॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग
श्रीउद्धव
उवाच -
विधिश्च
प्रतिषेधश्च निगमो हि ईश्वरस्य ते ।
अवेक्षते अरविंदाक्ष गुणं दोषं च कर्मणाम् ॥ १ ॥
वर्णाश्रमविकल्पं च प्रतिलोमानुलोमजम् ।
द्रव्यदेशवयः कालान् स्वर्गं नरकमेव च ॥ २ ॥
गुणदोषभिदादृष्टिं अंतरेण वचस्तव ।
निःश्रेयसं कथं नॄणां निषेध विधिलक्षणम् ॥ ३ ॥
पितृ देव मनुष्यानां वेदश्चक्षुस्तवेश्वर ।
श्रेयस्त्वनुपलब्धेऽर्थे साध्यसाधनयोरपि ॥ ४ ॥
गुणदोषभिदादृष्टिः निगमात्ते न हि स्वतः ।
निगमेनापवादश्च भिदाया इति ह भ्रमः ॥ ५ ॥
श्रीभगवानुवाच -
योगास्त्रयो
मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया ।
ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति
कुत्रचित् ॥ ६ ॥
निर्विण्णानां ज्ञानयोगो न्यासिनामिह कर्मसु ।
तेषु अनिर्विण्णचित्तानां कर्मयोगस्तु कामिनाम्
॥ ७ ॥
यदृच्छया मत्कथादौ जातश्रद्धस्तु यः पुमान् ।
न निर्विण्णो नातिसक्तो भक्तियोगोऽस्य सिद्धिदः
॥ ८ ॥
तावत् कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता ।
मत्कथाश्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते ॥ ९ ॥
स्वधर्मस्थो यजन् यज्ञैः अनाशीःकाम उद्धव ।
न याति स्वर्गनरकौ यद्यन्यन् न समाचरेत् ॥ १० ॥
अस्मिंल्लोके वर्तमानः स्वधर्मस्थोऽनघः शुचिः ।
ज्ञानं विशुद्धमाप्नोति मद्भक्तिं वा यदृच्छया
॥ ११ ॥
स्वर्गिणोऽप्येतमिच्छंति लोकं निरयिणस्तथा ।
साधकं ज्ञानभक्तिभ्यां उभयं तद् असाधकम् ॥ १२ ॥
न नरः स्वर्गतिं काङ्क्षेत् नारकीं वा विचक्षणः
।
न इमं लोकं च काङ्क्षेत देहावेशात् प्रमाद्यति ॥
१३ ॥
एतद् विद्वान् पुरा मृत्योः अभवाय घटेत सः ।
अप्रमत्त इदं ज्ञात्वा मर्त्यमप्यर्थसिद्धिदम् ॥
१४ ॥
छिद्यमानं यमैः एतैः कृतनीडं वनस्पतिम् ।
खगः स्वकेतं उत्सृज्य क्षेमं याति ह्यलंपटः ॥ १५
॥
अहोरात्रैः छिद्यमानं बुद्ध्वाऽऽयुर्भयवेपथुः ।
मुक्तसङ्गः परं बुद्ध्वा निरीह उपशाम्यति ॥ १६ ॥
नृदेहमाद्यं
सुलभं सुदुर्लभं
प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम् ।
मयानुकूलेन नभस्वतेरितं
पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा ॥ १७ ॥
उद्धवजीने कहा—कमलनयन श्रीकृष्ण !
आप सर्वशक्तिमान् हैं। आपकी आज्ञा ही वेद है;
उसमें कुछ कर्मोंको करनेकी विधि है और कुछके करनेका निषेध है। यह
विधि-निषेध कर्मोंके गुण और दोषकी परीक्षा करके ही तो होता है ॥ १ ॥ वर्णाश्रम-भेद, प्रतिलोम और अनुलोमरूप वर्णसंकर,
कर्मोंके उपयुक्त और अनुपयुक्त द्रव्य,
देश, आयु
और काल तथा स्वर्ग और नरकके भेदोंका बोध भी वेदोंसे ही होता है ॥ २ ॥ इसमें सन्देह
नहीं कि आपकी वाणी ही वेद है, परन्तु उसमें विधि-निषेध ही तो भरा पड़ा है। यदि उसमें गुण और
दोषमें भेद करनेवाली दृष्टि न हो, तो वह प्राणियोंका कल्याण करनेमें समर्थ ही कैसे हो ? ॥ ३ ॥ सर्वशक्तिमान् परमेश्वर ! आपकी वाणी वेद ही पितर, देवता और मनुष्योंके लिये श्रेष्ठ मार्ग-दर्शकका काम करता है; क्योंकि उसीके द्वारा स्वर्ग-मोक्ष आदि अदृष्ट वस्तुओंका बोध होता
है और इस लोकमें भी किसका कौन-सा साध्य है और क्या साधन— इसका निर्णय भी उसीसे
होता है ॥ ४ ॥ प्रभो ! इसमें सन्देह नहीं कि गुण और दोषोंमें भेददृष्टि आपकी वाणी
वेदके ही अनुसार है, किसीकी
अपनी कल्पना नहीं; परन्तु
प्रश्र तो यह है कि आपकी वाणी ही भेदका निषेध भी करती है। यह विरोध देखकर मुझे
भ्रम हो रहा है। आप कृपा करके मेरा यह भ्रम मिटाइये ॥५॥
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय
उद्धव ! मैंने ही वेदोंमें एवं अन्यत्र भी मनुष्योंका कल्याण करनेके लिये
अधिकारिभेदसे तीन प्रकारके योगोंका उपदेश किया है। वे हैं—ज्ञान, कर्म और भक्ति। मनुष्यके परम कल्याणके लिये इनके अतिरिक्त और कोई
उपाय कहीं नहीं है ॥ ६ ॥ उद्धवजी ! जो लोग कर्मों तथा उनके फलोंसे विरक्त हो गये
हैं और उनका त्याग कर चुके हैं, वे ज्ञानयोगके अधिकारी हैं। इसके विपरीत जिनके चित्तमें कर्मों और
उनके फलोंसे वैराग्य नहीं हुआ है, उनमें दु:खबुद्धि नहीं हुई है,
वे सकाम व्यक्ति कर्मयोगके अधिकारी हैं ॥ ७ ॥ जो पुरुष न तो
अत्यन्त विरक्त है और न अत्यन्त आसक्त ही है तथा किसी पूर्वजन्मके शुभकर्मसे
सौभाग्यवश मेरी लीला-कथा आदिमें उसकी श्रद्धा हो गयी है,
वह भक्तियोगका अधिकारी है। उसे भक्तियोगके द्वारा ही सिद्धि मिल
सकती है ॥ ८ ॥ कर्मके सम्बन्धमें जितने भी विधिनिषेध हैं,
उनके अनुसार तभीतक कर्म करना चाहिये,
जबतक कर्ममय जगत् और उसे प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि सुखोंसे
वैराग्य न हो जाय अथवा जबतक मेरी लीला-कथाके श्रवण-कीर्तन आदिमें श्रद्धा न हो जाय
॥ ९ ॥ उद्धव ! इस प्रकार अपने वर्ण और आश्रमके अनुकूल धर्ममें स्थित रहकर यज्ञोंके
द्वारा बिना किसी आशा और कामनाके मेरी आराधना करता रहे और निषिद्ध कर्मोंसे दूर
रहकर केवल विहित कर्मोंका ही आचरण करे तो उसे स्वर्ग या नरकमें नहीं जाना पड़ता ॥
१० ॥ अपने धर्ममें निष्ठा रखनेवाला पुरुष इस शरीरमें रहते-रहते ही निषिद्ध कर्मका
परित्याग कर देता है और रागादि मलोंसे भी मुक्त—पवित्र हो जाता है। इसीसे अनायास
ही उसे आत्मसाक्षात्काररूप विशुद्ध तत्त्वज्ञान अथवा द्रुत-चित्त होनेपर मेरी
भक्ति प्राप्त होती है ॥ ११ ॥ यह विधि-निषेधरूप कर्मका अधिकारी मनुष्य-शरीर बहुत
ही दुर्लभ है। स्वर्ग और नरक दोनों ही लोकोंमें रहनेवाले जीव इसकी अभिलाषा करते
रहते हैं; क्योंकि इसी शरीरमें अन्त:करणकी शुद्धि होनेपर ज्ञान अथवा भक्तिकी
प्राप्ति हो सकती है, स्वर्ग
अथवा नरकका भोगप्रधान शरीर किसी भी साधनके उपयुक्त नहीं है। बुद्धिमान् पुरुषको न
तो स्वर्गकी अभिलाषा करनी चाहिये और न नरककी ही। और तो क्या, इस मनुष्य-शरीरकी भी कामना न करनी चाहिये;
क्योंकि किसी भी शरीरमें गुणबुद्धि और अभिमान हो जानेसे अपने
वास्तविक स्वरूपकी प्राप्तिके साधनमें प्रमाद होने लगता है ॥ १२-१३ ॥ यद्यपि यह
मनुष्य-शरीर है तो मृत्युग्रस्त ही, परन्तु इसके द्वारा परमार्थकी—सत्य वस्तुकी प्राप्ति हो सकती है।
बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि यह बात जानकर मृत्यु होनेके पूर्व ही सावधान होकर
ऐसी साधना कर ले, जिससे
वह जन्म-मृत्युके चक्करसे सदाके लिये छूट जाय—मुक्त हो जाय ॥ १४ ॥ यह शरीर एक
वृक्ष है। इसमें घोंसला बनाकर जीवरूप पक्षी निवास करता है। इसे यमराजके दूत
प्रतिक्षण काट रहे हैं। जैसे पक्षी कटते हुए वृक्षको छोडक़र उड़ जाता है, वैसे ही अनासक्त जीव भी इस शरीरको छोडक़र मोक्षका भागी बन जाता है।
परन्तु आसक्त जीव दु:ख ही भोगता रहता है ॥ १५ ॥ प्रिय उद्धव ! ये दिन और रात
क्षण-क्षणमें शरीरकी आयुको क्षीण कर रहे हैं। यह जानकर जो भयसे काँप उठता है, वह व्यक्ति इसमें आसक्ति छोडक़र परमतत्त्वका ज्ञान प्राप्त कर लेता
है और फिर इसके जीवन- मरणसे निरपेक्ष होकर अपने आत्मामें ही शान्त हो जाता है ॥ १६
॥ यह मनुष्य-शरीर समस्त शुभ फलोंकी प्राप्तिका मूल है और अत्यन्त दुर्लभ होनेपर भी
अनायास सुलभ हो गया है। इस संसार- सागरसे पार जानेके लिये यह एक सुदृढ़ नौका है।
शरण-ग्रहणमात्रसे ही गुरुदेव इसके केवट बनकर पतवारका सञ्चालन करने लगते हैं और
स्मरणमात्रसे ही मैं अनुकूल वायुके रूपमें इसे लक्ष्यकी ओर बढ़ाने लगता हूँ। इतनी
सुविधा होनेपर भी जो इस शरीरके द्वारा संसार-सागरसे पार नहीं हो जाता, वह तो अपने हाथों अपने आत्माका हनन—अध:पतन कर रहा है ॥ १७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
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