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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
बीसवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
दुर्वासाद्वारा
भगवान् की माया का एवं गोलोक में श्रीकृष्ण का दर्शन तथा श्रीनन्दनन्दनस्तोत्र
श्रीकृष्णास्यापि
हसतः प्रविष्टस्तन्मुखे मुनिः ।
पुनर्विनिर्गतोऽपश्यद्बालं श्रीनंदनंदनम् ॥२१॥
कालिंदीनिकटे पुण्ये सैकते रमणस्थले ।
बालकैः सहितं कृष्णं विचरंतं महावने ॥२२॥
तदा मुनिश्च दुर्वासा ज्ञात्वा कृष्णं परात्परम् ।
श्रीनंदनंदनं नत्वा नत्वा प्राह कृतांजलिः ॥२३॥
मुनिरुवाच -
बालं नवीनशतपत्रविशालनेत्रं
बिंबाधरं सजलमेघरुचिं मनोज्ञम् ।
मंदस्मितं मधुरसुंदरमंदयानं
श्रीनंदनंदनमहं मनसा नमामि ॥२४॥
मंजीरनूपुररणन्नवरत्नकांची
श्रीहारकेसरिनखप्रतियंत्रसंघम् ।
दृष्ट्याऽऽर्तिहारिमषिबिन्दुविराजमानं
वंदे कलिंदतनुजातटबालकेलिम् ॥२५॥
पूर्णेन्दुसुंदरमुखोपरि कुंचिताग्राः
केशा नवीनघननीलनिभाः स्फुरंति ।
राजंत आनतशिरःकुमुदस्य यस्य
नंदात्मजाय सबलाय नमो नमस्ते ॥२६॥
श्रीनंदनंदनस्तोत्रं प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
तन्नेत्रगोचरो याति सानंदं नंदनंदनः ॥२७॥
श्रीनारद उवाच -
इति प्रणम्य श्रीकृष्णं दुर्वासा मुनिसत्तमः ।
तं ध्यायन्प्रजपन्प्रागाद्बदर्याश्रममुत्तमम् ॥२८॥
इत्थं देवर्षिवर्येण नारदेन महात्मना ।
कथितं कृष्नचरितं बहुलाश्वाय धीमते ॥२९॥
मया थे कथितं ब्रह्मन् यशः कलिमलापहम् ।
चतुष्पदार्थदं दिव्यं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥३०॥
श्री शौनक उवाच -
बहुलाश्वो मैथिलेंद्रः किं पप्रच्छ महामुनिम् ।
नारदं ज्ञानदं शांतं तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥३१॥
श्रीगर्ग उवाच -
नारदं ज्ञानदं नत्वा मानदो मैथिलो नृपः ।
पुनः पप्रच्छ कृष्णस्य चरितं मंगलायनम् ॥३२॥
श्रीबहुलाश्व उवाच -
श्रीकृष्णो भगवान्साक्षात्परमानंदविग्रहं ।
परं चकार किं चित्रं चरित्रं वद मे प्रभो ॥३३॥
पूर्वावतारैश्चरितं कृतं वै मंगलायनम् ।
अपरं किं तु कृष्णस्य पवित्रं चरितं परम् ॥३४॥
श्रीनारद उवाच -
साधु साधु त्वया पृष्टं चरित्रं मंगलं हरेः ।
तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि वृंदारण्ये च यद्यशः ॥३५॥
इदं गोलोकखंडं च गुह्यं परममद्भुतं ।
श्रीकृष्णेन प्रकथितं गोलोके रासमंडले ॥३६॥
निकुंजे राधिकायै च राधा मह्यं ददाविदम् ।
मया तुभ्यं श्रावितं च दत्तं सर्वार्थदं परम् ॥३७॥
इदं पठित्वा विप्रस्तु सर्वशास्त्रार्थगो भवेत् ।
श्रुत्वेदं चक्रवर्ती स्यात् क्षत्रियश्चंडविक्रमः ॥३८॥
वैश्यो निधिपतिर्भूयाच्छूद्रो मुच्येत बंधनात् ।
निष्कामो योऽपि जगति जीवन्मुक्तः स जायते ॥३९॥
यो नित्यं पठते सम्यग्भक्तिभावसमन्वितः ।
स गच्छेत्कृष्णचंद्रस्य गोलोकं प्रकृतेः परम् ॥४०॥
उन्हें
देखकर भगवान् श्रीकृष्ण हँसने लगे । हँसते समय उनके श्वाससे खिंचकर दुर्वासा मुनि
उनके मुँहके भीतर पहुँच गये। उस मुखसे पुनः बाहर निकलनेपर उन्होंने उन्हीं
बालरूपधारी श्रीनन्दनन्दनको देखा, जो कालिन्दीके
निकटवर्ती पुण्य वालुकामय रमणस्थलीमें बालकोंके साथ विचर रहे थे। महावनमें
श्रीकृष्णका उस रूपमें दर्शन करके दुर्वासा मुनि यह समझ गये कि ये श्रीकृष्ण
साक्षात् परात्पर ब्रह्म हैं । फिर तो उन्होंने श्रीनन्दनन्दनको बार-बार नमस्कार
करके हाथ जोड़कर कहा ।। २१ - २३ ॥
श्रीमुनि
बोले- जिसके नेत्र नूतन विकसित शतदल कमलके समान विशाल हैं,
अधर बिम्बा- फलकी अरुणिमाको तिरस्कृत करनेवाले हैं तथा श्रीअङ्ग सजल
जलधरकी श्याममनोहर कान्तिको छीने लेते हैं, जिनके मुखपर मन्द
मुसकानकी दिव्य छटा छा रही है तथा जो सुन्दर मधुर मन्दगतिसे चल रहे हैं, उन बाल्यावस्थासे विलसित मनोज्ञ श्रीनन्दनन्दनको मैं मनसे प्रणाम करता हूँ
॥ २४॥
जिनके
चरणोंमें मञ्जीर और नूपुर झंकृत हो रहे हैं और कटिमें खनखनाती हुई नूतन
रत्ननिर्मित काञ्ची (करधनी) शोभा दे रही है; जो
बघनखासे युक्त यन्त्रसमुदाय तथा सुन्दर कण्ठहारसे सुशोभित हैं, जिनके भालदेशमें दृष्टि-जनित पीड़ा हर लेनेवाली कज्जलकी बेंदी शोभा दे रही
है तथा जो कलिन्दनन्दिनीके तटपर बालोचित क्रीड़ामें संलग्न हैं, उन श्रीहरिकी मैं वन्दना करता हूँ। ॥ २५॥
जिनके
पूर्णचन्द्रोपम सुन्दर मुखपर नूतन नीलघनकी श्याम विभाको तिरस्कृत करनेवाले
घुँघराले काले केश चमक रहे हैं, तथा जिनका
मस्तकरूपी मुकुद कुछ झुका हुआ है। उन आप नन्दनन्दन श्रीकृष्ण तथा आपके अग्रज
श्रीबलरामको मेरा बारंबार नमस्कार है । जो प्रातः काल उठकर इस 'श्रीनन्दनन्दनस्तोत्र' का पाठ करता है, उसके नेत्रोंके समक्ष श्रीनन्दनन्दन
सानन्द
प्रकट होते हैं ।। २६ - २७ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं - इस प्रकार श्रीकृष्णको प्रणाम करके मुनिशिरोमणि दुर्वासा उन्हींका
ध्यान और जप करते हुए उत्तर में बदरिकाश्रम की ओर चले गये ।। २८ ।
श्रीगर्गजी
कहते हैं- शौनक ! इस प्रकार देवर्षिप्रवर महात्मा नारदने बुद्धिमान् राजा
बहुलाश्वको भगवान् श्रीकृष्णका चरित्र सुनाया था । ब्रह्मन् ! वह सब मैंने तुमसे
कह सुनाया । भगवान्का सुयश कलिकलुषका विनाश करनेवाला,
धर्म, अर्थ, काम और
मोक्ष-चारों पदार्थोंको देनेवाला तथा दिव्य (लोकातीत) है। अब तुम और क्या सुनना
चाहते हो ? ।। २९-३० ।।
शौनक
बोले– तपोधन ! इसके बाद मिथिलानरेश बहुलाश्वने शान्तस्वरूप,
ज्ञानदाता महामुनि नारदसे क्या पूछा, वही
प्रसङ्ग मुझसे कहिये ॥ ३१ ॥ श्रीगर्गजीने कहा— शौनक !
ज्ञानदाता
नारदजीको नमस्कार करके मानदाता मैथिलनरेशने पुनः उनसे श्रीकृष्णचरित्रके विषयमें,
जो मङ्गलका धाम है, प्रश्न किया ॥ ३२ ॥
श्रीबहुलाश्वने
पूछा – प्रभो ! परमानन्दविग्रह इसका पाठ करता है, वह जीवन्मुक्त हो जाता है। जो साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णने इसके बाद और
कौन- सम्यक् भक्तिभावसे युक्त हो नित्य इसका पाठ करता कौन-सी विचित्र लीलाएँ कीं,
यह मुझे बताइये। पूर्वके अवतारोंद्वारा भी मङ्गलमय चरित्र सम्पादित हुए
हैं। इस श्रीकृष्णावतारके द्वारा इसके बाद और कौन-कौन-से पवित्र चरित्र किये गये,
यह सब बताइये ।। ३३-३४ ।।
श्रीनारदजीने
कहा- राजन् ! तुम्हें अनेक साधुवाद हैं; क्योंकि
तुमने श्रीहरिके मङ्गलमय चरित्रके विषयमें प्रश्न किया है। वृन्दावनमें जो उनकी
यशोवर्धक लीलाएँ हुई हैं, उनका मैं वर्णन करूँगा ।। ३५ ।।
यह
गोलोकखण्ड अत्यन्त गोपनीय और परम अद्भुत है। गोलोकके रासमण्डलमें साक्षात्
श्रीकृष्णने इसका वर्णन किया था। इसे श्रीकृष्णने निकुञ्जमें राधिकाको सुनाया और
श्रीराधाने मुझे इसका ज्ञान प्रदान किया है। फिर मैंने तुमको वह सब सुना दिया। यह
गोलोकखण्डका वृत्तान्त सम्पूर्ण पदार्थोंको देनेवाला उत्कृष्ट साधन है। यदि
ब्राह्मण इसका पाठ करता है। तो वह सम्पूर्ण शास्त्रोंके अर्थका ज्ञाता होता है,
क्षत्रिय इसे सुने तो वह प्रचण्ड पराक्रमी चक्रवर्ती सम्राट् होता
है, वैश्य सुने तो वह निधिपति हो जाय और शूद्र सुने तो वह
संसारके बन्धनसे छुटकारा पा जाय ।। ३६-३८ ।।
जो
इस जगत् में फलकी कामनासे रहित होकर इसका पाठ करता है,
वह भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके गोलोकधाममें, जो प्रकृतिसे
परे है, पहुँच जाता है । ।। ३५–४० ।।
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'दुर्वासाके द्वारा भगवान् की माया का दर्शन तथा श्रीनन्दनन्दनस्तोत्रका
वर्णन' नामक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🌺💟🌹🥀जय श्री हरि:🙏
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्री गोविंदाय नमो नमः