रविवार, 14 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भक्तिहीन पुरुषों की गति और भगवान्‌ की पूजाविधि का वर्णन

 

 श्रीराजोवाच -

 भगवन्तं हरिं प्रायो न भजन्त्यात्मवित्तमाः ।

 तेषामशान्तकामानां का निष्ठाविजितात्मनाम् ॥ १ ॥

 

 श्रीचमस उवाच -

 मुखबाहूरुपादेभ्यः पुरुषस्याश्रमैः सह ।

 चत्वारो जज्ञिरे वर्णा गुणैर्विप्रादयः पृथक् ॥ २ ॥

 य एषां पुरुषं साक्षात् आत्मप्रभवमीश्वरम् ।

 न भजन्त्यवजानन्ति स्थानाद्‍भ्रष्टाः पतन्त्यधः ॥ ३ ॥

 दूरे हरिकथाः केचिद् दूरे चाच्युतकीर्तनाः ।

 स्त्रियः शूद्रादयश्चैव तेऽनुकम्प्या भवादृशाम् ॥ ४ ॥

 विप्रो राजन्यवैश्यौ वा हरेः प्राप्ताः पदान्तिकम् ।

 श्रौतेन जन्मनाथापि मुह्यन्त्याम्नायवादिनः ॥ ५ ॥

 कर्मण्यकोविदाः स्तब्धा मूर्खाः पण्डितमानिनः ।

 वदन्ति चाटुकान् मूढा यया माध्व्या गिरोत्सुकाः ॥ ६ ॥

 रजसा घोरसङ्कल्पाः कामुका अहिमन्यवः ।

 दाम्भिका मानिनः पापा विहसन्त्यच्युतप्रियान् ॥ ७ ॥

 वदन्ति तेऽन्योन्यमुपासितस्त्रियो

     गृहेषु मैथुन्यपरेषु चाशिषः ।

 यजन्त्यसृष्टानविधानदक्षिणं

     वृत्त्यै परं घ्नन्ति पशून् अतद्विदः ॥ ८ ॥

 श्रिया विभूत्याभिजनेन विद्यया

     त्यागेन रूपेण बलेन कर्मणा ।

 जातस्मयेनान्धधियः सहेश्वरान्

     सतोऽवमन्यन्ति हरिप्रियान्खलाः ॥ ९ ॥

 सर्वेषु शश्वत् तनुभृत्स्ववस्थितं

     यथा खमात्मानमभीष्टमीश्वरम् ।

 वेदोपगीतं च न श्रृण्वतेऽबुधा

     मनोरथानां प्रवदन्ति वार्तया ॥ १० ॥

 लोके व्यवायामिषमद्यसेवा

     नित्यास्तु जन्तोर्न हि तत्र चोदना ।

 व्यवस्थितिस्तेषु विवाहयज्ञ-

     सुराग्रहैरासु निवृत्तिरिष्टा ॥ ११ ॥

 धनं च धर्मैकफलं यतो वै

     ज्ञानं सविज्ञानमनुप्रशान्ति ।

 गृहेषु युञ्जन्ति कलेवरस्य

     मृत्युं न पश्यन्ति दुरन्तवीर्यम् ॥ १२ ॥

 यद् घ्राणभक्षो विहितः सुरायाः

     तथा पशोरालभनं न हिंसा ।

 एवं व्यवायः प्रजया न रत्या

     इमं विशुद्धं न विदुः स्वधर्मम् ॥ १३ ॥

 ये तु अनेवंविदोऽसन्तः स्तब्धाः सदभिमानिनः ।

 पशून् द्रुह्यन्ति विश्रब्धाः प्रेत्य खादन्ति ते च तान् ॥ १४ ॥

 द्विषन्तः परकायेषु स्वात्मानं हरिमीश्वरम् ।

 मृतके सानुबन्धेऽस्मिन् बद्धस्नेहाः पतन्त्यधः ॥ १५ ॥

 ये कैवल्यं असम्प्राप्ता ये चातीताश्च मूढताम् ।

 त्रैवर्गिका ह्यक्षणिका आत्मानं घातयन्ति ते ॥ १६ ॥

 एत आत्महनोऽशान्ता अज्ञाने ज्ञानमानिनः ।

 सीदन्त्यकृतकृत्या वै कालध्वस्तमनोरथाः ॥ १७ ॥

 हित्वा अत्यायारचिता गृहापत्यसुहृत् स्त्रियः ।

 तमो विशन्त्यनिच्छन्तो वासुदेवपराङ्‌मुखाः ॥ १८ ॥

 

 श्री राजोवाच -

  कस्मिन् काले स भगवान् किं वर्णः कीदृशो नृभिः ।

 नाम्ना वा केन विधिना पूज्यते तदिहोच्यताम् ॥ १९ ॥

 

 श्रीकरभाजन उवाच -

 कृतं त्रेता द्वापरं च कलिरित्येषु केशवः ।

 नानावर्णाभिधाकारो नानैव विधिनेज्यते ॥ २० ॥

 कृते शुक्लश्चतुर्बाहुः जटिलो वल्कलाम्बरः ।

 कृष्णाजिनोपवीताक्षान् बिभ्रद् दण्डकमण्डलू ॥ २१ ॥

 मनुष्यास्तु तदा शान्ता निर्वैराः सुहृदः समाः ।

 यजन्ति तपसा देवं शमेन च दमेन च ॥ २२ ॥

 हंसः सुपर्णो वैकुण्ठो धर्मो योगेश्वरोऽमलः ।

 ईश्वरः पुरुषोऽव्यक्तः परमात्मेति गीयते ॥ २३ ॥

 त्रेतायां रक्तवर्णोऽसौ चतुर्बाहुस्त्रिमेखलः ।

 हिरण्यकेशः त्रय्यात्मा स्रुक् स्रुवाद्युपलक्षणः ॥ २४ ॥

 तं तदा मनुजा देवं सर्वदेवमयं हरिम् ।

 यजन्ति विद्यया त्रय्या धर्मिष्ठा ब्रह्मवादिनः ॥ २५ ॥

 विष्णुर्यज्ञः पृश्निगर्भः सर्वदेव उरुक्रमः ।

 वृषाकपिर्जयन्तश्च उरुगाय इतीर्यते ॥ २६ ॥

 द्वापरे भगवान् श्यामः पीतवासा निजायुधः ।

 श्रीवत्सादिभिरङ्कैश्च लक्षणैरुपलक्षितः ॥ २७ ॥

 तं तदा पुरुषं मर्त्या महाराजोपलक्षणम् ।

 यजन्ति वेदतन्त्राभ्यां परं जिज्ञासवो नृप ॥ २८ ॥

 नमस्ते वासुदेवाय नमः सङ्कर्षणाय च ।

 प्रद्युम्नायानिरुद्धाय तुभ्यं भगवते नमः ॥ २९ ॥

 नारायणाय ऋषये पुरुषाय महात्मने ।

 विश्वेश्वराय विश्वाय सर्वभूतात्मने नमः ॥ ३० ॥

 

राजा निमिने पूछा—योगीश्वरो ! आपलोग तो श्रेष्ठ आत्मज्ञानी और भगवान्‌के परमभक्त हैं। कृपा करके यह बतलाइये कि जिनकी कामनाएँ शान्त नहीं हुई हैं, लौकिक-पारलौकिक भोगोंकी लालसा मिटी नहीं है और मन एवं इन्द्रियाँ भी वशमें नहीं हैं तथा जो प्राय: भगवान्‌ का भजन भी नहीं करते, ऐसे लोगोंकी क्या गति होती है ? ॥ १ ॥

अब आठवें योगीश्वर चमस जी ने कहा—राजन् ! विराट् पुरुषके मुखसे सत्त्वप्रधान ब्राह्मण, भुजाओंसे सत्त्व-रजप्रधान क्षत्रिय, जाँघोंसे रज-तमप्रधान वैश्य और चरणोंसे तम:प्रधान शूद्रकी उत्पत्ति हुई है। उन्हींकी जाँघोंसे गृहस्थाश्रम, हृदयसे ब्रह्मचर्य, वक्ष:स्थलसे वानप्रस्थ और मस्तकसे संन्यास—ये चार आश्रम प्रकट हुए हैं। इन चारों वर्णों और आश्रमोंके जन्मदाता स्वयं भगवान्‌ ही हैं। वही इनके स्वामी, नियन्ता और आत्मा भी हैं। इसलिये इन वर्ण और आश्रममें रहनेवाला जो मनुष्य भगवान्‌ का भजन नहीं करता, बल्कि उलटा उनका अनादर करता है, वह अपने स्थान, वर्ण, आश्रम और मनुष्य-योनिसे भी च्युत हो जाता है; उसका अध:पतन हो जाता है ॥ २-३ ॥ बहुत-सी स्त्रियाँ और शूद्र आदि भगवान्‌ की कथा और उनके नामकीर्तन आदिसे कुछ दूर पड़ गये हैं। वे आप-जैसे भगवद्भक्तोंकी दयाके पात्र हैं। आपलोग उन्हें कथा-कीर्तनकी सुविधा देकर उनका उद्धार करें ॥ ४ ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जन्मसे, वेदाध्ययनसे तथा यज्ञोपवीत आदि संस्कारों  से भगवान्‌ के चरणोंके निकटतक पहुँच चुके हैं। फिर भी वे वेदोंका असली तात्पर्य न समझकर अर्थवादमें लगकर मोहित हो जाते हैं ॥ ५ ॥ उन्हें कर्मका रहस्य मालूम नहीं है। मूर्ख होनेपर भी वे अपनेको पण्डित मानते हैं और अभिमानमें अकड़े रहते हैं। वे मीठी-मीठी बातोंमें भूल जाते हैं और केवल वस्तु-शून्य शब्द-माधुरीके मोहमें पडक़र चटकीली-भडक़ीली बातें कहा करते हैं ॥ ६ ॥ रजोगुणकी अधिकताके कारण उनके सङ्कल्प बड़े घोर होते हैं। कामनाओंकी तो सीमा ही नहीं रहती, उनका क्रोध भी ऐसा होता है जैसे साँपका, बनावट और घमंडसे उन्हें प्रेम होता है। वे पापीलोग भगवान्‌के प्यारे भक्तोंकी हँसी उड़ाया करते हैं ॥ ७ ॥ वे मूर्ख बड़े-बूढ़ोंकी नहीं, स्त्रियोंकी उपासना करते हैं। यही नहीं, वे परस्पर इकट्ठे होकर उस घर-गृहस्थीके सम्बन्धमें ही बड़े-बड़े मनसूबे बाँधते हैं, जहाँका सबसे बड़ा सुख स्त्री-सहवासमें ही सीमित है। वे यदि कभी यज्ञ भी करते हैं तो अन्न-दान नहीं करते, विधिका उल्लङ्घन करते और दक्षिणातक नहीं देते। वे कर्मका रहस्य न जाननेवाले मूर्ख केवल अपनी जीभको सन्तुष्ट करने और पेटकी भूख मिटाने—शरीरको पुष्ट करनेके लिये बेचारे पशुओंकी हत्या करते हैं ॥ ८ ॥ धन-वैभव, कुलीनता, विद्या, दान, सौन्दर्य, बल और कर्म आदिके घमंडसे अंधे हो जाते हैं तथा वे दुष्ट उन भगवत्प्रेमी संतों तथा ईश्वर  का भी अपमान करते रहते हैं ॥ ९ ॥ राजन् ! वेदोंने इस बातको बार-बार दुहराया है कि भगवान्‌ आकाशके समान नित्य-निरन्तर समस्त शरीरधारियोंमें स्थित हैं। वे ही अपने आत्मा और प्रियतम हैं। परन्तु वे मूर्ख इस वेदवाणीको तो सुनते ही नहीं और केवल बड़े-बड़े मनोरथोंकी बात आपसमें कहते-सुनते रहते हैं ॥ १० ॥ (वेद विधिके रूपमें ऐसे ही कर्मोंके करनेकी आज्ञा देता है कि जिनमें मनुष्यकी स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं होती।) संसारमें देखा जाता है कि मैथुन, मांस और मद्यकी ओर प्राणीकी स्वाभाविक प्रवृति हो जाती है। तब उसे उसमें प्रवृत्त करनेके लिये विधान तो हो ही नहीं सकता। ऐसी स्थितिमें विवाह, यज्ञ और सौत्रामणि यज्ञके द्वारा ही जो उनके सेवनकी व्यवस्था दी गयी है, उसका अर्थ है लोगोंकी उच्छृङ्खल प्रवृत्तिका नियन्त्रण, उनका मर्यादामें स्थापन। वास्तवमें उनकी ओरसे लोगोंको हटाना ही श्रुतिको अभीष्ट है ॥ ११ ॥ धनका एकमात्र फल है धर्म; क्योंकि धर्मसे ही परमतत्त्वका ज्ञान और उसकी निष्ठा—अपरोक्ष अनुभूति सिद्ध होती है, और निष्ठामें ही परम शान्ति है। परन्तु यह कितने खेदकी बात है कि लोग उस धनका उपयोग घर-गृहस्थीके स्वार्थोंमें या कामभोगमें ही करते हैं और यह नहीं देखते कि हमारा यह शरीर मृत्युका शिकार है और वह मृत्यु किसी प्रकार भी टाली नहीं जा सकती ॥ १२ ॥ सौत्रामणि यज्ञमें भी सुरा को सूँघने  का ही विधान है, पीने का नहीं। यज्ञमें पशुका आलभन (स्पर्शमात्र) ही विहित है, हिंसा नहीं। इसी प्रकार अपनी धर्मपत्नीके साथ मैथुनकी आज्ञा भी विषयभोगके लिये नहीं, धार्मिक परम्पराकी रक्षाके निमित्त सन्तान उत्पन्न करनेके लिये ही दी गयी है। परन्तु जो लोग अर्थवादके वचनोंमें फँसे हैं, विषयी हैं, वे अपने इस विशुद्ध धर्मको जानते ही नहीं ॥ १३ ॥ जो इस विशुद्ध धर्मको नहीं जानते, वे घमंडी वास्तवमें तो दुष्ट हैं, परन्तु समझते हैं अपनेको श्रेष्ठ। वे धोखेमें पड़े हुए लोग पशुओंकी हिंसा करते हैं और मरनेके बाद वे पशु ही उन मारनेवालोंको खाते हैं ॥ १४ ॥ यह शरीर मृतक-शरीर है। इसके सम्बन्धी भी इसके साथ ही छूट जाते हैं। जो लोग इस शरीरसे तो प्रेमकी गाँठ बाँध लेते हैं और दूसरे शरीरोंमें रहनेवाले अपने ही आत्मा एवं सर्वशक्तिमान् भगवान्‌से द्वेष करते हैं, उन मूर्खोंका अध:पतन निश्चित है ॥ १५ ॥ जिन लोगोंने आत्मज्ञान सम्पादन करके कैवल्य-मोक्ष नहीं प्राप्त किया है और जो पूरे-पूरे मूढ़ भी नहीं हैं, वे अधूरे न इधरके हैं और न उधरके। वे अर्थ, धर्म, काम—इन तीनों पुरुषार्थोंमें फँसे रहते हैं, एक क्षणके लिये भी उन्हें शान्ति नहीं मिलती। वे अपने हाथों अपने पैरोंमें कुल्हाड़ी मार रहे हैं। ऐसे ही लोगोंको आत्मघाती कहते हैं ॥ १६ ॥ अज्ञानको ही ज्ञान माननेवाले इन आत्मघातियोंको कभी शान्ति नहीं मिलती, इनके कर्मोंकी परम्परा कभी शान्त नहीं होती। कालभगवान्‌ सदा-सर्वदा इनके मनोरथोंपर पानी फेरते रहते हैं। इनके हृदयकी जलन, विषाद कभी मिटनेका नहीं ॥ १७ ॥ राजन् ! जो लोग अन्तर्यामी भगवान्‌ श्रीकृष्णसे विमुख हैं, वे अत्यन्त परिश्रम करके गृह, पुत्र, मित्र और धन-सम्पत्ति इकट्ठी करते हैं; परन्तु उन्हें अन्तमें सब कुछ छोड़ देना पड़ता है और न चाहनेपर भी विवश होकर घोर नरकमें जाना पड़ता है। (भगवान्‌का भजन न करनेवाले विषयी पुरुषोंकी यही गति होती है) ॥ १८ ॥

राजा निमिने पूछा—योगीश्वरो ! आपलोग कृपा करके यह बतलाइये कि भगवान्‌ किस समय किस रंगका, कौन-सा आकार स्वीकार करते हैं और मनुष्य किन नामों और विधियोंसे उनकी उपासना करते हैं ॥ १९ ॥

अब नवें योगीश्वर करभाजनजीने कहा—राजन् ! चार युग हैं—सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि। इन युगोंमें भगवान्‌के अनेकों रंग, नाम और आकृतियाँ होती हैं तथा विभिन्न विधियोंसे उनकी पूजा की जाती है ॥ २० ॥ सत्ययुगमें भगवान्‌के श्रीविग्रहका रंग होता है श्वेत। उनके चार भुजाएँ और सिरपर जटा होती है, तथा वे वल्कलका ही वस्त्र पहनते हैं। काले मृगका चर्म, यज्ञोपवीत, रुद्राक्षकी माला, दण्ड और कमण्डलु धारण करते हैं ॥ २१ ॥ सत्ययुगके मनुष्य बड़े शान्त,परस्पर वैररहित, सबके हितैषी और समदर्शी होते हैं। वे लोग इन्द्रियों और मनको वशमें रखकर ध्यानरूप तपस्याके द्वारा सबके प्रकाशक परमात्माकी आराधना करते हैं ॥ २२ ॥ वे लोग हंस, सुपर्ण, वैकुण्ठ, धर्म, योगेश्वर, अमल, ईश्वर, पुरुष, अव्यक्त और परमात्मा आदि नामोंके द्वारा भगवान्‌  के गुण, लीला आदिका गान करते हैं ॥ २३ ॥ राजन् ! त्रेतायुगमें भगवान्‌ के श्रीविग्रहका रंग होता है लाल। चार भुजाएँ होती हैं और कटिभागमें वे तीन मेखला धारण करते हैं। उनके केश सुनहले होते हैं और वे वेदप्रतिपादित यज्ञके रूपमें रहकर स्रुक्, स्रुवा आदि यज्ञ-पात्रोंको धारण किया करते हैं ॥ २४ ॥ उस युगके मनुष्य अपने धर्ममें बड़ी निष्ठा रखनेवाले और वेदोंके अध्ययन-अध्यापनमें बड़े प्रवीण होते हैं। वे लोग ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदरूप वेदत्रयीके द्वारा सर्वदेवस्वरूप देवाधिदेव भगवान्‌ श्रीहरिकी आराधना करते हैं ॥ २५ ॥ त्रेतायुगमें अधिकांश लोग, विष्णु, यज्ञ, पृष्निगर्भ, सर्वदेव, उरुक्रम, वृषाकपि, जयन्त और उरुगाय आदि नामोंसे उनके गुण और लीला आदिका कीर्तन करते हैं ॥ २६ ॥ राजन् ! द्वापरयुगमें भगवान्‌के श्रीविग्रहका रंग होता है साँवला। वे पीताम्बर तथा शङ्ख, चक्र, गदा आदि अपने आयुध धारण करते हैं। वक्ष:स्थलपर श्रीवत्सका चिह्न, भृगुलता, कौस्तुभ- मणि आदि लक्षणोंसे वे पहचाने जाते हैं ॥ २७ ॥ राजन् ! उस समय जिज्ञासु मनुष्य महाराजोंके चिह्न छत्र, चँवर आदिसे युक्त परमपुरुष भगवान्‌की वैदिक और तान्त्रिक विधिसे आराधना करते हैं ॥ २८ ॥ वे लोग इस प्रकार भगवान्‌की स्तुति करते हैं—‘हे ज्ञानस्वरूप भगवान्‌ वासुदेव एवं क्रियाशक्तिरूप सङ्कर्षण ! हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। भगवान्‌ प्रद्युम्र और अनिरुद्धके रूपमें हम आपको नमस्कार करते हैं। ऋषि नारायण, महात्मा नर, विश्वेश्वर, विश्वरूप और सर्वभूतात्मा भगवान्‌ को हम नमस्कार करते हैं ॥ २९-३० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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