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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
एक तितिक्षु ब्राह्मण का इतिहास
श्रीभगवानुवाच
इत्यभिप्रेत्य
मनसा ह्यावन्त्यो द्विजसत्तमः
उन्मुच्य
हृदयग्रन्थीन्शान्तो भिक्षुरभून्मुनिः ३१
स
चचार महीमेतां संयतात्मेन्द्रियानिलः
भिक्षार्थं
नगरग्रामानसङ्गोऽलक्षितोऽविशत् ३२
तं
वै प्रवयसं भिक्षुमवधूतमसज्जनाः
दृष्ट्वा
पर्यभवन्भद्र बह्वीभिः परिभूतिभिः ३३
केचित्त्रिवेणुं
जगृहुरेके पात्रं कमण्डलुम्
पीठं
चैकेऽक्षसूत्रं च कन्थां चीराणि केचन ३४
प्रदाय
च पुनस्तानि दर्शितान्याददुर्मुनेः
अन्नं
च भैक्ष्यसम्पन्नं भुञ्जानस्य सरित्तटे ३५
मूत्रयन्ति
च पापिष्ठाः ष्ठीवन्त्यस्य च मूर्धनि
यतवाचं
वाचयन्ति ताडयन्ति न वक्ति चेत् ३६
तर्जयन्त्यपरे
वाग्भिः स्तेनोऽयमिति वादिनः
बध्नन्ति
रज्ज्वा तं केचिद्बध्यतां बध्यतामिति ३७
क्षिपन्त्येकेऽवजानन्त
एष धर्मध्वजः शठः
क्षीणवित्त
इमां वृत्तिमग्रहीत्स्वजनोज्झितः ३८
अहो
एष महासारो धृतिमान्गिरिराडिव
मौनेन
साधयत्यर्थं बकवद्दृढनिश्चयः ३९
इत्येके
विहसन्त्येनमेके दुर्वातयन्ति च
तं
बबन्धुर्निरुरुधुर्यथा क्रीडनकं द्विजम् ४०
एवं
स भौतिकं दुःखं दैविकं दैहिकं च यत्
भोक्तव्यमात्मनो
दिष्टं प्राप्तं प्राप्तमबुध्यत ४१
परिभूत
इमां गाथामगायत नराधमैः
पातयद्भिः
स्व धर्मस्थो धृतिमास्थाय सात्त्विकीम् ४२
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी
! उस उज्जैननिवासी ब्राह्मणने मन-ही-मन इस प्रकार निश्चय करके ‘मैं’ और ‘मेरे’
पनकी गाँठ खोल दी। इसके बाद वह शान्त होकर मौनी संन्यासी हो गया ॥ ३१ ॥ अब उसके
चित्तमें किसी भी स्थान, वस्तु या व्यक्तिके प्रति आसक्ति न रही। उसने अपने मन, इन्द्रिय और प्राणोंको वशमें कर लिया। वह पृथ्वीपर स्वच्छन्दरूपसे
विचरने लगा। वह भिक्षाके लिये नगर और गाँवोंमें जाता अवश्य था, परन्तु इस प्रकार जाता था कि कोई उसे पहचान न पाता था ॥ ३२ ॥
उद्धवजी ! वह भिक्षुक अवधूत बहुत बूढ़ा हो गया था। दुष्ट उसे देखते ही टूट पड़ते
और तरह-तरहसे उसका तिरस्कार करके उसे तंग करते ॥ ३३ ॥ कोई उसका दण्ड छीन लेता, तो कोई भिक्षापात्र ही झटक ले जाता। कोई कमण्डलु उठा ले जाता तो
कोई आसन, रुद्राक्ष- माला और कंथा ही लेकर भाग जाता। कोई तो उसकी लँगोटी और
वस्त्रको ही इधर-उधर डाल देते ॥ ३४ ॥ कोई-कोई वे वस्तुएँ देकर और कोई
दिखला-दिखलाकर फिर छीन लेते। जब वह अवधूत मधुकरी माँगकर लाता और बाहर नदी-तटपर
भोजन करने बैठता, तो
पापी लोग कभी उसके सिरपर मूत देते, तो कभी थूक देते। वे लोग उस मौनी अवधूतको तरह-तरहसे बोलनेके लिये
विवश करते और जब वह इसपर भी न बोलता तो उसे पीटते ॥ ३५-३६ ॥ कोई उसे चोर कहकर
डाँटने-डपटने लगता। कोई कहता ‘इसे बाँध लो,
बाँध लो’ और फिर उसे रस्सीसे बाँधने लगते ॥ ३७ ॥ कोई उसका तिरस्कार
करके इस प्रकार ताना कसते कि ‘देखो-देखो, अब इस कृपणने धर्मका ढोंग रचा है। धन-सम्पत्ति जाती रही, स्त्री-पुत्रोंने घरसे निकाल दिया;
तब इसने भीख माँगनेका रोजगार लिया है ॥ ३८ ॥ ओहो ! देखो तो सही, यह मोटा-तगड़ा भिखारी धैर्यमें बड़े भारी पर्वतके समान है। यह मौन
रहकर अपना काम बनाना चाहता है। सचमुच यह बगुलेसे भी बढक़र ढोंगी और दृढ़निश्चयी है’
॥ ३९ ॥ कोई उस अवधूतकी हँसी उड़ाता, तो कोई उसपर अधोवायु छोड़ता। जैसे लोग तोता-मैना आदि पालतू
पक्षियोंको बाँध लेते या ङ्क्षपजड़ेमें बंद कर लेते हैं,
वैसे ही उसे भी वे लोग बाँध देते और घरोंमें बंद कर देते ॥ ४० ॥
किन्तु वह सब कुछ चुपचाप सह लेता। उसे कभी ज्वर आदिके कारण दैहिक पीड़ा सहनी पड़ती, कभी गरमी-सर्दी आदिसे दैवी कष्ट उठाना पड़ता और कभी दुर्जन लोग
अपमान आदिके द्वारा उसे भौतिक पीड़ा पहुँचाते;
परन्तु भिक्षुकके मनमें इससे कोई विकार न होता। वह समझता कि यह सब
मेरे पूर्वजन्मके कर्मोंका फल है और इसे मुझे अवश्य भोगना पड़ेगा ॥ ४१ ॥ यद्यपि
नीच मनुष्य तरह-तरहके तिरस्कार करके उसे उसके धर्मसे गिरानेकी चेष्टा किया करते, फिर भी वह बड़ी दृढ़तासे अपने धर्ममें स्थिर रहता और सात्त्विक
धैर्यका आश्रय लेकर कभी-कभी ऐसे उद्गार प्रकट किया करता ॥ ४२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
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