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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
नवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
गर्गजी
की आज्ञासे देवक का वसुदेवजी के साथ देवकी का विवाह करना;
बिदाई के समय आकाशवाणी सुनकर कंस का देवकी को मारने के लिये उद्यत
होना और वसुदेवजी की शर्त पर उसे जीवित छोड़ना
कुसंगनिष्ठोऽतिखलो
हि कंसो
हंतुं स्वसारं धिषणां चकार ।
कचे गृहीत्वा शितखड्गपाणि-
र्गतत्रपो निर्दय उग्रकर्मा ॥१४॥
वादित्रकारा रहिता बभूवु-
रग्रे स्थिताः स्युश्चकिता हि पश्चात् ।
सर्वेषु वा श्वेतमुखेषु सत्सु
शौरिस्तमाहाऽऽशु सतां वरिष्ठः ॥१५॥
श्रीवसुदेव उवाच -
भोजेन्द्र भोजकुलकीर्तिकरस्त्वमेव
भौमादिमागधबकासुरवत्सबाणैः ।
श्लाघ्या गुणास्तव युधि प्रतियोद्धुकामैः
स त्वं कथं तु भगिनीमसिनात्र हन्याः ॥१६॥
ज्ञात्वा स्त्रियं किल बकीं प्रतियोद्धुकामां
युद्धं कृतं न भवता नृपनीतिवृत्त्या ।
सा तु त्वयापि भगिनीव कृता प्रशांत्यै
साक्षादियं तु भगिनी किमु ते विचारात् ॥१७॥
उद्वाहपर्वणि गता च तवानुजा च
बाला सुतेव कृपणा शुभदा सदैषा ।
योग्योऽसि नात्र मथुराधिप हंतुमेनां
त्वं दीनदुःखहरणे कृतचित्तवृत्तिः ॥१८॥
श्रीनारद उवाच -
नामन्यतेत्थं प्रतिबोधितोऽपि
कुसङ्गनिष्ठोऽतिखलो हि कंसः ।
तदा हरेः कालगतिं विचार्य
शौरिः प्रपन्नं पुनराह कंसम् ॥१९॥
श्रीवसुदेव उवाच -
नास्यास्तु ते देव भयं कदाचि-
द्यद्देववाण्या कथितं च तच्छृणु ।
पुत्रान् ददामीति यतो भयं स्या-
न्मा ते व्यथाऽस्याः प्रसवप्रजातात् ॥२०॥
श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा स निश्चित्य वचोऽथ शौरेः
कंसः प्रशंस्याऽऽशु गृहं गतोऽभूत् ।
शौरिस्तदा देवकराजपुत्र्या
भयावृतः सन् गृहमाजगाम ॥२१॥
कंस
सदा दुष्टों का ही साथ करता था। स्वभाव से भी वह अत्यन्त खल (दुष्ट) था । लज्जा तो
उसे छू नहीं गयी थी । वह निर्दय होनेके कारण बड़े भयंकर कर्म कर डालता था। उसने
तीखी धारवाली तलवार हाथमें उठा ली, बहिन-
के केश पकड़ लिये और उसे मारनेका निश्चय कर लिया। उस समय बाजेवालोंने बाजे बंद कर
दिये। जो आगे थे, वे चकित होकर पीछे देखने लगे। सबके मुँहपर
मुर्दनी छा गयी। ऐसी स्थितिमें सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ श्रीवसुदेवजीने कंससे कहा ॥।
१४ -१५॥
श्रीवसुदेवजी
बोले- भोजेन्द्र ! आप इस वंशकी कीर्तिका विस्तार करनेवाले हैं। भौमासुर,
जरासंध, बकासुर, वत्सासुर
और बाणासुर - सभी योद्धा आपसे लड़नेके लिये युद्धभूमिमें आये; किंतु उन्होंने आपकी प्रशंसा ही की। वे ही आप तलवारसे बहिनका वध करनेको
कैसे उद्यत हो गये ? बकासुर- की बहिन पूतना आपके पास आकर
लड़नेकी इच्छा करने लगी; किंतु आपने राजनीतिके अनुरूप बर्ताव
करनेके कारण स्त्री समझकर उसके साथ युद्ध नहीं किया। उस समय शान्ति स्थापनके लिये
आपने पूतनाको बहिनके तुल्य बनाकर छोड़ दिया। फिर यह तो आपकी साक्षात् बहिन है। किस
विचार से आप इस अनुचित कृत्य में लग गये ? ॥१६-१७॥
मथुरानरेश
! यह कन्या यहाँ विवाहके शुभ अवसरपर आयी है। आपकी छोटी बहिन है। बालिका है।
पुत्रीके समान दयनीय- दयापात्र है। यह सदा आपको सद्भावना प्रदान करती आयी है। अतः
इसका वध करना आपके लिये कदापि उचित नहीं है। आपकी चित्तवृत्ति तो दीनदुखियों के
दुःख दूर करने में ही लगी रहती है ॥१८॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार वसुदेवजीके समझानेपर भी अत्यन्त खल और कुसङ्गी कंसने
उनकी बात नहीं मानी। तब वसुदेवजी, यह भगवान् का
विधान है, अथवा कालकी ऐसी ही गति है—यह समझकर भगवत्-शरणापन्न
हो, पुनः कंस से बोले ॥ १९ ॥
श्रीवसुदेवजीने
कहा- राजन् ! इस देवकी से तो आपको कभी भय है नहीं । आकाशवाणीने जो कुछ कहा है,
उसके विषय में मेरा विचार सुनिये। मैं इसके गर्भ से उत्पन्न सभी
पुत्र आपको दे दूँगा; क्योंकि उन्हींसे आपको भय है । अतः
व्यथित न होइये ॥ २० ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- मिथिलेश ! कंसने वसुदेवजीके निश्चयपूर्वक कहे गये वचनपर विश्वास कर
लिया। अतः उनकी प्रशंसा करके वह उसी क्षण घरको चला गया। इधर वसुदेवजी भी भयभीत हो
देवकी के साथ अपने भवन को पधारे ॥ २१ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'वसुदेवके विवाहका वर्णन' नामक नवाँ अध्याय पूरा हुआ
॥ ९ ॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260
से
💐🌿🕉️जय श्री हरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण