“कृष्णाय तुभ्यं नमः”
वेदानुद्धरते जगन्निवहते
भूगोलमुद्बिभ्रते
दैत्यान् दारयते बलिं
छलयते क्षत्रक्षयं कुर्वते ।
पौलस्त्यं जयते हलं कलयते
कारुण्यमातन्वते
म्लेच्छान् मूर्च्छयते दशाकृतिकृते
कृष्णाय तुभ्यं नमः ।।
श्रीकृष्ण ! आपने
मत्स्यरूप धारणकर प्रलयसमुद्रसे डूबे हुए वेदोंका उद्धार किया, समुद्र-मन्थनके समय महाकुर्म बनकर
पृथ्वीमण्डलको पीठपर धारण किया, महावराहके रूपमें
कारणार्णवमें डूबी हुई पृथ्वीका उद्धार किया, नृसिंहके रूपमें हिरण्यकशिपु आदि दैत्योंका विदारण किया,
वामनके रूपमें राजा बलिको छला, परशुरामके रूपमें क्षत्रिय जातिका संहार किया,
श्रीरामके रूपमें महावली रावणपर विजय प्राप्त
की, श्रीबलरामके रूपमें हलको
शस्त्ररूपमें धारण किया, भगवान् बुद्धके रूपमें
करुणाका विस्तार किया था तथा कल्किके रूपमें म्लेच्छोंको मूर्छित करेंगे । इस
प्रकार दशावतारके रूपमें प्रकट आपकी मैं वन्दना करता हूँ ।
(‘कल्याण’ पत्रिका; वर्ष – ६६, संख्या – २ : गीताप्रेस, गोरखपुर)
श्री हरि
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