शुक्रवार, 18 जून 2021

भिक्षु गीता (पोस्ट०३)


 

|| श्रीहरि: ||

 

भिक्षु गीता  (पोस्ट०३)

 

कालस्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चे-

त्किमात्मनस्तत्र तदात्मकोऽसौ

नाग्नेर्हि तापो न हिमस्य तत्स्यात्-

क्रुध्येत कस्मै न परस्य द्वन्द्वम्   ५६

न केनचित्क्वापि कथञ्चनास्य

द्वन्द्वोपरागः परतः परस्य

यथाहमः संसृतिरूपिणः स्या-

देवं प्रबुद्धो न बिभेति भूतैः ५७

एतां स आस्थाय परात्मनिष्ठा-

मध्यासितां पूर्वतमैर्महर्षिभिः

अहं तरिष्यामि दुरन्तपारं

तमो मुकुन्दाङ्घ्रिनिषेवयैव ५८

 

श्रीभगवानुवाच

 

निर्विद्य नष्टद्रविणे गतक्लमः

प्रव्रज्य गां पर्यटमान इत्थम्

निराकृतोऽसद्भिरपि स्वधर्मा-

दकम्पितोऽमूं मुनिराह गाथाम्   ५९

सुखदुःखप्रदो नान्यः पुरुषस्यात्मविभ्रमः

मित्रोदासीनरिपवः संसारस्तमसः कृतः ६०

तस्मात्सर्वात्मना तात निगृहाण मनो धिया

मय्यावेशितया युक्त एतावान्योगसङ्ग्रहः ६१

य एतां भिक्षुणा गीतां ब्रह्मनिष्ठां समाहितः

धारयञ्छ्रावयञ्छृण्वन्द्वन्द्वैर्नैवाभिभूयते   ६२

 

यदि ऐसा मानें कि काल ही सुख-दु:ख का कारण है, तो आत्मापर उसका क्या प्रभाव ? क्योंकि काल तो आत्मस्वरूप ही है। जैसे आग आगको नहीं जला सकती, और बर्फ बर्फको नहीं गला सकता, वैसे ही आत्मस्वरूप काल अपने आत्माको ही सुख-दु:ख नहीं पहुँचा सकता। फिर किसपर क्रोध किया जाय ? आत्मा शीत- उष्ण, सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंसे सर्वथा अतीत है ॥ ५६ ॥ आत्मा प्रकृतिके स्वरूप, धर्म, कार्य, लेश, सम्बन्ध और गन्धसे भी रहित है। उसे कभी कहीं किसीके द्वारा किसी भी प्रकारसे द्वन्द्वका स्पर्श ही नहीं होता। वह तो जन्म-मृत्युके चक्र में भटकने वाले अहङ्कार को ही होता है। जो इस बात को जान लेता है, वह फिर किसी भी भय के निमित्त से भयभीत नहीं होता ॥ ५७ ॥ बड़े-बड़े प्राचीन ऋषि-मुनियों ने इस परमात्मनिष्ठा का आश्रय ग्रहण किया है। मैं भी इसीका आश्रय ग्रहण करूँगा और मुक्ति तथा प्रेमके दाता भगवान्‌ के चरणकमलों की सेवाके द्वारा ही इस दुरन्त अज्ञान-सागरको अनायास ही पार कर लूँगा ॥ ५८ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी ! उस ब्राह्मणका धन क्या नष्ट हुआ, उसका सारा क्लेश ही दूर हो गया। अब वह संसारसे विरक्त हो गया था और संन्यास लेकर पृथ्वीमें स्वच्छन्द विचर रहा था। यद्यपि दुष्टोंने उसे बहुत सताया, फिर भी वह अपने धर्ममें अटल रहा, तनिक भी विचलित न हुआ। उस समय वह मौनी अवधूत मन-ही-मन इस प्रकारका गीत गाया करता था ॥ ५९ ॥ उद्धवजी ! इस संसार में मनुष्य को कोई दूसरा सुख या दु:ख नहीं देता, यह तो उसके चित्तका भ्रममात्र है। यह सारा संसार और इसके भीतर मित्र, उदासीन और शत्रु के भेद अज्ञानकल्पित हैं ॥ ६० ॥ इसलिये प्यारे उद्धव ! अपनी वृत्तियों को मुझ  में तन्मय कर दो और इस प्रकार अपनी सारी शक्ति लगाकर मनको वशमें कर लो और फिर मुझमें ही नित्ययुक्त होकर स्थित हो जाओ। बस, सारे योगसाधन  का इतना ही सार-संग्रह है ॥ ६१ ॥ यह भिक्षुक का गीत क्या है, मूर्तिमान् ब्रह्मज्ञान-निष्ठा ही है। जो पुरुष एकाग्रचित्त से इसे सुनता, सुनाता और धारण करता है वह कभी सुख-दु:खादि द्वन्द्वों के वशमें नहीं होता। उनके बीचमें भी वह सिंहके समान दहाड़ता रहता है ॥ ६२ ॥

 

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1536 (स्कन्ध 11/अध्याय 23) से



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