|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
‘श्रीशेशयोर्भेदधी’‒(३) भगवान् विष्णु के भक्त हैं तो शंकर की निन्दा न करें । दोनों में भेद-बुद्धि न करें । भगवान् शंकर और विष्णु दो नहीं हैं‒
उभयोः प्रकृतिस्त्वेका प्रत्ययभेदेन भिन्नवद्भाति ।
कलयति कश्चिन्मूढो हरिहरभेदं विना शास्त्रम् ॥
भगवान् विष्णु और शंकर इन दोनों का स्वभाव एक है । परन्तु भक्तों के भावों के भेद से भिन्न की तरह दीखते हैं । इस वास्ते कोई मूढ़ दोनों का भेद करता है तो वह शास्त्र नहीं जानता । दूसरा अर्थ होता है ‘हृञ् हरणे’ धातु तो एक है पर प्रत्यय-भेद है । हरि और हर ऐसे प्रत्यय-भेद से भिन्न की तरह दीखते हैं । ‘हरि-हर’ के भेद को लेकर कलह करता है वह ‘विना शास्त्रम्’ पढ़ा लिखा नहीं है और ‘विनाशाय अस्त्रम्’‒अपना नाश करनेका अस्त्र है ।
भगवान् शंकर और विष्णु इन दोनों का आपस में बड़ा प्रेम है । गुणों के कारण से देखा जाय तो भगवान् विष्णु का सफेद रूप होना चाहिये और भगवान् शंकर का काला रूप होना चाहिये; परन्तु भगवान् विष्णु का श्याम वर्ण है और भगवान् शंकर का गौर वर्ण है, बात क्या है । भगवान् शंकर ध्यान करते हैं भगवान् विष्णु का और भगवान् विष्णु ध्यान करते हैं भगवान् शंकर का । ध्यान करते हुए दोनों का रंग बदल गया । विष्णु तो श्यामरूप हो गये और शंकर गौर वर्णवाले हो गये‒‘कर्पूरगौरं करुणावतारम् ।’
अपने ललाटपर भगवान् राम के धनुषका तिलक करते हैं शंकर और शंकर के त्रिशूल का तिलक करते हैं रामजी । ये दोनों आपस में एक-एक के इष्ट हैं । इस वास्ते इनमें भेद-बुद्धि करना, तिरस्कार करना, अपमान करना बड़ी गलती है । इससे भगवन्नाम महाराज रुष्ट हो जायँगे । इस वास्ते भाई,भगवान् के नाम से लाभ लेना चाहते हो तो भगवान् विष्णु में और शंकर में भेद मत करो ।
कई लोग बड़ी-बड़ी भेद-बुद्धि करते हैं । जो भगवान् कृष्ण के भक्त हैं, भगवान् विष्णु के भक्त हैं, वे कहते हैं कि हम शंकर का दर्शन ही नहीं करेंगे । यह गलती की बात है । अपने तो दोनों का आदर करना है । दोनों एक ही हैं । ये दो रूप से प्रकट होते हैं‒‘सेवक स्वामि सखा सिय पी के ।’
‘अश्रद्धा श्रुतिशास्त्रदैशिकगिराम्’‒वेद, शास्त्र और सन्त-महापुरुषोंके वचनोंमें अश्रद्धा करना अपराध है ।
(४) जब हम नाम-जप करते हैं तो हमारे लिये वेदों के पठन-पाठन की क्या आवश्यकता है ? वैदिक कर्मों की क्या आवश्यकता है । इस प्रकार वेदों पर अश्रद्धा करना नामापराध है ।
(५) शास्त्रों ने बहुत कुछ कहा है । कोई शास्त्र कुछ कहता है तो कोई कुछ कहता है । उनकी आपस में सम्मति नहीं मिलती । ऐसे शास्त्रों को पढ़ने से क्या फायदा है ? उनको पढ़ना तो नाहक वाद-विवाद में पड़ना है । इस वास्ते नाम-प्रेमी को शास्त्रों का पठन-पाठन नहीं करना चाहिये, इस प्रकार शास्त्रों में अश्रद्धा करना नामापराध है ।
नारायण ! नारायण !!
(शेष आगामी पोस्ट में)
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “भगवन्नाम” पुस्तकसे
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