॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
पहला अध्याय..(पोस्ट०२)
यदुवंश को ऋषियों का शाप
क्रीडन्तस्तानुपव्रज्य
कुमारा यदुनन्दनाः ।
उपसङ्गृह्य
पप्रच्छुरविनीता विनीतवत् ॥१३॥
ते
वेषयित्वा स्त्रीवेषैः साम्बं जाम्बवतीसुतम् ।
एषा
पृच्छति वो विप्रा अन्तर्वत्न्यसितेक्षणा ॥१४॥
प्रष्टुं
विलज्जती साक्षात्प्रब्रूतामोघदर्शनाः ।
प्रसोष्यन्ती
पुत्रकामा किं स्वित्सञ्जनयिष्यति ॥१५॥
एवं
प्रलब्धा मुनयस्तानूचुः कुपिता नृप ।
जनयिष्यति
वो मन्दा मुसलं कुलनाशनम् ॥१६॥
तच्छ्रुत्वा
तेऽतिसन्त्रस्ता विमुच्य सहसोदरम् ।
साम्बस्य
ददृशुस्तस्मिन् मुसलं खल्वयस्मयम् ॥१७॥
किं
कृतं मन्दभाग्यैर्नः किं वदिष्यन्ति नो जनाः ।
इति
विह्वलिता गेहानादाय मुसलं ययुः ॥१८॥
तच्चोपनीय
सदसि परिम्लानमुखश्रियः ।
राज्ञ
आवेदयाञ्चक्रुः सर्वयादवसन्निधौ ॥१९॥
श्रुत्वामोघं
विप्रशापं दृष्ट्वा च मुसलं नृप ।
विस्मिता
भयसन्त्रस्ता बभूवुर्द्वारकौकसः ॥२०॥
तच्चूर्णयित्वा
मुसलं यदुराजः स आहुकः ।
समुद्रसलिले
प्रास्यल्लोहं चास्यावशेषितम् ॥२१॥
कश्चिन्मत्स्योऽग्रसील्लोहं
चूर्णानि तरलैस्ततः ।
उह्यमानानि
वेलायां लग्नान्यासन्किलैरकाः ॥२२॥
मत्स्यो
गृहीतो मत्स्यघ्नैर्जालेनान्यैः सहार्णवे ।
तस्योदरगतं
लोहं स शल्ये लुब्धकोऽकरोत् ॥२३॥
भगवान्ज्ञातसर्वार्थ
ईश्वरोऽपि तदन्यथा ।
कर्तुं
नैच्छद्विप्रशापं कालरूप्यन्वमोदत ॥२४॥
क दिन यदुवंश के कुछ उद्दण्ड कुमार
खेलते-खेलते उनके पास जा निकले। उन्होंने बनावटी नम्रता से उनके चरणोंमें प्रणाम
करके प्रश्र किया ॥ १३ ॥ वे जाम्बवतीनन्दन साम्ब को स्त्री के वेष में सजाकर ले गये
और कहने लगे, ‘ब्राह्मणो ! यह कजरारी आँखों वाली
सुन्दरी गर्भवती है। यह आप से एक बात पूछना चाहती है। परन्तु स्वयं पूछने में
सकुचाती है। आपलोगोंका ज्ञान अमोघ— अबाध है,
आप सर्वज्ञ हैं। इसे पुत्रकी बड़ी लालसा है और अब प्रसव का समय
निकट आ गया है। आपलोग बताइये, यह कन्या जनेगी या पुत्र ?’
॥ १४-१५ ॥ परीक्षित् ! जब उन कुमारों ने इस प्रकार उन ऋषि-मुनियों
को धोखा देना चाहा, तब
वे भगवत्प्रेरणा से क्रोधित हो उठे। उन्होंने कहा—‘मूर्खो ! यह एक ऐसा मूसल पैदा
करेगी, जो तुम्हारे कुलका नाश करनेवाला होगा ॥ १६ ॥ मुनियोंकी यह बात
सुनकर वे बालक बहुत ही डर गये। उन्होंने तुरंत साम्बका पेट खोलकर देखा तो सचमुच
उसमें एक लोहेका मूसल मिला ॥ १७ ॥ अब तो वे पछताने लगे और कहने लगे—‘हम बड़े अभागे
हैं। देखो, हमलोगोंने यह क्या अनर्थ कर डाला ?
अब लोग हमें क्या कहेंगे ?’
इस प्रकार वे बहुत ही घबरा गये तथा मूसल लेकर अपने निवासस्थानमें
गये ॥ १८ ॥ उस समय उनके चेहरे फीके पड़ गये थे। मुख कुम्हला गये थे। उन्होंने भरी
सभामें सब यादवोंके सामने ले जाकर वह मूसल रख दिया और राजा उग्रसेनसे सारी घटना कह
सुनायी ॥ १९ ॥ राजन् ! जब सब लोगोंने ब्राह्मणोंके शापकी बात सुनी और अपनी आँखोंसे
उस मूसलको देखा, तब सब-के-सब द्वारकावासी विस्मित और भयभीत हो गये; क्योंकि वे जानते थे कि ब्राह्मणोंका शाप कभी झूठा नहीं होता ॥ २०
॥ यदुराज उग्रसेनने उस मूसलको चूरा-चूरा करा डाला और उस चूरे तथा लोहेके बचे हुए
छोटे टुकड़ेको समुद्रमें फेंकवा दिया। (इसके सम्बन्धमें उन्होंने भगवान्
श्रीकृष्णसे कोई सलाह न ली; ऐसी ही उनकी प्रेरणा थी) ॥ २१ ॥
परीक्षित् ! उस लोहेके टुकड़ेको एक
मछली निगल गयी और चूरा तरङ्गोंके साथ बहबहकर समुद्रके किनारे आ लगा। वह थोड़े
दिनोंमें एरक (बिना गाँठकी एक घास) के रूपमें उग आया ॥ २२ ॥ मछली मारनेवाले
मछुओंने समुद्रमें दूसरी मछलियोंके साथ उस मछलीको भी पकड़ लिया। उसके पेटमें जो
लोहेका टुकड़ा था, उसको
जरा नामक व्याधने अपने बाणके नोकमें लगा लिया ॥ २३ ॥ भगवान् सब कुछ जानते थे। वे
इस शापको उलट भी सकते थे। फिर भी उन्होंने ऐसा करना उचित न समझा। कालरूपधारी
प्रभुने ब्राह्मणोंके शापका अनुमोदन ही किया ॥ २४ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे प्रथमोऽध्यायः
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें