नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः।
स्थावरं जंगमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्॥४८॥
अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले।
भूचराः खेचराश्चैव जलजाश्चोपदेशिकाः॥४९॥
सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा।
अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः॥५०॥
ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः।
ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः॥५१॥
नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते।
मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम्॥५२॥
यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभूतले।
जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा॥५३॥
यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम्।
तावत्तिष्ठति मेदिन्यां संततिः पुत्रपौत्रिकी॥५४॥
देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम्।
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः॥५५॥
लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते॥ॐ॥५६॥
मकरी,चेचक और कोढ़ आदि उसकी सम्पूर्ण व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं । कनेर,भाँग,अफीम,धतूरे आदि का स्थावर विष , साँप और बिच्छू अदि के काटने से चढ़ा हुआ जंगम विष तथा अहिफेन और तेल के सन्योग आदि से बननेवाली कृत्रिम विष – ये सभी प्रकार के विष दूर हो जाते हैं , उनका कोई असर नहीं होता ॥४८॥ इस पृथ्वी पर मारण–मोहन आदि जितने आभिचारिक प्रयोग होते हैं तथा इस प्रकार के जितने मंत्र- यंत्र होते हैं , वे सब इस कवच को हृदय में धारण कर लेनेपर उस मनुष्यको देखते ही नष्ट हो जाते हैं । ये ही नहीं , पृथ्वीपर विचरनेवाले ग्रामदेवता , आकाशचारी देवविशेष , जल के सम्बन्ध से प्रकट होनेवाले गण , उपदेशमात्र से सिद्ध होनेवाले निम्नकोटि के देवता अपने जन्म के साथ प्रकट होनेवाले देवता , कुल देवता, माला ( कण्ठमाला आदि ) , डाकिनी , शाकिनी , अंतरिक्ष में विचरनेवाली अत्यंत बलवती भयानक डाकिनियाँ , ग्रह , भूत, पिशाच , यक्ष , गंधर्व , राक्षस , ब्रह्मराक्षस , बेताल , कूष्माण्ड और भैरव आदि अनिष्टकारक देवता भी हृदय में कवच धारण किये रहनेपर उस मनुष्य को देखते ही भाग जाते हैं। कवचधारी पुरुष को राजा से सम्मान - वृद्धि प्राप्त होती है । यह कवच मनुष्य के तेज की वृद्धि करनेवाला और उत्तम है ॥४९ - ५२॥ कवच का पाठ करनेवाला पुरुष अपनी कीर्ति से विभूषित भूतल पर अपने सुयश के साथ- साथ वृद्धि को प्राप्त होता है । जो पहले कवच का पाठ करके उसके बाद सप्तशती चण्डी का पाठ करता है , उसकी जब तक वन ,पर्वत और काननों सहित यह पृथ्वी टिकी रहती है , तब तक यहाँ पुत्र-पौत्र आदि संतान परम्परा बनी रहती है ॥५३ - ५४॥ फिर देहका अंत होनेपर वह पुरुष भगवती महामाया के प्रसाद से उस नित्य परमपद को प्राप्त होता है,जो देवताओं के लिये भी दुर्लभ है ॥५५॥ वह सुंदर दिव्य रूप धारण करता और कल्याणमय शिव के साथ आनन्द का भागी होता है ॥५६॥
॥ इति देव्याः कवचं संपूर्णम् ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
..........गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक (कोड 1281) से
Jay mata di
जवाब देंहटाएंजय हो करुणामयी जगत जननी मां
जवाब देंहटाएं🌼🍂🥀🙏🙏🙏🙏🌹🪷🌹