शनिवार, 20 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) चौदहवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

चौदहवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )

 

कालिय का गरुड के भय से बचने के लिये यमुना-जल में निवास का रहस्य

 

राजोवाच –

द्वीपे रमणके ब्रह्मन् सर्पान् अन्यान्विना कथम् ।
एतन्मे ब्रूहि सकलं कालियस्याभवद्‌भयम् ॥ १ ॥


श्रीनारद उवाच -
तत्र नागान्तको नित्यं नागसंघं जघान ह ।
गतक्षोभं चैकदा ते तार्क्ष्यं प्राहुर्भयातुराः ॥ २ ॥


नागाः ऊचुः -
हे गरुत्मन् नमस्तुभ्यं त्वं साक्षाद्‌विष्णुवाहनः ।
अस्मानत्सि यदा सर्पान् कथं नो जीवनं भवेत् ॥ ३ ॥
तस्माद्‌बलिं गृहाणाशु मासे मासे गृहात्पृथक् ।
वनस्पतिसुधान्नानां उपचारैर्विधानतः ॥ ४ ॥


गरुड उवाच -
एकः सर्पस्तु मे देयोभवद्‌भिर्वा गृहात्पृथक् ।
कथं पचामि तमृते बलिं वीटकवत्परम् ॥ ५ ॥


श्रीनारद उवाच -
तथास्तु चोक्तास्ते सर्वे गरुडाय महात्मने ।
गोपीथायात्मजो राजन् नित्यं दिव्यं बलिं ददुः ॥ ६ ॥
कालियस्य गृहस्यापि समयोऽभूद्‌यदा नृप ।
तदा तार्क्ष्यबलिं सर्वं बुभुजे कालियो बलात् ॥ ७ ॥
तदाऽऽगतः प्रकुपितो वेगतः कालियोपरि ।
चकार पादविक्षेपं गरुडश्चंडविक्रमः ॥ ८ ॥
गरुडांघ्रिप्रहारेण कालियो मूर्छितोऽभवत् ।
पुनरुत्थाय जिह्वाभिः प्रावलीढन् मुखं श्वसन् ॥ ९ ॥
प्रसार्य स्वं फणशतं कालियः फणिनां वरः ।
व्यदशद्‌गरुडं वेगाद्दद्‌भिर्विषमयैर्बली ॥ १० ॥
गृहीत्वा तं च तुंडेन गरुडो दिव्यवाहनः ।
भूपृष्ठे पोथयामास पक्षाभ्यां ताडयन्मुहुः ॥ ११ ॥
तुण्डाद्‌विनिर्गतः सर्पः तत्पक्षान्विचकर्ष ह
तत्पादौ वेष्टयंस्तुद्यन् फूत्कारं व्यदधन्मुहुः ॥ १२ ॥

तार्क्ष्यपक्षौ च पतितौ भूमध्ये द्वौ विरेजतु: ।

एकेन ब्रह्मिणोऽभूवन् नीलकंठा द्वितीयत: ॥ १३ ॥

 तेषां तु दर्शनं पुण्यं सर्वकामफलप्रदम् ।
शुक्लपक्षे मैथिलेंद्र दशम्यामाश्विनस्य तत् ॥ १४ ॥
कुपितो गरुडस्तं वै नीत्वा तुंडेन कालियम् ।
निपात्य भूम्यां सहसा तत्तनुं विचकर्ष ह ॥ १५ ॥
तदा दुद्राव तत्तुंडात् कालियो भयविह्वह्लः ।
तमन्वधावत् सहसा पक्षिराट् चंडविक्रमः ॥ १६ ॥
सप्त द्वीपान् सप्तखंडान् सप्तसिंधूंस्ततः फणी ।
यत्र यत्र गतस्तार्क्ष्यं तत्र तत्र ददर्श ह ॥ १७ ॥
भूर्लोकं च भुवर्लोकं स्वर्लोकं प्रगतः फणी ।
महर्लोकं ततो धावन् जनलोकं जगाम ह ॥ १८ ॥
यत्रैव गरुडे प्राप्तेऽ धोऽधो लोकं पुनर्गतः ।
श्रीकृष्णस्य भयात्केऽपि रक्षां तस्य न संदधुः ॥ १९ ॥
कुत्रापि न सुखे जाते कालियोऽपि भयातुरः ।
जगाम देवदेवस्य शेषस्य चरणांतिके ॥ २० ॥
नत्वा प्रणम्य तं शेषं परिक्रम्य कृतांजलिः ।
दीनो भयातुरः प्राह दीर्घपृष्ठ प्रकंपितः ॥ २१ ॥

 

राजा बहुलाश्वने पूछा- ब्रह्मन् ! रमणकद्वीपमें रहनेवाले अन्य सर्पोंको छोड़कर केवल कालियनाग- को ही गरुडसे भय क्यों हुआ ? यह सारी बात आप मुझे बताइये ॥ १ ॥

 

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! रमणकद्वीपमें नागोंका विनाश करनेवाले गरुड प्रतिदिन जाकर बहुत-से नागोंका संहार करते थे। अतः एक दिन भयसे व्याकुल हुए वहाँके सपने उस द्वीपमें पहुँचे हुए क्षुब्ध गरुडसे इस प्रकार कहा ॥ २ ॥

 

नाग बोले- हे गरुत्मन् ! तुम्हें नमस्कार है। तुम साक्षात् भगवान् विष्णुके वाहन हो। जब इस प्रकार हम सर्पोंको खाते रहोगे तो हमारा जीवन कैसे सुरक्षित रहेगा। इसलिये प्रत्येक मासमें एक बार पृथक्-पृथक् एक-एक घरसे एक सर्पकी बलि ले लिया करो । उसके साथ वनस्पति तथा अमृतके समान मधुर अन्नकी सेवा भी प्रस्तुत की जायगी। यह सब विधानके अनुसार तुम शीघ्र स्वीकार करो ॥ ३-४ ॥

 

गरुडजी बोले- आपलोग एक-एक घरसे एक-एक नागकी बलि प्रतिदिन दिया करें; अन्यथा सर्पके बिना दूसरी वस्तुओंकी बलिसे मैं कैसे पेट भर सकूँगा ? वह तो मेरे लिये पानके बीड़ेके तुल्य होगी ॥ ५

 

नारदजी कहते हैं- राजन् ! उनके यों कहनेपर सब सपने आत्मरक्षाके लिये एक-एक करके उन महात्मा गरुडके लिये नित्य दिव्य बलि देना आरम्भ किया ॥ ६ ॥

 

नरेश्वर ! जब कालियके घरसे बलि मिलनेका अवसर आया, तब उसने गरुडको दी जानेवाली बलिकी सारी वस्तुएँ बलपूर्वक स्वयं ही भक्षण कर लीं। उस समय प्रचण्ड पराक्रमी गरुड बड़े रोषमें भरकर आये। आते ही उन्होंने कालियनागके ऊपर अपने पंजेसे प्रहार किया। गरुडके उस पाद-प्रहारसे कालिय मूर्च्छित हो गया। फिर उठकर लंबी साँस लेते और जिह्वाओं से मुँह चाटते हुए नागोंमें श्रेष्ठ बलवान् कालियने अपने सौ फण फैलाकर विषैले दाँतोंसे गरुडको वेगपूर्वक डँस लिया ॥ ९-१०

 

तब दिव्य वाहन गरुड- ने उसे चोंच में पकड़कर पृथ्वीपर दे मारा और पाँखों से बारंबार पीटना आरम्भ किया । गरुड की चोंच से निकल कर सर्पने उनके दोनों पंजों को आवेष्टित कर लिया और बारंबार फुंकार करते हुए उनकी पाँखोंको खींचना आरम्भ किया ॥ ११-१२

 

उस समय उनकी पाँखसे दो पक्षी उत्पन्न हुए — नीलकण्ठ और मयूर । मिथिलेश्वर ! आश्विन शुक्ला दशमीको उन पक्षियोंका दर्शन पवित्र एवं सम्पूर्ण मनोवाञ्छित फलोंका देनेवाला माना गया है ॥ १३-१४

 

रोष से भरे हुए गरुड ने पुनः कालिय को चोंच से पकड़कर पृथ्वी पर पटक दिया और सहसा वे उसके शरीर को घसीटने लगे। तब भयसे विह्वल हुआ कालिय गरुडकी चोंचसे छूटकर भागा। प्रचण्ड पराक्रमी पक्षिराज गरुड भी सहसा उसका पीछा करने लगे । सात द्वीपों, सात खण्डों और सात समुद्रोंतक वह जहाँ-जहाँ गया, वहाँ-वहाँ उसने गरुडको पीछा करते देखा । वह नाग भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक और महर्लोकमें क्रमशः जा पहुँचा और वहाँसे भागता हुआ जनलोकमें पहुँच गया ॥ १५-१८

 

जहाँ जाता, वहीं गरुड भी पहुँच जाते । इसलिये वह पुनः नीचे-नीचेके लोकोंमें क्रमशः गया; किंतु श्रीकृष्ण (भगवान् विष्णु) के भयसे किसीने उसकी रक्षा नहीं की। जब उसे कहीं भी चैन नहीं मिली, तब भयसे व्याकुल कालिय देवाधिदेव शेषके चरणोंके निकट गया और भगवान् शेषको प्रणाम करके परिक्रमापूर्वक हाथ जोड़ विशाल पृष्ठवाला कालिय दीन, भयातुर और कम्पित होकर बोला ॥ १९- २

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 



1 टिप्पणी:

  1. 💐🌺🌼💐जय श्री हरि:🙏🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव
    🪷ॐ नमो नारायण 🪷

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