शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– दूसरा अध्याय (पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धदूसरा अध्याय (पोस्ट०२)

 

कलियुग के धर्म

 

अथ तेषां भविष्यन्ति मनांसि विशदानि वै ।

 वासुदेवाङ्‌गरागाति पुण्यगंधानिलस्पृशाम् ।

 पौरजानपदानां वै हतेष्वखिलदस्युषु ॥ २१ ॥

 तेषां प्रजाविसर्गश्च स्थविष्ठः संभविष्यति ।

 वासुदेवे भगवति सत्त्वमूर्तौ हृदि स्थिते ॥ २२ ॥

 यदावतीर्णो भगवान् कल्किर्धर्मपतिर्हरिः ।

 कृतं भविष्यति तदा प्रजासूतिश्च सात्त्विकी ॥ २३ ॥

 यदा चन्द्रश्च सूर्यश्च तथा तिष्यबृहस्पती ।

 एकराशौ समेष्यन्ति भविष्यति तदा कृतम् ॥ २४ ॥

 येऽतीता वर्तमाना ये भविष्यन्ति च पार्थिवाः ।

 ते ते उद्देशतः प्रोक्ता वंशीयाः सोमसूर्ययोः ॥ २५ ॥

 आरभ्य भवतो जन्म यावत् नन्दाभिषेचनम् ।

 एतद् वर्षसहस्रं तु शतं पञ्चदशोत्तरम् ॥ २६ ॥

 सप्तर्षीणां तु यौ पूर्वौ दृश्येते उदितौ दिवि ।

 तयोस्तु मध्ये नक्षत्रं दृश्यते यत्समं निशि ॥ २७ ॥

 तेनैव ऋषयो युक्ताः तिष्ठन्त्यब्दशतं नृणाम् ।

 ते त्वदीये द्विजाः काले अधुना चाश्रिता मघाः ॥ २८ ॥

 विष्णोर्भगवतो भानुः कृष्णाख्योऽसौ दिवं गतः ।

 तदाविशत् कलिर्लोकं पापे यद् रमते जनः ॥ २९ ॥

 यावत् स पादपद्माभ्यां स्पृशनास्ते रमापतिः ।

 तावत् कलिर्वै पृथिवीं पराक्रान्तुं न चाशकत् ॥ ३० ॥

 यदा देवर्षयः सप्त मघासु विचरन्ति हि ।

 तदा प्रवृत्तस्तु कलिः द्वादशाब्द शतात्मकः ॥ ३१ ॥

 यदा मघाभ्यो यास्यन्ति पूर्वाषाढां महर्षयः ।

 तदा नन्दात् प्रभृत्येष कलिर्वृद्धिं गमिष्यति ॥ ३२ ॥

 यस्मिन् कृष्णो दिवं यातः तस्मिन् एव तदाहनि ।

 प्रतिपन्नं कलियुगं इति प्राहुः पुराविदः ॥ ३३ ॥

 दिव्याब्दानां सहस्रान्ते चतुर्थे तु पुनः कृतम् ।

 भविष्यति तदा नॄणां मन आत्मप्रकाशकम् ॥ ३४ ॥

 इत्येष मानवो वंशो यथा सङ्‌ख्यायते भुवि ।

 तथा विट्शूद्रविप्राणां तास्ता ज्ञेया युगे युगे ॥ ३५ ॥

 एतेषां नामलिङ्‌गानां पुरुषाणां महात्मनाम् ।

 कथामात्रावशिष्टानां कीर्तिरेव स्थिता भुवि ॥ ३६ ॥

 देवापिः शान्तनोर्भ्राता मरुश्चेक्ष्वाकुवंशजः ।

 कलापग्राम आसाते महायोगबलान्वितौ ॥ ३७ ॥

 ताविहैत्य कलेरन्ते वासुदेवानुशिक्षितौ ।

 वर्णाश्रमयुतं धर्मं पूर्ववत् प्रथयिष्यतः ॥ ३८ ॥

 कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चेति चतुर्युगम् ।

 अनेन क्रमयोगेन भुवि प्राणिषु वर्तते ॥ ३९ ॥

 राजन् एते मया प्रोक्ता नरदेवास्तथापरे ।

 भूमौ ममत्वं कृत्वान्ते हित्वेमां निधनं गताः ॥ ४० ॥

 कृमिविड् भस्मसंज्ञान्ते राजनाम्नोऽपि यस्य च ।

 भूतध्रुक् तत्कृते स्वार्थं किं वेद निरयो यतः ॥ ४१ ॥

 कथं सेयमखण्डा भूः पूर्वैर्मे पुरुषैर्धृता ।

 मत्पुत्रस्य च पौत्रस्य मत्पूर्वा वंशजस्य वा ॥ ४२ ॥

 तेजोऽबन्नमयं कायं गृहीत्वाऽऽत्मतयाबुधाः ।

 महीं ममतया चोभौ हित्वान्तेऽदर्शनं गताः ॥ ४३ ॥

 ये ये भूपतयो राजन् भुंजते भुवमोजसा ।

 कालेन ते कृताः सर्वे कथामात्राः कथासु च ॥ ४४ ॥

 

प्रिय परीक्षित्‌ ! जब सब डाकुओंका संहार हो चुकेगा, तब नगरकी और देशकी सारी प्रजाका हृदय पवित्रतासे भर जायगा; क्योंकि भगवान्‌ कल्किके शरीरमें लगे हुए अङ्गरागका स्पर्श पाकर अत्यन्त पवित्र हुई वायु उनका स्पर्श करेगी और इस प्रकार वे भगवान्‌के श्रीविग्रहकी दिव्य गन्ध प्राप्त कर सकेंगे ॥ २१ ॥ उनके पवित्र हृदयोंमें सत्त्वमूर्ति भगवान्‌ वासुदेव विराजमान होंगे और फिर उनकी सन्तान पहलेकी भाँति हृष्ट-पुष्ट और बलवान् होने लगेगी ॥ २२ ॥ प्रजाके नयन-मनोहारी हरि ही धर्मके रक्षक और स्वामी हैं। वे ही भगवान्‌ जब कल्किके रूपमें अवतार ग्रहण करेंगे, उसी समय सत्ययुगका प्रारम्भ हो जायगा और प्रजाकी सन्तान-परम्परा स्वयं ही सत्त्वगुणसे युक्त हो जायगी ॥ २३ ॥ जिस समय चन्द्रमा, सूर्य और बृहस्पति एक ही समय एक ही साथ पुष्य नक्षत्रके प्रथम पलमें प्रवेश करते हैं, एक राशिपर आते हैं, उसी समय सत्ययुगका प्रारम्भ होता है ॥ २४ ॥

परीक्षित्‌ ! चन्द्रवंश और सूर्यवंशमें जितने राजा हो गये हैं या होंगे, उन सबका मैंने संक्षेपसे वर्णन कर दिया ॥ २५ ॥ तुम्हारे जन्मसे लेकर राजा नन्दके अभिषेकतक एक हजार एक सौ पंद्रह वर्षका समय लगेगा ॥ २६ ॥ जिस समय आकाशमें सप्तर्षियोंका उदय होता है, उस समय पहले उनमेंसे दो ही तारे दिखायी पड़ते हैं। उनके बीचमें दक्षिणोत्तर रेखापर समभागमें अश्विनी आदि नक्षत्रोंमेंसे एक नक्षत्र दिखायी पड़ता है ॥ २७ ॥ उस नक्षत्रके साथ सप्तर्षिगण मनुष्योंकी गणनासे सौ वर्षतक रहते हैं। वे तुम्हारे जन्मके समय और इस समय भी मघा नक्षत्रपर स्थित हैं ॥ २८ ॥

स्वयं सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ ही शुद्ध सत्त्वमय विग्रहके साथ श्रीकृष्णके रूपमें प्रकट हुए थे। वे जिस समय अपनी लीला संवरण करके परमधामको पधार गये, उसी समय कलियुगने संसारमें प्रवेश किया। उसीके कारण मनुष्योंकी मति-गति पापकी ओर ढुलक गयी ॥ २९ ॥ जबतक लक्ष्मीपति भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने चरणकमलोंसे पृथ्वीका स्पर्श करते रहे, तबतक कलियुग पृथ्वीपर अपना पैर न जमा सका ॥ ३० ॥ परीक्षित्‌ ! जिस समय सप्तर्षि मघा-नक्षत्रपर विचरण करते रहते हैं, उसी समय कलियुगका प्रारम्भ होता है। कलियुगकी आयु देवताओंकी वर्षगणनासे बारह सौ वर्षोंकी अर्थात् मनुष्योंकी गणनाके अनुसार चार लाख बत्तीस हजार वर्षकी है ॥ ३१ ॥ जिस समय सप्तर्षि मघासे चलकर पूर्वाषाढ़ा-नक्षत्रमें जा चुके होंगे, उस समय राजा नन्दका राज्य रहेगा। तभीसे कलियुगकी वृद्धि शुरू होगी ॥ ३२ ॥ पुरातत्त्ववेत्ता ऐतिहासिक विद्वानोंका कहना है कि जिस दिन भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने परम-धामको प्रयाण किया, उसी दिन, उसी समय कलियुगका प्रारम्भ हो गया ॥ ३३ ॥ परीक्षित्‌ ! जब देवताओंकी वर्षगणनाके अनुसार एक हजार वर्ष बीत चुकेंगे, तब कलियुगके अन्तिम दिनोंमें फिरसे कल्किभगवान्‌की कृपासे मनुष्योंके मनमें सात्त्विकताका सञ्चार होगा, लोग अपने वास्तविक स्वरूपको जान सकेंगे और तभीसे सत्ययुगका प्रारम्भ भी होगा ॥ ३४ ॥

परीक्षित्‌ ! मैंने तो तुमसे केवल मनुवंशका, सो भी संक्षेपसे वर्णन किया है। जैसे मनुवंशकी गणना होती है, वैसे ही प्रत्येक युगमें ब्राह्मण, वैश्य और शूद्रोंकी भी वंशपरम्परा समझनी चाहिये ॥ ३५ ॥ राजन् ! जिन पुरुषों और महात्माओंका वर्णन मैंने तुमसे किया है, अब केवल नामसे ही उनकी पहचान होती है। अब वे नहीं हैं, केवल उनकी कथा रह गयी है। अब उनकी कीर्ति ही पृथ्वीपर जहाँ-तहाँ सुननेको मिलती है ॥ ३६ ॥ भीष्मपितामहके पिता राजा शन्तनुके भाई देवापि और इक्ष्वाकुवंशी मरु इस समय कलाप-ग्राममें स्थित हैं। वे बहुत बड़े योगबलसे युक्त हैं ॥ ३७ ॥ कलियुगके अन्तमें कल्किभगवान्‌की आज्ञासे वे फिर यहाँ आयँगे और पहलेकी भाँति ही वर्णाश्रमधर्मका विस्तार करेंगे ॥ ३८ ॥ सत्ययुग, त्रेता द्वापर और कलियुग—ये ही चार युग हैं; ये पूर्वोक्त क्रमके अनुसार अपने-अपने समयमें पृथ्वीके प्राणियोंपर अपना प्रभाव दिखाते रहते हैं ॥ ३९ ॥ परीक्षित्‌ ! मैंने तुमसे जिन राजाओंका वर्णन किया है, वे सब और उनके अतिरिक्त दूसरे राजा भी इस पृथ्वीको ‘मेरी-मेरी’ करते रहे, परन्तु अन्तमें मरकर धूलमें मिल गये ॥ ४० ॥ इस शरीरको भले ही कोई राजा कह ले; परन्तु अन्तमें यह कीड़ा, विष्ठा अथवा राखके रूपमें ही परिणत होगा, राख ही होकर रहेगा। इसी शरीरके या इसके सम्बन्धियोंके लिये जो किसी भी प्राणीको सताता है, वह न तो अपना स्वार्थ जानता है और न तो परमार्थ। क्योंकि प्राणियोंको सताना तो नरकका द्वार है ॥ ४१ ॥ वे लोग यही सोचा करते हैं कि मेरे दादा-परदादा इस अखण्ड भूमण्डलका शासन करते थे; अब यह मेरे अधीन किस प्रकार रहे और मेरे बाद मेरे बेटे-पोते, मेरे वंशज किस प्रकार इसका उपभोग करें ॥ ४२ ॥ वे मूर्ख इस आग, पानी और मिट्टीके शरीरको अपना आपा मान बैठते हैं और बड़े अभिमानके साथ डींग हाँकते हैं कि यह पृथ्वी मेरी है। अन्तमें वे शरीर और पृथ्वी दोनोंको छोडक़र स्वयं ही अदृश्य हो जाते हैं ॥ ४३ ॥ प्रिय परीक्षित्‌ ! जो-जो नरपति बड़े उत्साह और बल-पौरुषसे इस पृथ्वीके उपभोगमें लगे रहे, उन सबको कालने अपने विकराल गालमें धर दबाया। अब केवल इतिहासमें उनकी कहानी ही शेष रह गयी है ॥ ४४ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां द्वादशस्कन्धे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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