कामना और आवश्यकता (पोस्ट 01)
भगवान् ने गीता में कहा है‒‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः’ (गीता १५ । ७) । ‘इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है ।’ शरीर में तो
माता और पिता दोनों का अंश है, पर स्वयं में परमात्मा और प्रकृति दोनों का अंश नहीं है, प्रत्युत यह
केवल परमात्मा का ही शुद्ध अंश है‒‘ममैवांशः’। तात्पर्य है कि जैसे परमात्मा हैं,ऐसे ही उनका अंश जीवात्मा है
। गोस्वामीजी महाराज कहते हैं‒
ईस्वर अंस जीव अबिनासी ।
चेतन अमल सहज सुखरासी ॥
(मानस, उत्तर॰ ११७ । १)
अतः जैसे परमात्मा चेतन, निर्दोष और सहज सुखकी राशि हैं, ऐसे ही जीव भी चेतन, निर्दोष और सहज सुखकी राशि है । परन्तु परमात्मा का ऐसा अंश
होते हुए भी जीव माया के वश में हो जाता है‒‘सो मायाबस भयउ गोसाईं’ और प्रकृति में स्थित मन, इन्द्रियों को अपनी तरफ खींचने लगता है अर्थात् उनको अपना
और अपने लिये मानने लगता है‒‘मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति’ (गीता १५ । ७) ।
हम परमात्मा के अंश हैं तथा परमात्मा में स्थित हैं और शरीर प्रकृति का अंश है तथा
प्रकृति में स्थित है । परमात्मा में स्थित होते हुए भी हम अपने को शरीर में स्थित
मान लेते हैं‒यह कितनी बड़ी भूल है !
प्रकृति का अंश तो प्रकृति में ही स्थित रहता है, पर हम परमात्मा के अंश होते हुए भी परमात्मा में स्थित नहीं
रहते प्रत्युत स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर में स्थित हो जाते हैं, जो कि प्रकृति का
कार्य है । इस प्रकार प्रकृति को पकड़ने से ही जीव परमात्मा का अंश कहलाता है । अगर
प्रकृति को न पकड़े तो यह अंश नहीं है, प्रत्युत साक्षात् परमात्मा (ब्रह्म) ही है‒
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥
(गीता १३ । २२)
अनादित्वान्निर्गुणत्वात् परमात्मायमव्ययः ।
(गीता १३ । ३१)
प्रकृति को पकड़ने से जीव में संसार की भी इच्छा उत्पन्न हो गयी और परमात्मा की
भी इच्छा उत्पन्न हो गयी । प्रकृति के जड़-अंश की प्रधानता से संसार की इच्छा होती
है और परमात्मा के चेतन-अंश की प्रधानता से परमात्मा की इच्छा होती है । संसार की
इच्छा ‘कामना’ है और परमात्मा की
इच्छा ‘आवश्यकता’ है, जिसको मुमुक्षा, तत्त्व-जिज्ञासा
और प्रेम-पिपासा भी कह सकते हैं । आवश्यकता की तो पूर्ति होती है, पर कामना की
पूर्ति कभी किसी की हुई नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं ।
नारायण ! नारायण !!
------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‘सत्संग
मुक्ताहार’ पुस्तक’ से
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