या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि "जो सब भूत प्राणियोंके लिये रात्रि है, संयमी पुरुष उसमें जागता है और सब भूतप्राणी जिसमें जागते हैं, तत्त्वदर्शी मुनिके लिये वह रात्रि है।" अर्थात् साधारण भूतप्राणी और यथार्थ तत्त्वके जाननेवाले अन्तर्मुखी योगियोंके ज्ञानमें रातदिनका अन्तर है। साधारण संसारी-लोगोंकी स्थिति क्षणभंगुर विनाशशील सांसारिक भोगोंमें होती है, उल्लूके लिये रात्रीकी भाँति उनके विचारमें वही परम सुखकर हैं, परन्तु इसके विपरीत तत्त्वदर्शियों की स्थिति नित्य शुद्ध बोधस्वरूप परमानन्द में परमात्मा में होती है, उनके विचारमें सांसारिक विषयोंकी सत्ता ही नहीं है, तब उनमें सुखकी प्रतीति तो होती ही कहाँसे? इसीलिये सांसारिक मनुष्य जहां विषयोंके संग्रह और भोग में लगे रहते हैं,-उनका जीवन भोग-परायण रहता है, वहां तत्त्वज्ञ पुरुष न तो विषयोंकी कोई परवा करते हैं और न भोगों को कोई वस्तु ही समझते हैं। साधारण लोगों की दृष्टिमें ऐसे महात्मा मूर्ख और पागल जँचते हैं, परन्तु महात्माओंकी दृष्टिमें तो एक ब्रह्मकी अखण्ड सत्ता के सिवा मूर्ख-विद्वान् की कोई पहेली ही नहीं रह जाती। इसीलिये वे जगत् को सत्य और सुखरूप समझने वाले अविद्या के फन्देमें फँसकर रागद्वेषके आश्रयसे भोगों में रचे-पचे हुए लोगों को समय समयपर सावधान करके उन्हें जीवनका यथार्थ पथ दिखलाया करते हैं। ऐसे पुरुष जीवन-मत्यु दोनों से ऊपर उठे हुए होते हैं। अन्तर्जगत् में प्रविष्ट होकर दिव्यदृष्टि प्राप्त कर लेने के कारण इनकी दृष्टिमें बहिर्जगत् का स्वरूप कुछ विलक्षण ही हो जाता है। ऐसे ही महात्माओं के लिये भगवान् ने कहा है-
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥
‘सब कुछ एक वासुदेव ही है, ऐसा मानने-जाननेवाला महात्मा अति दुर्लभ है। ऐसे महात्मा देखते हैं कि ‘सारा जगत् केवल एक परमात्मा का ही विस्तार है, वही अनेक रूपों से इस संसार में व्यक्त हो रहे हैं। प्रत्येक व्यक्त वस्तुके अन्दर परमात्मा व्याप्त हैं। असल में व्यक्त वस्तु भी उस अव्यक्तसे भिन्न नहीं है। परम रहस्यमय वह एक परमात्मा ही अपनी लीलासे भिन्न भिन्न व्यक्तरूपों में प्रतिभासित हो रहे हैं, जिनको प्रतिभासित होते हैं, उनकी सत्ता भी उन परमात्मा से पृथक् नहीं है।’ ऐसे महात्मा ही परमात्मा की इस अद्भुत रहस्यमय पवित्र गीतोक्त घोषणा का पद पद पर प्रत्यक्ष करते हैं कि-
मया ततमिदं सर्वं जगद्व्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः॥
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः॥
‘मुझ सच्चिदान्दघन अव्यक्त परमात्मा से यह समस्त विश्व परिपूर्ण है, और ये समस्त भूत मुझमें स्थित हैं, परन्तु मैं उनमें नहीं हूं, ये समस्त भूत भी मुझ में स्थित नहीं हैं, मेरी योगमाया और प्रभाव को देख, कि समस्त भूतों का धारण पोषण करनेवाला मेरा आत्मा उन भूतों में स्थित नहीं है।’
शेष आगामी पोस्ट में ...................
...............००४. ०५. मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८६वि०. कल्याण (पृ० ७५९)
🌸🍂💐जय श्री हरि: !!🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय