गुरुवार, 20 मई 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण-- श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्- चौथा अध्याय


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्- चौथा अध्याय

 

श्रीमद्भागवत का स्वरूप, प्रमाण, श्रोता-वक्ता के लक्षण,

श्रवणविधि और माहात्म्य

 

ऋषयः ऊचुः -

 साधु सूत चिरं जीव चिरमेवं प्रशाधि नः ।

 श्रीभागवमाहात्म्यं अपूर्वं त्वन् मुखाच्छ्रुतम् ॥ १ ॥

 तत्स्वरूपं प्रमाणं च विधिं च श्रवणे वद ।

 तद्वक्तुर्लक्षणं सूत श्रोतुश्चापि वदाधुना ॥ २ ॥

 

 सूत उवाच -

 श्रीमद् भागवतस्याथ श्रीमद्‌भगवतः सदा ।

 स्वरूपमेकमेवास्ति सच्चिदानन्दलक्षणम् ॥ ३ ॥

 श्रीकृष्णासक्तभक्तानां तन्माधुर्यप्रकाशकम् ।

 समुज्जृम्भति यद्वाक्यं विद्धि भागवतं हि तत् ॥ ४ ॥

 ज्ञानविज्ञान भक्त्यङ्‌ग चतुष्टयपरं वचः ।

 मायामर्दनदक्षं च विद्धि भागवतं च तत् ॥ ५ ॥

 प्रमाणं तस्य को वेद ह्यनन्तस्याक्षरात्मनः ।

 ब्रह्मणे हरिणा तद्दिक् चतुःश्लोक्या प्रदर्शिता ॥ ६ ॥

 तदानन्त्यावगाहेन स्वेप्सितावहनक्षमाः ।

 ते एव सन्ति भो विप्रा ब्रह्मविष्णुशिवादयः ॥ ७ ॥

 मितबुद्ध्यादिवृत्तीनां मनुष्याणां हिताय च ।

 परीक्षिच्छुकसंवादो योऽसौ व्यासेन कीर्तितः ॥ ८ ॥

 ग्रन्तोऽष्टादशसाहस्रो योऽसौ भागवताभिधः ।

 कलिग्राहगृहीतानां स एव परमाश्रयः ॥ ९ ॥

 श्रोतारोऽथ निरूप्यन्ते श्रीमद् विष्णुकथाश्रयाः ।

 प्रवरा अवराश्चेति श्रोतारो द्विविधा पताः ॥ १० ॥

 प्रवराश्चातको हंसः शुको मीनादयस्तथा ।

 अवरा वृकभूरुण्डवृषोष्ट्राद्याः प्रकीर्तिताः ॥ ११ ॥

 अखिलोपेक्षया यस्तु कृष्णशास्त्रश्रुतौ व्रती ।

 सः चातको यथाम्भोदमुक्ते पाथसि चातकः ॥ १२ ॥

 हंसः स्यात् सारमादत्ते यः श्रोता विविधाच्छ्रुतात् ।

 दुग्धेनैक्यं गतात्तोयाद् यथा हंसोऽमलं पयः ॥ १३ ॥

 शुकः सुष्ठु मितं वक्ति व्यासम् श्रोतॄंश्च हर्षयन् ।

 सुपाठितः शुको यद्वत् शिक्षकं पार्श्वगानपि ॥ १४ ॥

 शब्दं नानिमिषो जातु करोत्यास्वादयन् रसम् ।

 श्रोता स्निग्धो भवेन्मीनो मीनः क्षीरनिधौ यथा ॥ १५ ॥

 यस्तुदन् रसिकान् श्रोतॄन् व्रौत्यज्ञो वृको हि सः ।

 वेणुस्वनरसासक्तान् वृकोऽरण्ये मृगान् हथा ॥ १६ ॥

 भूरुण्डः शिक्षयेदन्यात् श्रुत्वा न स्वयमाचरेत् ।

 यथा हिमवतः श्रृंगे भूरुण्डाखो विहंगमः ॥ १७ ॥

 सर्वं श्रुतमुपादत्ते सारासारान्धधीर्वृषः ।

 स्वादुद्राक्षां खलिं चापि निर्विशेषं यथा वृषः ॥ १८ ॥

 स उष्ट्रो मधुरं मुञ्चन् विपरीते रमेत यः ।

 यथा निम्बं चरत्युष्ट्रो हित्वाम्रमपि तद्‌युतम् ॥ १९ ॥

 अन्येऽपि बहवो भेदा द्वयोर्भृङ्‌गखरादयः ।

 विज्ञेयास्तत्तदाचारैः तत्तत्प्रकृतिसम्भवैः ॥ २० ॥

 यः स्थित्वाभिमुखं प्रणम्य विधिवत्

     त्यक्तान्यवादो हरेः ।

 लीलाः श्रोतुमभीप्सतेऽतिनिपुणो

     नम्रोऽथ कॢपाञ्जलिः ।

 शिष्यो विश्वसितोऽनुचिन्तनपरः

     प्रश्नेऽनुरक्तः शुचिः ।

 नित्यं कृष्णजनप्रियो निगदितः

     श्रोता स वै वक्तृभिः ॥ २१ ॥

 भावगन्मतिरनपेक्षः सुहृदो दीनेषु स्मानुकम्पो यः ।

 बहुधा बोधनचतुरो वक्ता सम्मानितो मुनिभिः ॥ २२ ॥

 अथ भारतभृस्थाने श्रीभागवतसेवने ।

 विधिं श्रृणुत भो विप्रा येन स्यात् सुखसन्ततिः ॥ २३ ॥

 राजसं सत्त्विकं चापि तामसं निर्गुणं तथा ।

 चतुर्विधं तु विज्ञेयं श्रीभागवतसेवनम् ॥ २४ ॥

 सप्ताहं यज्ञवद् यत्तु सश्रमं सत्वरं मुदा ।

 सेवितं राजसं तत्तु बहुपूजादिशोभनम् ॥ २५ ॥

 मासेन ऋतुना वापि श्रवणं स्वादसंयुतम् ।

 सात्त्विकं यदनायासं समस्तानन्दवर्धनम् ॥ २६ ॥

 तामसं यत्तु वर्षेण सालसं श्रद्धया युतम् ।

 विस्मृतिस्मृतिसंयुक्तं सेवनं तच्च सौख्यदम् ॥ २७ ॥

 वर्षमासदिनानां तु विमुच्य नियमाग्रहम् ।

 सर्वदा प्रेमभक्त्यैव सेवनं निर्गुणं मतम् ॥ २८ ॥

 पारीक्षितेऽपि संवादे निर्गुणं तत् प्रकीर्तितम् ।

 तत्र सप्तदिनाख्यानं तदायुर्दिनसंखय्या ॥ २९ ॥

 अन्यत्र त्रिगुणं चापि निर्गुणं च यथेच्छया

 यथा कथञ्चित् कर्तव्यं सेवनं भगवच्छ्रुतेः ॥ ३० ॥

 ये श्रीकृष्णविहारैक भजनास्वादलोलुपाः ।

 मुक्तावपि निराकाङ्‌क्षाः तेषां भागवतं धनम् ॥ ३१ ॥

 येऽपि संसारसन्तापनिर्विण्णा मोक्षकाङ्‌क्षिणः ।

 तेषां भवौषधं चैतत् कलौ सेव्यं प्रयत्‍नतः ॥ ३२ ॥

 ये चापि विषयारामाः सांसारिकसुखस्पृहाः ।

 तेषां तु कर्म मार्गेण या सिद्धिः साधुना कलौ ॥ ३३ ॥

 सामर्थ्यधनविज्ञानाभावादत्यन्तदुर्लभा ।

 तस्मात्तैरपि संसेव्या श्रीमद्‌भागवती कथा ॥ ३४ ॥

 धनं पुत्रांस्तथा दारान् वाहनादि यशो गृहान् ।

 असापत्‍न्यं च राज्यं च दद्यात् भागवती कथा ॥ ३५ ॥

 इह लोके वरान् भुक्त्वा भोगान् वै मनसेप्सितान् ।

 श्रीभागवतसंगेन यात्यन्ते श्रीहरेः पदम् ॥ ३६ ॥

 यत्र भागवती वार्ता ये च तच्छ्रवणे रताः ।

 तेषां संसेवनं कुर्याद् देहेन च धनेन च ॥ ३७ ॥

 तदनुग्रहतोऽस्यापि श्रीभागवतसेवनम् ।

 श्रीकृष्णव्यतिरिक्तं यत्तत् सर्वं धनसंज्ञितम् ॥ ३८ ॥

 कृष्णार्थीति धनार्थीति श्रोता वक्ता द्विधा मतः ।

 यथा वक्ता तथा श्रोता तत्र सौख्यं विवर्धते ॥ ३९ ॥

 उभयोर्वैपरीत्ये तु रसाभासे फलच्युतिः ।

 किन्तु कृष्णार्थिनां सिद्धिः विलम्बेनापि जायते ॥ ४० ॥

 धनार्थिनस्तु संसिद्धिः विधिसंपूर्णतावशात् ।

 कृष्णार्थिनोऽगुणस्यापि प्रेमैव विधिरुत्तमः ॥ ४१ ॥

 आसमाप्ति सकामेन कर्त्तव्यो हि विधिः स्वयम् ।

 स्नातो नित्यक्रियां कृत्वा प्राश्य पादोदकं हरेः ॥ ४२ ॥

 पुस्तकं च गुरुं चैव पूजयित्वोपचारतः ।

 ब्रूयाद् वा श्रृणुयाद् वापि श्रीमद्‌भागवतं मुदा ॥ ४३ ॥

 पयसा वा हविषेण मौनं भोजमाचरेत् ।

 ब्रह्मचर्यमधःसुप्तिं क्रोधलोभादिवर्जनम् ॥ ४४ ॥

 कथान्ते कीर्तनं नित्यं समाप्तौ जागरं चरेत् ।

 ब्रह्मणान् भोजयित्वा तु दक्षिणाभिः प्रतोषयेत् ॥ ४५ ॥

 गुरवे वस्त्रभूषादि दत्त्वा गां च समर्पयेत् ।

 एवं कृते विधाने तु लभते वाञ्छितं फलम् ॥ ४६ ॥

 दारागारसुतान् राज्यं धनादि च यदीप्सितम् ।

 परंतु शोभते नात्र सकामत्वं विडम्बनम् ॥ ४७ ॥

 कृष्णप्राप्तिकरं शश्वत् प्रेमानन्दफलप्रदम् ।

 श्रीमद्‌भागवतं शास्त्रं कलौ कीरेण भाषितम् ॥ ४८ ॥

 

शौनकादि ऋषियोंने कहा—सूतजी ! आपने हमलोगोंको बहुत अच्छी बात बतायी। आपकी आयु बढ़े, आप चिरजीवी हों और चिरकालतक हमें इसी प्रकार उपदेश करते रहें। आज हमलोगोंने आपके मुखसे श्रीमद्भागवतका अपूर्व माहात्म्य सुना है ॥ १ ॥ सूतजी ! अब इस समय आप हमें यह बताइये कि श्रीमद्भागवतका स्वरूप क्या है ? उसका प्रमाण—उसकी श्लोक-संख्या कितनी है ? किस विधिसे उसका श्रवण करना चाहिये ? तथा श्रीमद्भागवतके वक्ता और श्रोताके क्या लक्षण हैं ? अभिप्राय यह कि उसके वक्ता और श्रोता कैसे होने चाहिये ॥ २ ॥

सूतजी कहते हैं—ऋषिगण ! श्रीमद्भागवत और श्रीभगवान्‌का स्वरूप सदा एक ही है और वह है सच्चिदानन्दमय ॥ ३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णमें जिनकी लगन लगी है, उन भावुक भक्तोंके हृदयमें जो भगवान्‌के माधुर्य भावको अभिव्यक्त करनेवाला, उनके दिव्य माधुर्यरसका आस्वादन करानेवाला सर्वोत्कृष्ट वचन है, उसे श्रीमद्भागवत समझो ॥ ४ ॥ जो वाक्य ज्ञान, विज्ञान, भक्ति एवं इनके अङ्गभूत साधनचतुष्टयको प्रकाशित करनेवाला है तथा जो मायाका मर्दन करनेमें समर्थ है, उसे भी तुम श्रीमद्भागवत समझो ॥ ५ ॥ श्रीमद्भागवत अनन्त, अक्षरस्वरूप है; इसका नियत प्रमाण भला कौन जान सकता है ? पूर्वकालमें भगवान्‌ विष्णुने ब्रह्माजीके प्रति चार श्लोकोंमें इसका दिग्दर्शन- मात्र कराया था ॥ ६ ॥ विप्रगण ! इस भागवतकी अपार गहराईमें डुबकी लगाकर इसमेंसे अपनी अभीष्ट वस्तुको प्राप्त करनेमें केवल ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि ही समर्थ हैं; दूसरे नहीं ॥ ७ ॥ परन्तु जिनकी बुद्धि आदि वृत्तियाँ परिमित हैं, ऐसे मनुष्योंका हितसाधन करनेके लिये श्रीव्यासजीने परीक्षित्‌ और शुकदेवजीके संवादके रूपमें जिसका गान किया है, उसीका नाम श्रीमद्भागवत है। उस ग्रन्थकी श्लोकसंख्या अठारह हजार है। इस भवसागरमें जो प्राणी कलिरूपी ग्राहसे ग्रस्त हो रहे हैं, उनके लिये वह श्रीमद्भागवत ही सर्वोत्तम सहारा है ॥ ८-९ ॥

अब भगवान्‌ श्रीकृष्णकी कथाका आश्रय लेनेवाले श्रोताओंका वर्णन करते हैं। श्रोता दो प्रकारके माने गये हैं—प्रवर (उत्तम) तथा अवर (अधम) ॥ १० ॥ प्रवर श्रोताओंके ‘चातक’, ‘हंस’, ‘शुक’ और ‘मीन’ आदि कई भेद हैं। अवरके भी ‘वृक’, भूरुण्ड’, ‘वृष’ और ‘उष्ट्र’ आदि अनेकों भेद बतलाये गये हैं ॥ ११ ॥ ‘चातक’ कहते हैं पपीहेको। वह जैसे बादलसे बरसते हुए जलमें ही स्पृहा रखता है, दूसरे जलको छूता ही नहीं—उसी प्रकार जो श्रोता सब कुछ छोडक़र केवल श्रीकृष्णसम्बन्धी शास्त्रोंके श्रवणका व्रत ले लेता है, वह ‘चातक’ कहा गया है ॥ १२ ॥ जैसे हंस दूधके साथ मिलकर एक हुए जलसे निर्मल दूध ग्रहण कर लेता और पानीको छोड़ देता है, उसी प्रकार जो श्रोता अनेकों शास्त्रोंका श्रवण करके भी उसमेंसे सारभाग अलग करके ग्रहण करता है, उसे ‘हंस’ कहते हैं ॥ १३ ॥ जिस प्रकार भलीभाँति पढ़ाया हुआ तोता अपनी मधुर वाणीसे शिक्षकको तथा पास आनेवाले दूसरे लोगोंको भी प्रसन्न करता है, उसी प्रकार जो श्रोता कथा- वाचक व्यासके मुँहसे उपदेश सुनकर उसे सुन्दर और परिमित वाणीमें पुन: सुना देता और व्यास एवं अन्यान्य श्रोताओंको अत्यन्त आनन्दित करता है, वह ‘शुक’ कहलाता है ॥ १४ ॥ जैसे क्षीरसागरमें मछली मौन रहकर अपलक आँखोंसे देखती हुई सदा दुग्ध पान करती रहती है, उसी प्रकार जो कथा सुनते समय निॢनमेष नयनोंसे देखता हुआ मुँहसे कभी एक शब्द भी नहीं निकालता और निरन्तर कथारसका ही आस्वादन करता रहता है, वह प्रेमी श्रोता ‘मीन’ कहा गया है ॥ १५ ॥ (ये प्रवर अर्थात् उत्तम श्रोताओंके भेद बताये गये हैं, अब अवर यानी अधम श्रोता बताये जाते हैं।) ‘वृक’ कहते हैं भेडिय़ेको। जैसे भेडिय़ा वनके भीतर वेणुकी मीठी आवाज सुननेमें लगे हुए मृगोंको डरानेवाली भयानक गर्जना करता है, वैसे ही जो मूर्ख कथाश्रवणके समय रसिक श्रोताओंको उद्विग्र करता हुआ बीच-बीचमें जोर-जोरसे बोल उठता है, वह ‘वृक’ कहलाता है ॥ १६ ॥ हिमालयके शिखरपर एक भूरुण्ड जातिका पक्षी होता है। वह किसीके शिक्षाप्रद वाक्य सुनकर वैसा ही बोला करता है, किन्तु स्वयं उससे लाभ नहीं उठाता। इसी प्रकार जो उपदेशकी बात सुनकर उसे दूसरोंको तो सिखाये पर स्वयं आचरणमें न लाये, ऐसे श्रोताको ‘भूरुण्ड’ कहते हैं ॥ १७ ॥ ‘वृष’ कहते हैं बैलको। उसके सामने मीठे-मीठे अंगूर हो या कड़वी खली, दोनोंको वह एक-सा ही मानकर खाता है। उसी प्रकार जो सुनी हुई सभी बातें ग्रहण करता है, पर सार और असार वस्तुका विचार करनेमें उसकी बुद्धि अंधी— असमर्थ होती है, ऐसा श्रोता ‘वृष’ कहलाता है ॥ १८ ॥ जिस प्रकार ऊँट माधुर्यगुणसे युक्त आमको भी छोडक़र केवल नीमकी ही पत्ती चबाता है, उसी प्रकार जो भगवान्‌की मधुर कथाको छोडक़र उसके विपरीत संसारी बातोंमें रमता रहता है, उसे ‘ऊँट’ कहते हैं ॥ १९ ॥ ये कुछ थोड़े-से भेद यहाँ बताये गये। इनके अतिरिक्त भी प्रवर-अवर दोनों प्रकारके श्रोताओंके ‘भ्रमर’ और ‘गदहा’ आदि बहुतसे भेद हैं, इन सब भेदोंको उन-उन श्रोताओंके स्वाभाविक आचार-व्यवहारोंसे परखना चाहिये ॥ २० ॥ जो वक्ताके सामने उन्हें विधिवत् प्रणाम करके बैठे और अन्य संसारी बातोंको छोडक़र केवल श्रीभगवान्‌की लीला-कथाओंको ही सुननेकी इच्छा रखे, समझनेमें अत्यन्त कुशल हो, नम्र हो, हाथ जोड़े रहे, शिष्यभावसे उपदेश ग्रहण करे और भीतर श्रद्धा तथा विश्वास रखे; इसके सिवाय, जो कुछ सुने उसका बराबर चिन्तन करता रहे—जो बात समझमें न आये, पूछे और पवित्र भावसे रहे तथा श्रीकृष्णके भक्तोंपर सदा ही प्रेम रखता हो—ऐसे ही श्रोताको वक्ता लोग उत्तम श्रोता कहते हैं ॥ २१ ॥ अब वक्ताके लक्षण बतलाते हैं—जिसका मन सदा भगवान्‌में लगा रहे, जिसे किसी भी वस्तुकी अपेक्षा न हो, जो सबका सुहृद् और दीनोंपर दया करनेवाला हो तथा अनेकों युक्तियोंसे तत्त्वका बोध करा देनेमें चतुर हो, उसी वक्ताका मुनिलोग भी सम्मान करते हैं ॥ २२ ॥

विप्रगण ! अब मैं भारतवर्षकी भूमिपर श्रीमद्भागवतकथाका सेवन करनेके लिये जो आवश्यक विधि है, उसे बतलाता हूँ; आप सुनें। इस विधिके पालनसे श्रोताकी सुख-परम्पराका विस्तार होता है ॥ २३ ॥ श्रीमद्भागवतका सेवन चार प्रकारका है—सात्त्विक, राजस, तामस और निर्गुण ॥ २४ ॥ जिसमें यज्ञकी भाँति तैयारी की गयी हो, बहुत-सी पूजा-सामग्रियोंके कारण जो अत्यन्त शोभासम्पन्न दिखायी दे रहा हो और बड़े ही परिश्रमसे बहुत उतावलीके साथ सात दिनोंमें ही जिसकी समाप्ति की जाय, वह प्रसन्नतापूर्वक किया हुआ श्रीमद्भागवतका सेवन ‘राजस’ है ॥ २५ ॥ एक या दो महीनेमें धीरे-धीरे कथाके रसका आस्वादन करते हुए बिना परिश्रमके जो श्रवण होता है, वह पूर्ण आनन्दको बढ़ानेवाला ‘सात्त्विक’ सेवन कहलाता है ॥ २६ ॥ तामस सेवन वह है जो कभी भूलसे छोड़ दिया जाय और याद आनेपर फिर आरम्भ कर दिया जाय, इस प्रकार एक वर्षतक आलस्य और अश्रद्धाके साथ चलाया जाय। यह ‘तामस’ सेवन भी न करनेकी अपेक्षा अच्छा और सुख ही देनेवाला है ॥ २७ ॥ जब वर्ष, महीना और दिनोंके नियमका आग्रह छोडक़र सदा ही प्रेम और भक्तिके साथ श्रवण किया जाय, तब वह सेवन ‘निर्गुण’ माना गया है ॥ २८ ॥ राजा परीक्षित्‌ और शुकदेवके संवादमें भी जो भागवतका सेवन हुआ था, वह निर्गुण ही बताया गया है। उसमें जो सात दिनोंकी बात आती है, वह राजाकी आयुके बचे हुए दिनोंकी संख्याके अनुसार है, सप्ताह-कथाका नियम करनेके लिये नहीं ॥ २९ ॥

भारतवर्षके अतिरिक्त अन्य स्थानोंमें भी त्रिगुण (सात्त्विक, राजस और तामस) अथवा निर्गुण- सेवन अपनी रुचिके अनुसार करना चाहिये। तात्पर्य यह कि जिस किसी प्रकार भी हो सके श्रीमद्भागवतका सेवन, उसका श्रवण करना ही चाहिये ॥ ३० ॥ जो केवल श्रीकृष्णकी लीलाओंके ही श्रवण, कीर्तन एवं रसास्वादनके लिये लालायित रहते और मोक्षकी भी इच्छा नहीं रखते, उनका तो श्रीमद्भागवत ही धन है ॥ ३१ ॥ तथा जो संसारके दु:खोंसे घबराकर अपनी मुक्ति चाहते हैं, उनके लिये भी यही इस भवरोगकी ओषधि है। अत: इस कलिकाल में इसका प्रयत्नपूर्वक सेवन करना चाहिये ॥ ३२ ॥ इनके अतिरिक्त जो लोग विषयोंमें ही रमण करनेवाले हैं, सांसारिक सुखोंकी ही जिन्हें सदा चाह रहती है, उनके लिये भी अब इस कलियुगमें सामर्थ्य, धन और विधि-विधानका ज्ञान न होनेके कारण कर्ममार्ग (यज्ञादि) से मिलनेवाली सिद्धि अत्यन्त दुर्लभ हो गयी है। ऐसी दशामें उन्हें भी सब प्रकारसे अब इस भागवतकथाका ही सेवन करना चाहिये ॥ ३३-३४ ॥ यह श्रीमद्भागवत- की कथा धन, पुत्र, स्त्री, हाथी-घोड़े आदि वाहन, यश, मकान और निष्कण्टक राज्य भी दे सकती है ॥ ३५ ॥ सकाम भावसे भागवतका सहारा लेनेवाले मनुष्य इस संसारमें मनोवाञ्छित उत्तम भोगोंको भोगकर अन्तमें श्रीमद्भागवतके ही सङ्गसे श्रीहरिके परमधामको प्राप्त हो जाते हैं ॥ ३६ ॥

जिनके यहाँ श्रीमद्भागवतकी कथा-वार्ता होती हो तथा जो लोग उस कथाके श्रवणमें लगे रहते हों, उनकी सेवा और सहायता अपने शरीर और धनसे करनी चाहिये ॥ ३७ ॥ उन्हींके अनुग्रहसे सहायता करनेवाले पुरुषको भी भागवतसेवन का पुण्य प्राप्त होता है। कामना दो वस्तुओंकी होती है—श्रीकृष्णकी और धनकी। श्रीकृष्णके सिवा जो कुछ भी चाहा जाय, यह सब धनके अन्तर्गत है; उसकी ‘धन’ संज्ञा है ॥ ३८ ॥ श्रोता और वक्ता भी दो प्रकारके माने गये हैं, एक श्रीकृष्णको चाहनेवाले और दूसरे धनको। जैसा वक्ता, वैसा ही श्रोता भी हो तो वहाँ कथामें रस मिलता है, अत: सुखकी वृद्धि होती है ॥ ३९ ॥ यदि दोनों विपरीत विचारके हों तो रसाभास हो जाता है, अत: फलकी हानि होती है। किन्तु जो श्रीकृष्णको चाहनेवाले वक्ता और श्रोता हैं, उन्हें विलम्ब होनेपर भी सिद्धि अवश्य मिलती है ॥ ४० ॥ पर धनार्थीको तो तभी सिद्धि मिलती है, जब उनके अनुष्ठानका विधि- विधान पूरा उतर जाय। श्रीकृष्णकी चाह रखनेवाला सर्वथा गुणहीन हो और उसकी विधिमें कुछ कमी रह जाय तो भी, यदि उसके हृदयमें प्रेम है तो, वही उसके लिये सर्वोत्तम विधि है ॥ ४१ ॥ सकाम पुरुषको कथाकी समाप्तिके दिनतक स्वयं सावधानीके साथ सभी विधियोंका पालन करना चाहिये। (भागवतकथाके श्रोता और वक्ता दोनोंके ही पालन करनेयोग्य विधि यह है—) प्रतिदिन प्रात:काल स्नान करके अपना नित्यकर्म पूरा कर ले। फिर भगवान्‌का चरणामृत पीकर पूजाके सामानसे श्रीमद्भागवतकी पुस्तक और गुरुदेव (व्यास)का पूजन करे। इसके पश्चात् अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक श्रीमद्भागवतकी कथा स्वयं कहे अथवा सुने ॥ ४२-४३ ॥ दूध या खीर का मौन भोजन करे। नित्य ब्रह्मचर्यका पालन और भूमिपर शयन करे, क्रोध और लोभ आदिको त्याग दे ॥ ४४ ॥ प्रतिदिन कथाके अन्तमें कीर्तन करे और कथासमाप्तिके दिन रात्रिमें जागरण करे। समाप्ति होनेपर ब्राह्मणोंको भोजन कराकर उन्हें दक्षिणासे सन्तुष्ट करे ॥ ४५ ॥ कथा-वाचक गुरुको वस्त्र, आभूषण आदि देकर गौ भी अर्पण करे। इस प्रकार विधि-विधान पूर्ण करनेपर मनुष्यको स्त्री, घर, पुत्र, राज्य और धन आदि जो-जो उसे अभीष्ट होता है, वह सब मनोवाञ्छित फल प्राप्त होता है। परन्तु सकामभाव बहुत बड़ी विडम्बना है, वह श्रीमद्भागवतकी कथामें शोभा नहीं देता ॥ ४६-४७ ॥ श्रीशुकदेवजीके मुखसे कहा हुआ यह श्रीमद्भागवतशास्त्र तो कलियुगमें साक्षात् श्रीकृष्णकी प्राप्ति करानेवाला और नित्य प्रेमानन्दरूप फल प्रदान करनेवाला है ॥ ४८ ॥

 

इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे

श्रीमद् भागवतमाहात्म्ये भागवत श्रोतृवक्तृ लक्षणविधिनिरूपणं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

 

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य समाप्त

 

 ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥



बुधवार, 19 मई 2021

कृष्णाय तुभ्यं नमः

 


कृष्णाय तुभ्यं नमः

 

वेदानुद्धरते जगन्निवहते भूगोलमुद्बिभ्रते

दैत्यान् दारयते बलिं छलयते क्षत्रक्षयं कुर्वते ।

पौलस्त्यं जयते हलं कलयते कारुण्यमातन्वते

म्लेच्छान् मूर्च्छयते दशाकृतिकृते कृष्णाय तुभ्यं नमः ।।

 

श्रीकृष्ण ! आपने मत्स्यरूप धारणकर प्रलयसमुद्रसे डूबे हुए वेदोंका उद्धार किया, समुद्र-मन्थनके समय महाकुर्म बनकर पृथ्वीमण्डलको पीठपर धारण किया, महावराहके रूपमें कारणार्णवमें डूबी हुई पृथ्वीका उद्धार किया, नृसिंहके रूपमें हिरण्यकशिपु आदि दैत्योंका विदारण किया, वामनके रूपमें राजा बलिको छला, परशुरामके रूपमें क्षत्रिय जातिका संहार किया, श्रीरामके रूपमें महावली रावणपर विजय प्राप्त की, श्रीबलरामके रूपमें हलको शस्त्ररूपमें धारण किया, भगवान् बुद्धके रूपमें करुणाका विस्तार किया था तथा कल्किके रूपमें म्लेच्छोंको मूर्छित करेंगे । इस प्रकार दशावतारके रूपमें प्रकट आपकी मैं वन्दना करता हूँ ।

(‘कल्याणपत्रिका; वर्ष ६६, संख्या २ : गीताप्रेस, गोरखपुर)



श्रीमद्भागवतमहापुराण-- श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्- तीसरा अध्याय


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्- तीसरा अध्याय

 

श्रीमद्भागवत की परम्परा और उसका माहात्म्य,

भागवतश्रवण से श्रोताओं को भगवद्धाम की प्राप्ति

 

 सूत उवाच -

 अयोद्धवस्तु तान् दृष्ट्वा कृष्णकीर्तनतत्परान् ।

 सत्कृत्याथ परिष्वज्य परीक्षितमुवाच ह ॥ १ ॥

 धन्योऽसि राजन् कृष्णैक भक्त्या पूर्णोऽसि नित्यदा ।

 यस्त्वं निमग्नचित्तोऽसि कृष्णसंङ्‌कीर्तनोत्सवे ॥ २ ॥

 कृष्णपत्‍नीषु वज्रे च दिष्ट्या प्रीतिः प्रवर्तिता ।

 तवोचितमिदं तात कृष्णदत्ताङ्‌गवैभव ॥ ३ ॥

 द्वारकास्थेषु सर्वेषु धन्या एते न संशयः ।

 येषां व्रजनिवासाय पार्थमादिष्टवान् प्रभुः ॥ ४ ॥

 श्रीकृष्णस्य मनश्चन्द्रो राधास्यप्रभयान्वितः ।

 तद् विहारवनं गोभिः मण्डयन् रोचते सदा ॥ ५ ॥

 कृष्णचन्द्रः सदा पूर्णः तस्य षोडश या कलाः ।

 चित्सहस्रप्रभभिन्ना अत्रास्ते तत्स्वरूपता॥ ६ ॥

 एवं वज्रस्तु राजेन्द्र प्रपन्नभयभञ्जकः ।

 श्रीकृष्णदक्षिणे पादे स्थानमेतस्य वर्तते ॥ ७ ॥

 अवतारेऽत्र कृष्णेन योगमायातिभाविताः ।

 तद्‌बलेनात्मविस्मृत्या सीदन्त्येते न संशयः ॥ ८ ॥

 ऋते कृष्णप्रकाशं तु स्वात्मुबोधो न कस्यचित् ।

 तत्प्रकाशस्तु जीवानां मायया पिहितः सदा ॥ ९ ॥

 अष्टाविंशे द्वापरान्ते स्वयमेव यदा हरिः ।

 उत्सारयेन्निजां मायां तत्प्रकाशो भवेत्तदा ॥ १० ॥

 स तु कालो व्यतिक्रान्तः तेनेदमपरं श्रृणु ।

 अन्यदा तत्प्रकाशस्तु श्रीमद् भागवताद् भवेत् ॥ ११ ॥

 श्रीमद् भागवतं शास्त्रं यत्र भागवतैर्यदा ।

 कीर्त्यते श्रूयते चापि श्रीकृष्णस्तत्र निश्चितम् ॥ १२ ॥

 श्रीमद् भागवतं यत्र श्लोकं श्लोकार्द्धमेव च ।

 तत्रापि भगवान् कृष्णो वल्लवीभिर्वराजते ॥ १३ ॥

 भारते पानवं जन्म प्राप्य भागवतं न यैः ।

 श्रुतं पापपराधीनैः आत्मघातस्तु तैः कृतः ॥ १४ ॥

 श्रीमद् भागवतं शास्त्र्॒अं नित्यं यैः परिसेवितम् ।

 पिर्मातुश्च भार्यायाः कुलपङ्‌क्तिः सुतारिता ॥ १५ ॥

 विद्याप्रकाशो विप्राणां राज्ञां शत्रुजयो विशाम् ।

 धनं स्वास्थ्यं च शूद्राणां श्रीमद् भागवताद् भवेत् ॥ १६ ॥

 योषितां अपरेषां च सर्ववाञ्छितपूरणम् ।

 अतो भागवतं नित्यं को न सेवेत भाग्यवान् ॥ १७ ॥

 अनेकजन्मसंसिद्धः श्रीम भागवतं लभेत् ।

 प्रकाशो भगवद्‌भक्तेः उद्‌भवस्तत्र जायते ॥ १८ ॥

 सांख्यायनप्रसादाप्तं श्रीमद्‌भागवतं पुरा ।

 बृहस्पतिर्दत्तवान् मे तेनाहं कृष्णवल्लभः ॥ १९ ॥

 अखायिकां च तेनोक्तां विष्णुरात निबोध ताम् ।

 ज्ञायते सम्प्रदायोऽपि यत्र भागवतश्रुतेः ॥ २० ॥

 

 बृहस्पतिरुवाच -

 ईक्षाञ्चक्रे यदा कृष्णो मायापुरुषरूपधृक् ।

 ब्रह्मा विष्णुः शिवश्चापि रजः सत्त्वतमोगुणैः ॥ २१ ॥

 पुरुषास्त्रय उत्तस्थुः अधिकारान् तदादिशत् ।

 उत्पत्तौ पालने चैव संहारे प्रक्रमेण तान् ॥ २२ ॥

 ब्रह्मा तु नाभिकमलात् उत्पन्नस्तं व्यजिज्ञपत् ।

 

 ब्रह्मोवाच -

 नारायणादिपुरुष परमात्मन् नमोऽस्तु ते ॥ २३ ॥

 त्वया सर्गे नियुक्तोऽस्मि पपीयान् मां रजोगुणः ।

 त्वत्स्मृतौ नैव बाधेत तथैव कृपया प्रभो ॥ २४ ॥

 

 बृहस्पतिरुवाच -

 यदा तु भगवान् तस्मै श्रीमद्‌भागवतं पुरा ।

 उपदिश्याब्रवीद् ब्रह्मन् सेवस्वैनत् स्वसिद्धये ॥ २५ ॥

 ब्रह्मा तु परमप्रीतः तेन कृष्णाप्तयेऽनिशम् ।

 सप्तावरणभङ्‌गाय सप्ताहं समवर्तयत् ॥ २६ ॥

 श्रीभागवतसप्ताह सेवनाप्तमनोरथः ।

 सृष्टिं वितनुते नित्यं ससप्ताहः पुनः पुनः ॥ २७ ॥

 विष्णुरप्यर्थयामास पुमांसं स्वार्थसिद्धये ।

 प्रजानां पालने पुंसा यदनेनापि कल्पितः ॥ २८ ॥

 

 विष्णुरुवाच -

प्रजानां पालनं देव करिष्यामि यथोचितम् ।

 प्रवृत्त्या च निवृत्त्या च कर्मज्ञानप्रयोजनात् ॥ २९ ॥

 यदा यदैव कालेन धर्मग्लानिर्भविष्यति ।

 धर्मं संस्थापयिष्यामि ह्यवतारैस्तदा तदा ॥ ३० ॥

 भोगार्थिभ्यस्तु यज्ञादि फलं दास्यामि निश्चितम् ।

 भोगार्थिभ्यो विरक्तेभ्यो मुक्तिं पञ्चविधां तथा ॥ ३१ ॥

 येऽपि मोक्षं न वाञ्छन्ति तान् कथं पालयाम्यहम् ।

 आत्मानं च श्रियं चापि पालयामि कथं वद ॥ ३२ ॥

 तस्मा अपि पुमानाद्यः श्रीभागवतमादिशत् ।

 उवाच च पठस्वैनत् तव सर्वार्थसिद्धये ॥ ३३ ॥

 ततो विष्णुः प्रसन्नात्मा परमार्थकपालने ।

 समर्थोऽभूच्छ्रिया मासि मासि भागवतं स्मरन् ॥ ३४ ॥

 यदा विष्णुः स्वयं वक्ता लक्ष्मीश्च श्रवणे रतः ।

 तदा भागवतश्रावो मासेनैव पुनः पुनः ॥ ३५ ॥

 यदा लक्ष्मीः स्वयं वक्त्री विष्णुश्च श्रवने रतः ।

 मासद्वयं रसास्वादः तदातीव सुशोभते ॥ ३६ ॥

 अधिकारे स्थितो विष्णूह् लक्ष्मीर्निश्चिन्तमानसा ।

 तेन भागवतास्वादः तस्या भूरि प्रकाशते ॥ ३७ ॥

 अथ रुद्रोऽपि तं देवं संहाराधिकृतः पुरा ।

 पुमांसं प्रार्थयामास स्वसामर्थ्यविवृद्धये ॥ ३८ ॥

 

 रुद्र उवाच -

 नित्ये नैमित्तिके चैव संहारे प्राकृते तथा ।

 शक्तयो मम विद्यन्ते देवदेव मम प्रभो ॥ ३९ ॥

 आत्यन्तिके तु संहारे मम शक्तिर्न विद्यते ।

 महद्‌दुःखं ममेतत्तु तेन त्वां प्रार्थयाम्यहम् ॥ ४० ॥

 

 बृहस्पतिरुवाच -

 श्रीमद् भागवतं तस्मा अपि नारायणो ददौ ।

 स तु संसेवनादस्य जिग्ये चापि तमोगुणम् ॥ ४१ ॥

 कथा भागवती तेने सेविता वर्षमात्रतः ।

 लये त्वात्यन्तिके तेनौ आप शक्तिं सदाशिवः ॥ ४२ ॥

 

 उद्धव उवाच -

 श्रीभागवतमाहात्म्य इमां आख्यायिकां गुरोः ।

 श्रुत्वा भागवतं लब्ध्वा मुमुदेऽहं प्रणम्य तम् ॥ ४३ ॥

 ततस्तु वैष्णवीं रीतिं गृहीत्वा मासमात्रतः ।

 श्रीमद् भागवतास्वादो मया सम्यङ्‍६निषेवितः ॥ ४४ ॥

 तावतैव बभूवाहं कृष्णस्य दयितः सखा ।

 कृष्णेनाथ नियुक्तोऽहं व्रजे स्वप्रेयसीगणे ॥ ४५ ॥

 विरहार्त्तासु गोपीषु स्वयं नित्यविहारिणा ।

 श्रीमागवतसन्देशो मन्मुखेन प्रयोजितः ॥ ४६ ॥

 तं यथामति लब्ध्वा ता आसन् विरहवर्जिताः ।

 नाज्ञासिषं रहस्यं तत् चमत्कारस्तु लोकितः ॥ ४७ ॥

 स्वर्वासं प्रार्थ्य कृष्णं च ब्रह्माद्येषु गतेषु मे ।

 श्रीमद्‌भागवते कृष्णः तद् रहस्यं स्वयं ददौ ॥ ४८ ॥

 पुरतोऽश्वत्थमूलस्य चकार मयि तद् दृढम् ।

 तेनात्र व्रजवल्लीषु वसामि बदरीं गतः ॥ ४९ ॥

 तस्मात् नारदकुण्डेऽत्र तिष्ठामि स्वेच्छया सदा ।

 कृष्णप्रकाशो भक्तानां श्रीमद्‌भागवताद् भवेत् ॥ ५० ॥

 तदेषामपि कार्यार्थं श्रीमद्‌भागवतं त्वहम् ।

 प्रवक्ष्यामि सहायोऽत्र त्वयैवानुष्ठितो भवेत् ॥ ५१ ॥

 

 सूत उवाच -

 विष्णुरातस्तु श्रुत्वा तद् उद्धवं प्रणतोऽब्रवीत् ।

 

 परीक्षिदुवाच -

 हरिदास त्वया कार्य श्रीभागवतकीर्तनम् ॥ ५२ ॥

 आज्ञाप्योऽहं यथा कार्यः सहायोऽत्र मया तथा ।

 

 सूत उवाच -

 श्रुत्वैतद् उद्धवो वाक्यं उवाच प्रीतमानसः ॥ ५३ ॥

 

 उद्धव उवाच -

 श्रीकृष्णेन परित्यक्ते भूतले बलवान कलिः ।

 करिष्यति परं विघ्नं सत्कार्ये समुपस्थिते ॥ ५४ ॥

 तस्माद् दिग्विजयं याहि कलिनिग्रहमाचर ।

 अहं तु मासमात्रेण वैष्णवीं रीतिमास्थितः ॥ ५५ ॥

 श्रीमद्‌भागवतास्वादं प्रचार्यं त्वत्सहायतः ।

 एतान् सम्प्रापयिष्यामि नित्यधाम्नि मधुद्विषः ॥ ५६ ॥

 

 सूत उवाच -

 श्रुत्वैवं तद्वचो राजा मुदितश्चिन्तयाऽऽतुरः ।

 तदा विज्ञापयामास स्वाभिप्रायं तमुद्धवम् ॥ ५७ ॥

 

 परीक्षिदुवाच -

 कलिं तु निग्रहीष्यामि तात ते वचसि स्थितः ।

 श्रीभागवतसम्प्राप्तिः कथं मम भविष्यति ॥ ५८ ॥

 अहं तु समनुग्राह्यः तव पादतले श्रितः ।

 

 सूत उवाच -

 श्रुत्वैतद् वचनं भूयोऽपि उद्धवस्तं उवाच ह ॥ ५९ ॥

 

 उद्धव उवाच -

 राजन् चिन्ता तु ते कापि नैव कार्या कथञ्चन ।

 तवैव भगवत् शास्त्रे यतो मुख्याधिकारिता ॥ ६० ॥

 एतावत् काल पर्यंतं प्रायो भागवतश्रुतेः ।

 वार्तामपि न जानन्ति मनुष्याः कर्मतत्पराः ॥ ६१ ॥

 त्वत्प्रसादेन बहवो मनुष्या भारताजिरे ।

 श्रीमद्भागवतप्राप्तौ सुखं प्राप्स्यन्ति शाश्वतम् ॥ ६२ ॥

 नन्दनन्दनरूपस्तु श्रीशुको भगवान् ऋषिः ।

 श्रीमद् भागवतं तुभ्यं श्रावयिष्यत्यसंशयम् ॥ ६३ ॥

 तेन प्राप्स्यसि राजन् त्वं नित्यं धाम व्रजेशितुः ।

 श्रीभागवतसञ्चारः ततो भुवि भविष्यति ॥ ६४ ॥

 तस्मात्त्वं गच्छ राजेन्द्र कलिनिग्रहमाचर ।

 

 सूत उवाच -

 इत्युक्तस्तं परिक्रम्य गतो राजा दिशां जये ॥ ६५ ॥

 वज्रस्तु निजराज्येशं प्रतिबाहुं विधाय च ।

 तत्रैव मातृभिः साकं तस्थौ भागवताशया ॥ ६६ ॥

 अथ वृन्दावने मासं गोवर्धनसमीपतः ।

 श्रीमद् भागवास्वादस्तु उद्धवेन प्रवर्तितः ॥ ६७ ॥

 तस्मिन् आस्वाद्यमाने तु सच्चिदानन्दरूपिणी ।

 प्रचकाशे हरेर्लीला सर्वतः कृष्ण एव च ॥ ६८ ॥

 आत्मानं च तदन्तःस्थं सर्वेऽपि ददृशुस्तदा ।

 वज्रस्तु दक्षिणे दृष्ट्वा कृष्णपादसरोप्रुहे ॥ ६९ ॥

 स्वात्मानं कृष्णवैधुर्यान् मुक्तस्तद्‌भुव्यशोभत ।

 ताश्च तन्मातरं कृष्णे रासरात्रिप्रकाशिनि ॥ ७० ॥

 चन्द्रे कलाप्रभारूपं आत्मानं वीक्ष्य विस्मिताः ।

 स्वप्रेष्ठविरहव्याधिविमुक्ताः स्वपदं ययुः ॥ ७१ ॥

 येऽन्ये च तत्र ते सर्वे नित्यलीलान्तरं गताः ।

 व्यावहारिकलोकेभ्यः सद्योऽदर्शनमागताः ॥ ७२ ॥

 गोवर्धननिकुञ्जेषु गोषु वृन्दावनादिषु ।

 नित्यं कृष्णेन मोदन्ते दृश्यन्ते प्रेमतत्परैः ॥ ७३ ॥

 

 सूत उवाच -

 ये एतां भगवत्‌प्राप्तिं श्रुणुयाच्चापि कीर्तयेत् ।

 तस्य वै भगवत् प्राप्तिः दुःखहानिश्च जायते ॥ ७४ ॥

 

सूतजी कहते हैं—उद्धवजीने वहाँ एकत्र हुए सब लोगोंको श्रीकृष्णकीर्तनमें लगा देखकर सभीका सत्कार किया और राजा परीक्षित्‌को हृदयसे लगाकर कहा ॥ १ ॥

उद्धवजीने कहा—राजन् ! तुम धन्य हो, एकमात्र श्रीकृष्णकी भक्तिसे ही पूर्ण हो ! क्योंकि श्रीकृष्ण-सङ्कीर्तनके महोत्सवमें तुम्हारा हृदय इस प्रकार निमग्र हो रहा है ॥ २ ॥ बड़े सौभाग्यकी बात है कि श्रीकृष्णकी पत्नियोंके प्रति तुम्हारी भक्ति और वज्रनाभपर तुम्हारा प्रेम है। तात ! तुम जो कुछ कर रहे हो, सब तुम्हारे अनुरूप ही है। क्यों न हो, श्रीकृष्णने ही तुम्हें शरीर और वैभव प्रदान किया है; अत: तुम्हारा उनके प्रपौत्रपर प्रेम होना स्वाभाविक ही है ॥ ३ ॥ इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि समस्त द्वारकावासियोंमें ये लोग सबसे बढक़र धन्य हैं, जिन्हें व्रजमें निवास करानेके लिये भगवान्‌ श्रीकृष्णने अर्जुनको आज्ञा की थी ॥ ४ ॥ श्रीकृष्णका मनरूपी चन्द्रमा राधाके मुखकी प्रभारूप चाँदनीसे युक्त हो उनकी लीलाभूमि वृन्दावनको अपनी किरणोंसे सुशोभित करता हुआ यहाँ सदा प्रकाशमान रहता है ॥ ५ ॥ श्रीकृष्णचन्द्र नित्य परिपूर्ण हैं, प्राकृत चन्द्रमाकी भाँति उनमें वृद्धि और क्षयरूप विकार नहीं होते। उनकी जो सोलह कलाएँ हैं, उनसे सहस्रों चिन्मय किरणें निकलती रहती हैं; इससे उनके सहस्रों भेद हो जाते हैं। इन सभी कलाओंसे युक्त, नित्य परिपूर्ण श्रीकृष्ण इस व्रजभूमिमें सदा ही विद्यमान रहते हैं; इस भूमिमें और उनके स्वरूपमें कुछ अन्तर नहीं है ॥ ६ ॥ राजेन्द्र परीक्षित्‌ ! इस प्रकार विचार करनेपर सभी व्रजवासी भगवान्‌के अङ्गमें स्थित हैं। शरणागतोंका भय दूर करनेवाले जो ये वज्र हैं, इनका स्थान श्रीकृष्णके दाहिने चरणमें है ॥ ७ ॥ इस अवतारमें भगवान्‌ श्रीकृष्णने इन सबको अपनी योगमायासे अभिभूत कर लिया है, उसीके प्रभावसे ये अपने स्वरूपको भूल गये हैं और इसी कारण सदा दुखी रहते हैं। यह बात निस्सन्देह ऐसी ही है ॥ ८ ॥ श्रीकृष्णका प्रकाश प्राप्त हुए बिना किसीको भी अपने स्वरूपका बोध नहीं हो सकता। जीवोंके अन्त:करणमें जो श्रीकृष्णतत्त्वका प्रकाश है, उसपर सदा मायाका पर्दा पड़ा रहता है ॥ ९ ॥ अट्ठाईसवें द्वापरके अन्तमें जब भगवान्‌ श्रीकृष्ण स्वयं ही सामने प्रकट होकर अपनी मायाका पर्दा उठा लेते हैं, उस समय जीवोंको उनका प्रकाश प्राप्त होता है ॥ १० ॥ किन्तु अब वह समय तो बीत गया; इसलिये उनके प्रकाशकी प्राप्तिके लिये अब दूसरा उपाय बतलाया जा रहा है, सुनो ! अट्ठाईसवें द्वापरके अतिरिक्त समयमें यदि कोई श्रीकृष्णतत्त्वका प्रकाश पाना चाहे, तो उसे वह श्रीमद्भागवतसे ही प्राप्त हो सकता है ॥ ११ ॥ भगवान्‌के भक्त जहाँ जब कभी श्रीमद्भागवत शास्त्रका कीर्तन और श्रवण करते हैं, वहाँ उस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण साक्षात्-रूपसे विराजमान रहते हैं ॥ १२ ॥ जहाँ श्रीमद्भागवतके एक या आधे श्लोकका ही पाठ होता है, वहाँ भी श्रीकृष्ण अपनी प्रियतमा गोपियोंके साथ विद्यमान रहते हैं ॥ १३ ॥ इस पवित्र भारतवर्षमें मनुष्यका जन्म पाकर भी जिन लोगोंने पापके अधीन होकर श्रीमद्भागवत नहीं सुना, उन्होंने मानो अपने ही हाथों अपनी हत्या कर ली ॥ १४ ॥ जिन बड़भागियोंने प्रतिदिन श्रीमद्भागवत शास्त्रका सेवन किया है, उन्होंने अपने पिता, माता और पत्नी—तीनोंके ही कुलका भलीभाँति उद्धार कर दिया ॥ १५ ॥ श्रीमद्भागवतके स्वाध्याय और श्रवणसे ब्राह्मणोंको विद्याका प्रकाश (बोध) प्राप्त होता है, श्रत्रियलोग शत्रुओंपर विजय पाते हैं, वैश्योंको धन मिलता है और शूद्र स्वस्थ—नीरोग बने रहते हैं ॥ १६ ॥ स्त्रियों तथा अन्त्यज आदि अन्य लोगोंकी भी इच्छा श्रीमद्भागवतसे पूर्ण होती है; अत: कौन ऐसा भाग्यवान् पुरुष है, जो श्रीमद्भागवतका नित्य ही सेवन न करेगा ॥ १७ ॥ अनेकों जन्मोंतक साधना करते-करते जब मनुष्य पूर्ण सिद्ध हो जाता है, तब उसे श्रीमद्भागवतकी प्राप्ति होती है । भागवतसे भगवान्‌का प्रकाश मिलता है, जिससे भगवद्भक्ति उत्पन्न होती है ॥ १८ ॥ पूर्वकालमें सांख्यायनकी कृपासे श्रीमद्भागवत बृहस्पतिजीको मिला और बृहस्पतिजीने मुझे दिया; इसीसे मैं श्रीकृष्णका प्रियतम सखा हो सका हूँ ॥ १९ ॥ परीक्षित्‌ ! बृहस्पतिजीने मुझे एक आख्यायिका भी सुनायी थी, उसे तुम सुनो। इस आख्यायिकासे श्रीमद्भागवत-श्रवणके सम्प्रदायका क्रम भी जाना जा सकता है ॥ २० ॥

बृहस्पतिजीने कहा था—अपनी मायासे पुरुषरूप धारण करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णने जब सृष्टिके लिये संकल्प किया, तब उनके दिव्य विग्रहसे तीन पुरुष प्रकट हुए। इनमें रजोगुणकी प्रधानतासे ब्रह्मा, सत्त्वगुणकी प्रधानतासे विष्णु और तमोगुणकी प्रधानतासे रुद्र प्रकट हुए। भगवान्‌ने इन तीनोंको क्रमश: जगत् की उत्पत्ति, पालन और संहार करनेका अधिकार प्रदान किया ॥ २१-२२ ॥ तब भगवान्‌ के नाभि-कमलसे उत्पन्न हुए ब्रह्माजीने उनसे अपना मनोभाव यों प्रकट किया।

ब्रह्माजीने कहा—परमात्मन् ! आप नार अर्थात् जलमें शयन करनेके कारण ‘नारायण’ नामसे प्रसिद्ध हैं, सबके आदिकारण होनेसे आदिपुरुष हैं; आपको नमस्कार है ॥ २३ ॥ प्रभो ! आपने मुझे सृष्टिकर्ममें लगाया है, मगर मुझे भय है कि सृष्टिकालमें अत्यन्त पापात्मा रजोगुण आपकी स्मृतिमें कहीं बाधा न डालने लग जाय। अत: कृपा करके ऐसी कोई बात बतायें, जिससे आपकी याद बराबर बनी रहे ॥ २४ ॥

बृहस्पतिजी कहते हैं—जब ब्रह्माजीने ऐसी प्रार्थना की, तब पूर्वकालमें भगवान्‌ने उन्हें श्रीमद्भागवतका उपदेश देकर कहा—‘ब्रह्मन् ! तुम अपने मनोरथकी सिद्धिके लिये सदा ही इसका सेवन करते रहो’ ॥ २५ ॥ ब्रह्माजी श्रीमद्भागवतका उपदेश पाकर बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने श्रीकृष्णकी नित्य प्राप्तिके लिये तथा सात आवरणोंका भंग करनेके लिये श्रीमद्भागवतका सप्ताह- पारायण किया ॥ २६ ॥ सप्ताह-यज्ञकी विधिसे सात दिनोंतक श्रीमद्भागवतका सेवन करनेसे ब्रह्माजीके सभी मनोरथ पूर्ण हो गये। इससे वे सदा भगवत्स्मरण-पूर्वक सृष्टिका विस्तार करते और बारंबार सप्ताह-यज्ञका अनुष्ठान करते रहते हैं ॥ २७ ॥ ब्रह्माजीकी ही भाँति विष्णुने भी अपने अभीष्ट अर्थकी सिद्धिके लिये उन परमपुरुष परमात्मासे प्रार्थना की; क्योंकि उन पुरुषोत्तमने विष्णुको भी प्रजा-पालनरूप कर्ममें नियुक्त किया था ॥ २८ ॥

विष्णुने कहा—देव ! मैं आपकी आज्ञाके अनुसार कर्म और ज्ञानके उद्देश्यसे प्रवृत्ति और निवृत्तिके द्वारा यथोचित रूपसे प्रजाओंका पालन करूँगा ॥ २९ ॥ कालक्रमसे जब-जब धर्मकी हानि होगी, तब-तब अनेकों अवतार धारण कर पुन: धर्मकी स्थापना करूँगा ॥ ३० ॥ जो भोगोंकी इच्छा रखनेवाले हैं, उन्हें अवश्य ही उनके किये हुए यज्ञादि कर्मोंका फल अर्पण करूँगा; तथा जो संसारबन्धनसे मुक्त होना चाहते हैं, विरक्त हैं, उन्हें उनके इच्छानुसार पाँच प्रकारकी मुक्ति भी देता रहूँगा ॥ ३१ ॥ परन्तु जो लोग मोक्ष भी नहीं चाहते, उनका पालन मैं कैसे करूँगा—यह बात समझमें नहीं आती। इसके अतिरिक्त मैं अपनी तथा लक्ष्मीजीकी भी रक्षा कैसे कर सकूँगा, इसका उपाय भी बताइये ॥ ३२ ॥

विष्णुकी यह प्रार्थना सुनकर आदिपुरुष श्रीकृष्णने उन्हें भी श्रीमद्भागवतका उपदेश किया और कहा—‘तुम अपने मनोरथकी सिद्धिके लिये इस श्रीमद्भागवत-शास्त्रका सदा पाठ किया करो’ ॥ ३३ ॥ उस उपदेशसे विष्णुभगवान्‌ का चित्त प्रसन्न हो गया और वे लक्ष्मीजीके साथ प्रत्येक मासमें श्रीमद्भागवतका चिन्तन करने लगे। इससे वे परमार्थका पालन और यथार्थरूपसे संसारकी रक्षा करनेमें समर्थ हुए ॥ ३४ ॥ जब भगवान्‌ विष्णु स्वयं वक्ता होते हैं और लक्ष्मीजी प्रेमसे श्रवण करती हैं, उस समय प्रत्येक बार भागवतकथाका श्रवण एक मासमें ही समाप्त होता है ॥ ३५ ॥ किन्तु जब लक्ष्मीजी स्वयं वक्ता होती हैं और विष्णु श्रोता बनकर सुनते हैं, तब भागवतकथाका रसास्वादन दो मासतक होता रहता है; उस समय कथा बड़ी सुन्दर, बहुत ही रुचिकर होती है ॥ ३६ ॥ इसका कारण यह है कि विष्णु तो अधिकारारूढ हैं, उन्हें जगत् के पालनकी चिन्ता करनी पड़ती है; पर लक्ष्मीजी इन झंझटोंसे अलग हैं, अत: उनका हृदय निश्चिन्त है। इसीसे लक्ष्मीजीके मुखसे भागवतकथाका रसास्वादन अधिक प्रकाशित होता है। इसके पश्चात् रुद्रने भी, जिन्हें भगवान्‌ने पहले संहारकार्यमें लगाया था, अपनी सामथ्र्यकी वृद्धिके लिये उन परमपुरुष भगवान्‌ श्रीकृष्णसे प्रार्थना की ॥ ३७-३८ ॥

रुद्रने कहा—मेरे प्रभु देवदेव ! मुझमें नित्य, नैमित्तिक और प्राकृत संहारकी शक्तियाँ तो हैं, पर आत्यन्तिक संहारकी शक्ति बिल्कुल नहीं है। यह मेरे लिये बड़े दु:खकी बात है। इसी कमीकी पूर्तिके लिये मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ ॥ ३९-४० ॥

बृहस्पतिजी कहते हैं—रुद्रकी प्रार्थना सुनकर नारायणने उन्हें भी श्रीमद्भागवतका ही उपदेश किया। सदाशिव रुद्रने एक वर्षमें एक पारायणके क्रमसे भागवतकथाका सेवन किया। इसके सेवनसे उन्होंने तमोगुणपर विजय पायी और आत्यन्तिक संहार (मोक्ष) की शक्ति भी प्राप्त कर ली ॥ ४१-४२ ॥

उद्धवजी कहते हैं—श्रीमद्भागवतके माहात्म्यके सम्बन्धमें यह आख्यायिका मैंने अपने गुरु श्रीबृहस्पतिजीसे सुनी और उनसे भागवतका उपदेश प्राप्त कर उनके चरणोंमें प्रणाम करके मैं बहुत ही आनन्दित हुआ ॥ ४३ ॥ तत्पश्चात् भगवान्‌ विष्णुकी रीति स्वीकार करके मैंने भी एक मासतक श्रीमद्भागवतकथाका भलीभाँति रसास्वादन किया ॥ ४४ ॥ उतनेसे ही मैं भगवान्‌ श्रीकृष्णका प्रियतम सखा हो गया। इसके पश्चात् भगवान्‌ने मुझे व्रजमें अपनी प्रियतमा गोपियोंकी सेवामें नियुक्त किया ॥ ४५ ॥ यद्यपि भगवान्‌ अपने लीलापरिकरोंके साथ नित्य विहार करते रहते हैं, इसलिये गोपियोंका श्रीकृष्णसे कभी भी वियोग नहीं होता; तथापि जो भ्रमसे विरहवेदनाका अनुभव कर रही थीं, उन गोपियोंके प्रति भगवान्‌ने मेरे मुखसे भागवतका सन्देश कहलाया ॥ ४६ ॥ उस सन्देशको अपनी बुद्धिके अनुसार ग्रहण कर गोपियाँ तुरन्त ही विरहवेदनासे मुक्त हो गयीं। मैं भागवतके इस रहस्यको तो नहीं समझ सका, किन्तु मैंने उसका चमत्कार प्रत्यक्ष देखा ॥ ४७ ॥ इसके बहुत समयके बाद जब ब्रह्मादि देवता आकर भगवान्‌ से अपने परमधाममें पधारनेकी प्रार्थना करके चले गये, उस समय पीपलके वृक्षकी जडक़े पास अपने सामने खड़े हुए मुझे भगवान्‌ने श्रीमद्भागवत-विषयक उस रहस्यका स्वयं ही उपदेश किया और मेरी बुद्धिमें उसका दृढ़ निश्चय करा दिया। उसीके प्रभावसे मैं बदरिकाश्रममें रहकर भी यहाँ व्रजकी लताओं और बेलोंमें निवास करता हूँ ॥ ४८-४९ ॥ उसीके बलसे यहाँ नारदकुण्डपर सदा स्वेच्छानुसार विराजमान रहता हूँ। भगवान्‌के भक्तोंको श्रीमद्भागवतके सेवनसे श्रीकृष्ण-तत्त्वका प्रकाश प्राप्त हो सकता है ॥ ५० ॥ इस कारण यहाँ उपस्थित हुए इन सभी भक्तजनोंके कार्यकी सिद्धिके लिये मैं श्रीमद्भागवतका पाठ करूँगा; किन्तु इस कार्यमें तुम्हें ही सहायता करनी पड़ेगी ॥ ५१ ॥

सूतजी कहते हैं—यह सुनकर राजा परीक्षित्‌ उद्धवजीको प्रणाम करके उनसे बोले।

परीक्षित्‌ने कहा—हरिदास उद्धवजी ! आप निश्चिन्त होकर श्रीमद्भागवत-कथाका कीर्तन करें ॥ ५२ ॥ इस कार्यमें मुझे जिस प्रकारकी सहायता करनी आवश्यक हो, उसके लिये आज्ञा दें।

सूतजी कहते हैं—परीक्षित्‌ का यह वचन सुनकर उद्धवजी मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए और बोले ॥ ५३ ॥

उद्धवजीने कहा—राजन् ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने जबसे इस पृथ्वीतलका परित्याग कर दिया है तबसे यहाँ अत्यन्त बलवान् कलियुगका प्रभुत्व हो गया है। जिस समय यह शुभ अनुष्ठान यहाँ आरम्भ हो जायगा, बलवान् कलियुग अवश्य ही इसमें बहुत बड़ा विघ्न डालेगा ॥ ५४ ॥ इसलिये तुम दिग्विजयके लिये जाओ और कलियुगको जीतकर अपने वशमें करो। इधर मैं तुम्हारी सहायतासे वैष्णवी रीतिका सहारा लेकर एक महीनेतक यहाँ श्रीमद्भागवतकथाका रसास्वादन कराऊँगा और इस प्रकार भागवतकथाके रसका प्रसार करके इन सभी श्रोताओंको भगवान्‌ मधुसूदनके नित्य गोलोकधाममें पहुँचाऊँगा ॥ ५५-५६ ॥

सूतजी कहते हैं—उद्धवजीकी बात सुनकर राजा परीक्षित्‌ पहले तो कलियुगपर विजय पानेके विचारसे बड़े ही प्रसन्न हुए; परन्तु पीछे यह सोचकर कि मुझे भागवतकथाके श्रवणसे वञ्चित रहना ही पड़ेगा, चिन्तासे व्याकुल हो उठे। उस समय उन्होंने उद्धवजीसे अपना अभिप्राय इस प्रकार प्रकट किया ॥ ५७ ॥

राजा परीक्षित्‌ने कहा—हे तात ! आपकी आज्ञाके अनुसार तत्पर होकर मैं कलियुगको तो अवश्य ही अपने वशमें करूँगा, मगर श्रीमद्भागवतकी प्राप्ति मुझे कैसे होगी ॥ ५८ ॥ मैं भी आपके चरणोंकी शरणमें आया हूँ, अत: मुझपर भी आपको अनुग्रह करना चाहिये।

सूतजी कहते हैं—उनके इस वचनको सुनकर उद्धवजी पुन: बोले ॥ ५९ ॥

उद्धवजीने कहा—राजन् ! तुम्हें तो किसी भी बातके लिये किसी प्रकार भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये; क्योंकि इस भागवतशास्त्रके प्रधान अधिकारी तो तुम्हीं हो ॥ ६० ॥ संसारके मनुष्य नाना प्रकारके कर्मोंमें रचे-पचे हुए हैं, ये लोग आजतक प्राय: भागवत-श्रवणकी बात भी नहीं जानते ॥ ६१ ॥ तुम्हारे ही प्रसादसे इस भारतवर्षमें रहनेवाले अधिकांश मनुष्य श्रीमद्भागवतकथाकी प्राप्ति होनेपर शाश्वत सुख प्राप्त करेंगे ॥ ६२ ॥ महर्षि भगवान्‌ श्रीशुकदेवजी साक्षात् नन्दनन्दन श्रीकृष्णके स्वरूप हैं, वे ही तुम्हें श्रीमद्भागवतकी कथा सुनायेंगे; इसमें तनिक भी सन्देहकी बात नहीं है ॥ ६३ ॥ राजन् ! उस कथाके श्रवणसे तुम व्रजेश्वर श्रीकृष्णके नित्यधामको प्राप्त करोगे। इसके पश्चात् इस पृथ्वीपर श्रीमद्भागवतकथाका प्रचार होगा ॥ ६४ ॥ अत: राजेन्द्र परीक्षित्‌ ! तुम जाओ और कलियुगको जीतकर अपने वशमें करो।

सूतजी कहते हैं—उद्धवजीके इस प्रकार कहनेपर राजा परीक्षित्‌ने उनकी परिक्रमा करके उन्हें प्रणाम किया और दिग्विजयके लिये चले गये ॥ ६५ ॥ इधर वज्रने भी अपने पुत्र प्रतिबाहुको अपनी राजधानी मथुराका राजा बना दिया और माताओंको साथ लेकर उसी स्थानपर, जहाँ उद्धवजी प्रकट हुए थे, जाकर श्रीमद्भागवत सुननेकी इच्छासे रहने लगे ॥ ६६ ॥ तदनन्तर उद्धवजीने वृन्दावनमें गोवर्धनपर्वतके निकट एक महीनेतक श्रीमद्भागवतकथाके रसकी धारा बहायी ॥ ६७ ॥ उस रसका आस्वादन करते समय प्रेमी श्रोताओंकी दृष्टिमें सब ओर भगवान्‌की सच्चिदानन्दमयी लीला प्रकाशित हो गयी और सर्वत्र श्रीकृष्णचन्द्रका साक्षात्कार होने लगा ॥ ६८ ॥ उस समय सभी श्रोताओंने अपने- को भगवान्‌के स्वरूपमें स्थित देखा। वज्रनाभने श्रीकृष्णके दाहिने चरणकमलमें अपनेको स्थित देखा और श्रीकृष्णके विरहशोकसे मुक्त होकर उस स्थानपर अत्यन्त सुशोभित होने लगे। वज्रनाभकी वे रोहिणी आदि माताएँ भी रासकी रजनीमें प्रकाशित होनेवाले श्रीकृष्णरूपी चन्द्रमाके विग्रहमें अपनेको कला और प्रभाके रूपमें स्थित देख बहुत ही विस्मित हुर्ईं तथा अपने प्राणप्यारेकी विरहवेदनासे छुटकारा पाकर उनके परमधाममें प्रविष्ट हो गयीं ॥ ६९—७१ ॥ इनके अतिरिक्त भी जो श्रोतागण वहाँ उपस्थित थे, वे भी भगवान्‌की नित्य अन्तरङ्गलीलामें सम्मिलित होकर इस स्थूल व्यावहारिक जगत्से तत्काल अन्तर्धान हो गये ॥ ७२ ॥ वे सभी सदा ही गोवर्धन-पर्वतके कुञ्ज और झाडिय़ोंमें, वृन्दावन-काम्यवन आदि वनोंमें तथा वहाँकी दिव्य गौओंके बीचमें श्रीकृष्णके साथ विचरते हुए अनन्त आनन्दका अनुभव करते रहते हैं। जो लोग श्रीकृष्णके प्रेममें मग्र हैं, उन भावुक भक्तोंको उनके दर्शन भी होते हैं ॥ ७३ ॥

सूतजी कहते हैं—जो लोग इस भगवत्प्राप्तिकी कथाको सुनेंगे और कहेंगे, उन्हें भगवान्‌ मिल जायँगे और उनके दु:खोंका सदाके लिये अन्त हो जायगा ॥ ७४ ॥

 

इति श्रीस्कान्दे महापुराण् एकशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे

परीक्षिद् उद्धवसंवादे श्रीमद् भागवतमाहात्म्ये तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०८) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन काल...