श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
तीसरा अध्याय ( पोस्ट
01 )
श्रीयमुनाजी का
गोलोक से अवतरण और पुनः गोलोकधाम में प्रवेश
सन्नन्द
उवाच -
गोलोके हरिणाऽऽज्ञप्ता कालिन्दी सरितां वरा ।
कृष्णं प्रदक्षिणीकृत्य गन्तुमभ्युद्यताभवत् ॥ १ ॥
तदैव विरजा साक्षाद्गङ्गा ब्रह्मद्रवोद्भवा ।
द्वे नद्यौ यमुनायां तु संप्रलीने बभूवतुः ॥ २ ॥
परिपूर्णतमां कृष्णां तस्मात् कृष्णस्य नन्दराट् ।
परिपूर्णतमस्यापि पट्टराज्ञीं विदुर्जनाः ॥ ३ ॥
ततो वेगेन महता कालिन्दी सरितां वरा ।
बिभेद विरजावेगं निकुंजद्वारनिर्गता ॥ ४ ॥
असंख्यब्रह्मांडचयं स्पृष्ट्वा ब्रह्मद्रवं गता ।
भिन्दन्ती तज्जलं दीर्घं स्ववेगेन महानदी ॥ ५ ॥
वामपादांगुष्ठनखभिन्नब्रह्मांडमस्तके ।
श्रीवामनस्य विवरे ब्रह्मद्रवसमाकुले ॥ ६ ॥
तस्मिन् श्रीगंगया सार्धं प्रविष्टाऽभूत्सरिद्वरा ।
वैकुंठं चाजितपदं संप्राप्य ध्रुवमंडले ॥ ७ ॥
ब्रह्मलोकमभिव्याप्य पतन्ती ब्रह्ममंडलात् ।
ततः सुराणां शतशो लोकाल्लोकं जगाम ह ॥ ८ ॥
ततः पपात वेगेन सुमेरुगिरिमूर्धनि ।
गिरिकूटानतिक्रम्य भित्त्वा गंडशिलातटान् ॥ ९ ॥
सुमेरोर्दक्षिणदिशं गन्तुमभ्युदिताभवत् ।
ततः श्रीयमुना साक्षाच्छ्रीगंगायां विनिर्गता ॥ १० ॥
गंगा तु प्रययौ शैलं हिमवन्तं महानदी ।
कृष्णा तु प्रययौ शैलं कलिन्दं प्राप्य सा तदा ॥ ११ ॥
कालिंदीति समाख्याता कालिंदप्रभवा यदा ।
कलिंदगिरिसानूनां गंडशैलतटान् दृढान् ॥ १२ ॥
भित्त्वा लुठन्ती भूखंडे कृष्णा वेगवती सती ।
देशान्पुनन्ती कालिन्दी प्राप्तवान् खांडवे वने ॥ १३ ॥
सन्नन्दजी
कहते हैं- नन्दराज ! गोलोकमें श्रीहरिने जब यमुनाजीको भूतलपर जानेकी आज्ञा दी और
सरिताओंमें श्रेष्ठ यमुना जब श्रीकृष्णकी परिक्रमा करके जानेको उद्यत हुईं,
उसी समय विरजा तथा ब्रह्मद्रवसे उत्पन्न साक्षात् गङ्गा—ये दोनों
नदियाँ आकर यमुनाजीमें लीन हो गयीं। इसीलिये परिपूर्णतमा कृष्णा (यमुना) को
परिपूर्णतम श्रीकृष्णकी पटरानीके रूपमें लोग जानते हैं। तदनन्तर सरिताओंमें
श्रेष्ठ कालिन्दी अपने महान् वेगसे विरजाके वेगका भेदन करके निकुञ्ज-द्वार से
निकलीं और असंख्य ब्रह्माण्ड- समूहों का स्पर्श करती हुई ब्रह्मद्रव में गयीं ।। १-४ ॥
फिर
उसकी दीर्घ जलराशिका अपने महान् वेगसे भेदन करती हुई वे महानदी श्रीवामनके बायें
चरणके अंगूठेके नखसे विदीर्ण हुए ब्रह्माण्डके शिरोभागमें विद्यमान
ब्रह्मद्रवयुक्त विवरमें श्रीगङ्गा के साथ ही प्रविष्ट हुईं और वहाँसे वे सरिद्वरा
यमुना ध्रुवमण्डल में स्थित भगवान् अजित विष्णुके धाम वैकुण्ठलोक में होती हुई
ब्रह्मलोकको लाँघकर जब ब्रह्ममण्डलसे नीचे गिरीं, तब देवताओंके सैकड़ों लोकोंमें एक-से दूसरेके क्रमसे विचरती हुई आगे बढ़ीं
।। ५-८ ॥
तदनन्तर
वे सुमेरुगिरि के शिखरपर बड़े वेग से गिरी और अनेक शैल-शृङ्गों को लाँघकर
बड़ी-बड़ी चट्टानों के तटों का भेदन करती हुई जब मेरुपर्वत से दक्षिण दिशा की ओर
जाने को उद्यत हुईं, तब यमुनाजी गङ्गा से
अलग हो गयीं । महानदी गङ्गा तो हिमवान् पर्वतपर चली गयीं, किंतु
कृष्णा (श्यामसलिला यमुना ) कलिन्द-शिखर- पर जा पहुँचीं। वहाँ जाकर उस पर्वतसे
प्रकट होनेके कारण उनका नाम 'कालिन्दी' हो गया ।। ९-११ ॥
कलिन्दगिरि
के शिखरों से टूटकर जो बड़ी-बड़ी चट्टानें पड़ी थीं, उनके सुदृढ़ तटों को तोड़ती-फोड़ती और भूखण्डपर लोटती हुई वेगवती कृष्णा
कालिन्दी अनेक देशों को पवित्र करती हुई खाण्डववन में (इन्द्रप्रस्थ या दिल्ली के
पास) जा पहुँचीं ।। १२-१३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
💐💖🌷💐जय श्री हरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव
जय हो श्री कृष्ण पटरानी मां यमुना जी महारानी🙏🙏🙏