राणियोंका कल्याण करनेमें समर्थ ही कैसे हो ? ॥ ३ ॥ सर्वशक्तिमान् परमेश्वर ! आपकी वाणी वेद ही पितर, देवता और मनुष्योंके लिये श्रेष्ठ मार्ग-दर्शकका काम करता है; क्योंकि उसीके द्वारा स्वर्ग-मोक्ष आदि अदृष्ट वस्तुओंका बोध होता है और इस लोकमें भी किसका कौन-सा साध्य है और क्या साधन— इसका निर्णय भी उसीसे होता है ॥ ४ ॥ प्रभो ! इसमें सन्देह नहीं कि गुण और दोषोंमें भेददृष्टि आपकी वाणी वेदके ही अनुसार है, किसीकी अपनी कल्पना नहीं; परन्तु प्रश्र तो यह है कि आपकी वाणी ही भेदका निषेध भी करती है। यह विरोध देखकर मुझे भ्रम हो रहा है। आप कृपा करके मेरा यह भ्रम मिटाइये ॥५॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव ! मैंने ही वेदोंमें एवं अन्यत्र भी मनुष्योंका कल्याण करनेके लिये अधिकारिभेदसे तीन प्रकारके योगोंका उपदेश किया है। वे हैं—ज्ञान, कर्म और भक्ति। मनुष्यके परम कल्याणके लिये इनके अतिरिक्त और कोई उपाय कहीं नहीं है ॥ ६ ॥ उद्धवजी ! जो लोग कर्मों तथा उनके फलोंसे विरक्त हो गये हैं और उनका त्याग कर चुके हैं, वे ज्ञानयोगके अधिकारी हैं। इसके विपरीत जिनके चित्तमें कर्मों और उनके फलोंसे वैराग्य नहीं हुआ है, उनमें दु:खबुद्धि नहीं हुई है, वे सकाम व्यक्ति कर्मयोगके अधिकारी हैं ॥ ७ ॥ जो पुरुष न तो अत्यन्त विरक्त है और न अत्यन्त आसक्त ही है तथा किसी पूर्वजन्मके शुभकर्मसे सौभाग्यवश मेरी लीला-कथा आदिमें उसकी श्रद्धा हो गयी है, वह भक्तियोगका अधिकारी है। उसे भक्तियोगके द्वारा ही सिद्धि मिल सकती है ॥ ८ ॥ कर्मके सम्बन्धमें जितने भी विधिनिषेध हैं, उनके अनुसार तभीतक कर्म करना चाहिये, जबतक कर्ममय जगत् और उसे प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि सुखोंसे वैराग्य न हो जाय अथवा जबतक मेरी लीला-कथाके श्रवण-कीर्तन आदिमें श्रद्धा न हो जाय ॥ ९ ॥ उद्धव ! इस प्रकार अपने वर्ण और आश्रमके अनुकूल धर्ममें स्थित रहकर यज्ञोंके द्वारा बिना किसी आशा और कामनाके मेरी आराधना करता रहे और निषिद्ध कर्मोंसे दूर रहकर केवल विहित कर्मोंका ही आचरण करे तो उसे स्वर्ग या नरकमें नहीं जाना पड़ता ॥ १० ॥ अपने धर्ममें निष्ठा रखनेवाला पुरुष इस शरीरमें रहते-रहते ही निषिद्ध कर्मका परित्याग कर देता है और रागादि मलोंसे भी मुक्त—पवित्र हो जाता है। इसीसे अनायास ही उसे आत्मसाक्षात्काररूप विशुद्ध तत्त्वज्ञान अथवा द्रुत-चित्त होनेपर मेरी भक्ति प्राप्त होती है ॥ ११ ॥ यह विधि-निषेधरूप कर्मका अधिकारी मनुष्य-शरीर बहुत ही दुर्लभ है। स्वर्ग और नरक दोनों ही लोकोंमें रहनेवाले जीव इसकी अभिलाषा करते रहते हैं; क्योंकि इसी शरीरमें अन्त:करणकी शुद्धि होनेपर ज्ञान अथवा भक्तिकी प्राप्ति हो सकती है, स्वर्ग अथवा नरकका भोगप्रधान शरीर किसी भी साधनके उपयुक्त नहीं है। बुद्धिमान् पुरुषको न तो स्वर्गकी अभिलाषा करनी चाहिये और न नरककी ही। और तो क्या, इस मनुष्य-शरीरकी भी कामना न करनी चाहिये; क्योंकि किसी भी शरीरमें गुणबुद्धि और अभिमान हो जानेसे अपने वास्तविक स्वरूपकी प्राप्तिके साधनमें प्रमाद होने लगता है ॥ १२-१३ ॥ यद्यपि यह मनुष्य-शरीर है तो मृत्युग्रस्त ही, परन्तु इसके द्वारा परमार्थकी—सत्य वस्तुकी प्राप्ति हो सकती है। बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि यह बात जानकर मृत्यु होनेके पूर्व ही सावधान होकर ऐसी साधना कर ले, जिससे वह जन्म-मृत्युके चक्करसे सदाके लिये छूट जाय—मुक्त हो जाय ॥ १४ ॥ यह शरीर एक वृक्ष है। इसमें घोंसला बनाकर जीवरूप पक्षी निवास करता है। इसे यमराजके दूत प्रतिक्षण काट रहे हैं। जैसे पक्षी कटते हुए वृक्षको छोडक़र उड़ जाता है, वैसे ही अनासक्त जीव भी इस शरीरको छोडक़र मोक्षका भागी बन जाता है। परन्तु आसक्त जीव दु:ख ही भोगता रहता है ॥ १५ ॥ प्रिय उद्धव ! ये दिन और रात क्षण-क्षणमें शरीरकी आयुको क्षीण कर रहे हैं। यह जानकर जो भयसे काँप उठता है, वह व्यक्ति इसमें आसक्ति छोडक़र परमतत्त्वका ज्ञान प्राप्त कर लेता है और फिर इसके जीवन- मरणसे निरपेक्ष होकर अपने आत्मामें ही शान्त हो जाता है ॥ १६ ॥ यह मनुष्य-शरीर समस्त शुभ फलोंकी प्राप्तिका मूल है और अत्यन्त दुर्लभ होनेपर भी अनायास सुलभ हो गया है। इस संसार- सागरसे पार जानेके लिये यह एक सुदृढ़ नौका है। शरण-ग्रहणमात्रसे ही गुरुदेव इसके केवट बनकर पतवारका सञ्चालन करने लगते हैं और स्मरणमात्रसे ही मैं अनुकूल वायुके रूपमें इसे लक्ष्यकी ओर बढ़ाने लगता हूँ। इतनी सुविधा होनेपर भी जो इस शरीरके द्वारा संसार-सागरसे पार नहीं हो जाता, वह तो अपने हाथों अपने आत्माका हनन—अध:पतन कर रहा है ॥ १७ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



मंगलवार, 30 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भक्ति, ज्ञान और यम-नियमादि साधनों का वर्णन

 

भक्तियोगः पुरैवोक्तः प्रीयमाणाय तेऽनघ

पुनश्च कथयिष्यामि मद्भक्तेः कारणं परं १९

श्रद्धामृतकथायां मे शश्वन्मदनुकीर्तनम्

परिनिष्ठा च पूजायां स्तुतिभिः स्तवनं मम २०

आदरः परिचर्यायां सर्वाङ्गैरभिवन्दनम्

मद्भक्तपूजाभ्यधिका सर्वभूतेषु मन्मतिः २१

मदर्थेष्वङ्गचेष्टा च वचसा मद्गुणेरणम्

मय्यर्पणं च मनसः सर्वकामविवर्जनम् २२

मदर्थेऽर्थपरित्यागो भोगस्य च सुखस्य च

इष्टं दत्तं हुतं जप्तं मदर्थं यद्व्रतं तपः २३

एवं धर्मैर्मनुष्याणामुद्धवात्मनिवेदिनाम्

मयि सञ्जायते भक्तिः कोऽन्योऽर्थोऽस्यावशिष्यते २४

यदात्मन्यर्पितं चित्तं शान्तं सत्त्वोपबृंहितम्

धर्मं ज्ञानं स वैराग्यमैश्वर्यं चाभिपद्यते २५

यदर्पितं तद्विकल्पे इन्द्रियैः परिधावति

रजस्वलं चासन्निष्ठं चित्तं विद्धि विपर्ययम् २६

धर्मो मद्भक्तिकृत्प्रोक्तो ज्ञानं चैकात्म्यदर्शनम्

गुणेस्वसङ्गो वैराग्यमैश्वर्यं चाणिमादयः २७

 

श्रीउद्धव उवाच

यमः कतिविधः प्रोक्तो नियमो वारिकर्षण।

कः शमः को दमः कृष्ण का तितिक्षा धृतिः प्रभो।। २८

किं दानं किं तपः शौर्यं किं सत्यमृतमुच्यते।

कस्त्यागः किं धनं चेष्टं को यज्ञः का च दक्षिणा ।। २९

पुंसः किं स्विद्बलं श्रीमन् भगो लाभश्च केशव।

का विद्या ह्रीः परा का श्रीः किं सुखं दुःखमेव च।। ३०

कः पण्डितः कश्च मूर्खः कः पन्था उत्पथश्च कः।

कः स्वर्गो नरकः कः स्वित् को बन्धुरुत किं गृहम्।। ३१

आढ्यः को दरिद्रो वा कृपणः कः क ईश्वरः ।

एतान्प्रश्नान्मम ब्रूहि विपरीतांश्च सत्पते।। ३२

 

श्रीभगवानुवाच

अहिंसा सत्यमस्तेयमसङ्गो ह्रीरसञ्चयः

आस्तिक्यं ब्रह्मचर्यं च मौनं स्थैर्यं क्षमाभयम् ३३

शौचं जपस्तपो होमः श्रद्धातिथ्यं मदर्चनम्

तीर्थाटनं परार्थेहा तुष्टिराचार्यसेवनम् ३४

एते यमाः सनियमा उभयोर्द्वादश स्मृताः

पुंसामुपासितास्तात यथाकामं दुहन्ति हि ३५

शमो मन्निष्ठता बुद्धेर्दम इन्द्रियसंयमः

तितिक्षा दुःखसम्मर्षो जिह्वोपस्थजयो धृतिः ३६

दण्डन्यासः परं दानं कामत्यागस्तपः स्मृतम्

स्वभावविजयः शौर्यं सत्यं च समदर्शनम् ३७

अन्यच्च सुनृता वाणी कविभिः परिकीर्तिता

कर्मस्वसङ्गमः शौचं त्यागः सन्न्यास उच्यते ३८

धर्म इष्टं धनं नॄणां यज्ञोऽहं भगवत्तमः

दक्षिणा ज्ञानसन्देशः प्राणायामः परं बलम् ३९

भगो म ऐश्वरो भावो लाभो मद्भक्तिरुत्तमः

विद्यात्मनि भिदाबाधो जुगुप्सा ह्रीरकर्मसु ४०

श्रीर्गुणा नैरपेक्ष्याद्याः सुखं दुःखसुखात्ययः

दुःखं कामसुखापेक्षा पण्डितो बन्धमोक्षवित् ४१

मूर्खो देहाद्यहंबुद्धिः पन्था मन्निगमः स्मृतः

उत्पथश्चित्तविक्षेपः स्वर्गः सत्त्वगुणोदयः ४२

नरकस्तमउन्नाहो बन्धुर्गुरुरहं सखे

गृहं शरीरं मानुष्यं गुणाढ्यो ह्याढ्य उच्यते ४३

दरिद्रो यस्त्वसन्तुष्टः कृपणो योऽजितेन्द्रियः

गुणेष्वसक्तधीरीशो गुणसङ्गो विपर्ययः ४४

एत उद्धव ते प्रश्नाः सर्वे साधु निरूपिताः

किं वर्णितेन बहुना लक्षणं गुणदोषयोः

गुणदोषदृशिर्दोषो गुणस्तूभयवर्जितः ४५

 

निष्पाप उद्धवजी ! भक्तियोगका वर्णन मैं तुम्हें पहले ही सुना चुका हूँ; परन्तु उसमें तुम्हारी बहुत प्रीति है, इसलिये मैं तुम्हें फिरसे भक्ति प्राप्त होनेका श्रेष्ठ साधन बतलाता हूँ ॥ १९ ॥ जो मेरी भक्ति प्राप्त करना चाहता हो, वह मेरी अमृतमयी कथामें श्रद्धा रखे; निरन्तर मेरे गुण-लीला और नामोंका सङ्कीर्तन करे; मेरी पूजामें अत्यन्त निष्ठा रखे और स्तोत्रोंके द्वारा मेरी स्तुति करे ॥ २० ॥ मेरी सेवा-पूजामें प्रेम रखे और सामने साष्टाङ्ग लोटकर प्रणाम करे; मेरे भक्तोंकी पूजा मेरी पूजासे बढक़र करे और समस्त प्राणियोंमें मुझे ही देखे ॥ २१ ॥ अपने एक-एक अङ्गकी चेष्टा केवल मेरे ही लिये करे, वाणीसे मेरे ही गुणोंका गान करे और अपना मन भी मुझे ही अर्पित कर दे तथा सारी कामनाएँ छोड़ दे ॥ २२ ॥ मेरे लिये धन, भोग और प्राप्त सुखका भी परित्याग कर दे और जो कुछ यज्ञ, दान, हवन, जप, व्रत और तप किया जाय, वह सब मेरे लिये ही करे ॥ २३ ॥ उद्धवजी ! जो मनुष्य इन धर्मोंका पालन करते हैं और मेरे प्रति आत्म-निवेदन कर देते हैं, उनके हृदयमें मेरी प्रेममयी भक्तिका उदय होता है और जिसे मेरी भक्ति प्राप्त हो गयी, उसके लिये और किस दूसरी वस्तुका प्राप्त होना शेष रह जाता है? ॥ २४ ॥

इस प्रकारके धर्मोंका पालन करनेसे चित्तमें जब सत्त्वगुणकी वृद्धि होती है और वह शान्त होकर आत्मामें लग जाता है; उस समय साधकको धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य स्वयं ही प्राप्त हो जाते हैं ॥ २५ ॥ यह संसार विविध कल्पनाओंसे भरपूर है। सच पूछो तो इसका नाम तो है, किन्तु कोई वस्तु नहीं है। जब चित्त इसमें लगा दिया जाता है, तब इन्द्रियोंके साथ इधर-उधर भटकने लगता है। इस प्रकार चित्तमें रजोगुणकी बाढ़ आ जाती है, वह असत् वस्तुमें लग जाता है और उसके धर्म, ज्ञान आदि तो लुप्त हो ही जाते हैं, वह अधर्म, अज्ञान और मोहका भी घर बन जाता है ॥ २६ ॥ उद्धव ! जिससे मेरी भक्ति हो, वही धर्म है; जिससे ब्रह्म और आत्माकी एकताका साक्षात्कार हो, वही ज्ञान है; विषयोंसे असङ्ग—निर्लेप रहना ही वैराग्य है और अणिमादि सिद्धियाँ ही ऐश्वर्य हैं ॥ २७ ॥

उद्धवजीने कहा—रिपुसूदन ! यम और नियम कितने प्रकारके हैं ? श्रीकृष्ण ! शम क्या है ? दम क्या है ? प्रभो ! तितिक्षा और धैर्य क्या है ? ॥ २८ ॥ आप मुझे दान, तपस्या, शूरता, सत्य और ऋतका भी स्वरूप बतलाइये। त्याग क्या है ? अभीष्ट धन कौन-सा है ? यज्ञ किसे कहते हैं ? और दक्षिणा क्या वस्तु है ? ॥ २९ ॥ श्रीमान् केशव ! पुरुषका सच्चा बल क्या है ? भग किसे कहते हैं ? और लाभ क्या वस्तु है ? उत्तम विद्या, लज्जा, श्री तथा सुख और दु:ख क्या है ? ॥ ३० ॥ पण्डित और मूर्खके लक्षण क्या हैं ? सुमार्ग और कुमार्गका क्या लक्षण है ? स्वर्ग और नरक क्या हैं ? भाई-बन्धु किसे मानना चाहिये ? और घर क्या है ? ॥ ३१ ॥ धनवान् और निर्धन किसे कहते हैं ? कृपण कौन है ? और ईश्वर किसे कहते हैं ? भक्तवत्सल प्रभो ! आप मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दीजिये और साथ ही इनके विरोधी भावोंकी भी व्याख्या कीजिये ॥ ३२ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—‘यम’ बारह हैं— अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), असङ्गता, लज्जा, असञ्चय (आवश्यकतासे अधिक धन आदि न जोडऩा), आस्तिकता, ब्रह्मचर्य, मौन, स्थिरता, क्षमा और अभय। नियमोंकी संख्या भी बारह ही है। शौच (बाहरी पवित्रता और भीतरी पवित्रता), जप, तप, हवन, श्रद्धा, अतिथिसेवा, मेरी पूजा, तीर्थयात्रा, परोपकारकी चेष्टा, सन्तोष और गुरुसेवा—इस प्रकार ‘यम’ और ‘नियम’ दोनोंकी संख्या बारह-बारह हैं। ये सकाम और निष्काम दोनों प्रकारके साधकोंके लिये उपयोगी हैं। उद्धवजी ! जो पुरुष इनका पालन करते हैं, वे यम और नियम उनके इच्छानुसार उन्हें भोग और मोक्ष दोनों प्रदान करते हैं ॥ ३३—३५ ॥ बुद्धिका मुझमें लग जाना ही ‘शम’ है। इन्द्रियोंके संयमका नाम ‘दम’ है। न्यायसे प्राप्त दु:खके सहनेका नाम ‘तितिक्षा’ है। जिह्वा और जननेन्द्रियपर विजय प्राप्त करना ‘धैर्य’ है ॥ ३६ ॥ किसीसे द्रोह न करना सबको अभय देना ‘दान’ है। कामनाओंका त्याग करना ही ‘तप’ है। अपनी वासनाओंपर विजय प्राप्त करना ही ‘शूरता’ है। सर्वत्र समस्वरूप, सत्यस्वरूप परमात्माका दर्शन ही ‘सत्य’ है ॥ ३७ ॥ इसी प्रकार सत्य और मधुर भाषणको ही महात्माओंने ‘ऋत’ कहा है। कर्मोंमें आसक्त न होना ही ‘शौच’ है। कामनाओंका त्याग ही सच्चा ‘संन्यास’ है ॥ ३८ ॥ धर्म ही मनुष्योंका अभीष्ट ‘धन’ है। मैं परमेश्वर ही ‘यज्ञ’ हूँ। ज्ञानका उपदेश देना ही ‘दक्षिणा’ है। प्राणायाम ही श्रेष्ठ ‘बल’ है ॥ ३९ ॥ मेरा ऐश्वर्य ही ‘भग’ है, मेरी श्रेष्ठ भक्ति ही उत्तम ‘लाभ’ है, सच्ची ‘विद्या’ वही है जिससे ब्रह्म और आत्माका भेद मिट जाता है। पाप करनेसे घृणा होनेका नाम ही ‘लज्जा’ है ॥ ४० ॥ निरपेक्षता आदि गुण ही शरीरका सच्चा सौन्दर्य—‘श्री’ है, दु:ख और सुख दोनोंकी भावनाका सदाके लिये नष्ट हो जाना ही ‘सुख’ है। विषयभोगोंकी कामना ही दु:ख है। जो बन्धन और मोक्षका तत्त्व जानता है, वही ‘पण्डित’ है ॥ ४१ ॥ शरीर आदिमें जिसका मैंपन है, वही ‘मूर्ख’ है। जो संसारकी ओरसे निवृत्त करके मुझे प्राप्त करा देता है, वही सच्चा ‘सुमार्ग’ है। चित्तकी बहिर्मुखता ही ‘कुमार्ग’ है। सत्त्वगुणकी वृद्धि ही ‘स्वर्ग’ और सखे ! तमोगुणकी वृद्धि ही ‘नरक’ है। गुरु ही सच्चा ‘भाई-बन्धु’ है और वह गुरु मैं हूँ। यह मनुष्य-शरीर ही सच्चा ‘घर’ है तथा सच्चा ‘धनी’ वह है, जो गुणोंसे सम्पन्न है, जिसके पास गुणोंका खजाना है ॥ ४२-४३ ॥ जिसके चित्तमें असन्तोष है, अभावका बोध है, वही ‘दरिद्र’ है। जो जितेन्द्रिय नहीं है, वही ‘कृपण’ है। समर्थ, स्वतन्त्र और ‘ईश्वर’ वह है, जिसकी चित्तवृत्ति विषयोंमें आसक्त नहीं है। इसके विपरीत जो विषयोंमें आसक्त है, वही सर्वथा ‘असमर्थ’ है ॥ ४४ ॥ प्यारे उद्धव ! तुमने जितने प्रश्न पूछे थे, उनका उत्तर मैंने दे दिया; इनको समझ लेना मोक्ष-मार्गके लिये सहायक है। मैं तुम्हें गुण और दोषोंका लक्षण अलग-अलग कहाँतक बताऊँ ? सबका सारांश इतनेमें ही समझ लो कि गुणों और दोषोंपर दृष्टि जाना ही सबसे बड़ा दोष है और गुणदोषोंपर दृष्टि न जाकर अपने शान्त नि:सङ्कल्प स्वरूपमें स्थित रहे—वही सबसे बड़ा गुण है ॥ ४५ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे एकोनविंशोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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