बुधवार, 14 जून 2023

गीता में भगवान्‌ की न्यायकारिता और दयालुता (पोस्ट०१)

!! जय श्रीहरि :!!



संसारे यो दयालुश्च न्यायकारी भवेन्न सतः ।
कृष्णे  दयालुता  चैव  वर्तेते  न्यायकारिता ॥

 जहाँ न्याय किया जाता है, वहाँ दया नहीं हो सकती और जहाँ दया की जाती है, वहाँ न्याय नहीं हो सकता । कारण कि जहाँ न्याय किया जाता है, वहाँ शुभ- अशुभ कर्मों के अनुसार पुरस्कार अथवा दण्ड दिया जाता है; और जहाँ दया की जाती है, वहाँ दोषी के अपराध को माफ कर दिया जाता है, उसको दण्ड नहीं दिया जाता । तात्पर्य है कि न्याय करना और दया करना‒ये दोनों आपस में विरोधी हैं । ये दोनों एक जगह रह नहीं सकते । जब ऐसी ही बात है तो फिर भगवान्‌ में न्यायकारिता और दयालुता‒दोनों कैसे हो सकते हैं ? परन्तु यह अड़चन वहाँ आती है, जहाँ कानून (विधान) बनाने वाला निर्दयी हो । जो दयालु हो, उसके बनाये गये कानून में न्याय और दया‒दोनों रहते हैं । उसके द्वारा किये गये न्याय में भी दयालुता रहती है और उसके द्वारा की गयी दया में भी न्यायकारिता रहती है । भगवान् सम्पूर्ण प्राणियों के सुहृद् है‒‘सहृद सर्वभूतानाम्’ (५ । २९); अतः उनके बनाये हुए विधान में दयालुता और न्यायकारिता‒दोनों रहती हैं ।

शेष आगामी पोस्ट  में............

.......गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘गीता-दर्पण’ पुस्तक से


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