सोमवार, 23 जनवरी 2023

मूर्ति पूजा (पोस्ट 02)

 श्री परमात्मने नम:

मन्दिर, मूर्ति या ग्रन्थ तो उपासना के साधन हैं। एकबार भारत में मैं एक महात्मा के पास जाकर वेद, बाइबल, कुरान आदिकी बातें करने लगा। पास ही एक पञ्चांग पड़ा हुआ था। महात्मा ने मुझसे कहा, ‘इसे जोरसे दबाओ,’ मैने उसे खूब दबाया। वे आश्चर्य से बोले कि, इसमें तो कई इंच जल बरसने का भविष्य है, परन्तु तुम्हारे इतना दबाने से तो जलकी एक बूंद भी नहीं निकली ।’ मैंने कहा, महाराज ! यह पञ्चाङ्ग जड़ पुस्तक है । इसपर उन्होंने कहा, ‘इसी तरह जिस मूर्ति या पुस्तक को तुम मानते हो, वह स्वयं कुछ नहीं करती परन्तु इष्ट मार्ग बतलाने में सहायक होती है।’ ईश्वररूप होजाना ही हिदुओंका अन्तिम लक्ष्य है। वेद कहते हैं कि बाह्य उपचारों से पूजा करना उन्नति का पहला सोपान है, प्रार्थना या भक्ति दूसरा और ईश्वर में तन्मय हो जाना तीसरा सोपान है । मूर्तिपूजक मूर्ति के सामने बैठकर प्रार्थना करता है--‘हे प्रभो ! मैं तुम्हें सूर्य चन्द्रमा या तारागणों का प्रकाश कैसे दिखलाऊं? वे सब तो तुम्हारे ही प्रकाश से प्रकाशमान हैं ।’ मूर्तिपूजक दूसरे साधनों से पूजा करनेवालेकी निन्दा नहीं करता । दूसरी सीढ़ी पर चढ़े हुए मनुष्य का पहली सीढ़ी के मनुष्य की निन्दा करना, एक युवक का बच्चे को देखकर उसकी हंसी उड़ाने के बराबर है !
मूर्ति का दर्शन करते ही यदि मनमें पवित्र भाव उत्पन्न होते हों तो मूर्ति-दर्शनमें पाप कैसा? दूसरे सोपानपर पहुंचा हुआ हिन्दू साधक पहले सोपानपर स्थित समाजकी निन्दा नहीं करता, वह यह नहीं समझता कि मैं पहले बुरा कर्म करता था। सत्यकी अर्धप्रकाशित कल्पनाको पारकर प्रकाश में पहुंचना ही हिन्दुका लक्ष्य है, वह अपनेको पापी नहीं समझता। हिन्दुओंका विश्वास है कि जीवमात्र पुण्यमय-पुण्यस्वरूप परमात्मा के अनन्त रूप हैं। जंगली जातियों के धर्म मार्ग से लेकर अद्वैत वेदान्ततक सभी मार्ग एक ही केन्द्रके समीप पहुंचते हैं। देश, काल और पात्रानुसार सभी मानवीय चेष्टाएं उस एक सत्यका पता लगाने के लिये ही हैं। कोई पहले कोई पीछे सभी उसी सत्यको प्राप्त करेंगे। हिन्दुओंका हठ नहीं है कि सब कोई हमारे विशिष्ट मतोंको ही मानें। दूसरे लोग चाहते हैं कि सब एक ही नापका अंगरखा पहनें, चाहे वह शरीरपर ठीक नहीं बैठता हो, परन्तु हिन्दु ऐसा नहीं समझते। प्रतिमा या पुस्तक मूलस्वरूपको दिखानेके संकेतमात्र हैं, यदि कोई उनका उपयोग न करे तो हिन्दु उसे मूर्ख या पापी नहीं समझते। जैसे एक सूर्यकी किरणें अनेक रंगोंके कांचोंमें भिन्न भिन्न वर्णकी दिखायी देती है, वैसे ही भिन्न भिन्न धर्म-सम्प्रदाय भी एक ही केन्द्र के भिन्न भिन्न मार्ग हैं-
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥
यद्याद्विभूतिमत्सत्वं श्रीमदूर्जितमेव च।
तत्तदेवावगच्छ्त्त्वं मम तेजोंशसम्भवम्‌॥
‘हे अर्जुन! मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं है। यह सम्पूर्ण विश्व सूत्रमें सूत्रके मणियोंकी भांति मुझमें गुथा है। जिन जिन वस्तुओंमें विभूति, कान्ति और बल है, उन उन वस्तुओंको मेरे ही तेजसे उत्पन्न हुई जान।’
अनेक युगों की परम्परासे निर्मित इस हिन्दु धर्म ने मानव जाति पर अनन्त उपकार किये हैं। हिन्दुओंके लिये पर-मत-असहिष्णुता कोई चीज ही नहीं है। ‘अविरोधी तु यो धर्मो सधर्मो मुनिपुंगव।’ यह हिन्दुओंका सिद्धान्त है। वे यह नहीं कहते कि मुक्ति हिन्दुओंको ही मिलेगी, शेष सब नरकमें जायंगे। महर्षि व्यासने कहा है कि भिन्न जाति और भिन्न धर्मके ऐसे बहुतसे लोग मैने देखे हैं जो पूर्णताको प्राप्त हो चुके थे।


( लेखक: स्वामी विवेकानन्द )
..........००३. ०८.फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७५७)


1 टिप्पणी:

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१) ध्रुवका वन-गमन मैत्रेय उवाच - सनकाद्या नारदश्च ऋभुर्...