सोमवार, 15 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

बारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )

 

श्रीकृष्णद्वारा कालियदमन तथा दावानल-पान

 

बलं विनाथ गोपालैश् चारयन् गा हरिः स्वयम् ।
कालिन्दीकूलमागत्य ययौ वारिविषावृतम् ॥ १ ॥
कालियेन फणीन्द्रेण जलं यत्र विदूषितम् ।
पीत्वा निपेतुर्वसवो गावो गोपा जलान्तिके ॥ २ ॥
तदा तान् जीवयामास दृष्ट्या पीयूषपूर्णया ।
आर्द्रचित्तो हरिः साक्षाद्‌भगवान् वृजिनार्दनः ॥ ३ ॥
कटौ पीतपटं बद्ध्वा नीपमारुह्य माधवः ।
पपातोत्तुंगविटपात्तत्तोये विषदूषिते ॥ ४ ॥
उच्चचाल जलं दुष्टं कृष्णसंघातघूर्णितम् ।
तत्सर्पमन्दिरे नद्यां भृंगीभूतं बभूव ह ॥ ५ ॥
तदैव कालियः क्रुद्धः फणी फणशतावृतः ।
दशन्दन्तैश्च भुजया चच्छाद नृप माधवम् ॥ ६ ॥
कृष्णो दीर्घं वपुः कृत्वा बन्धनान्निर्गतश्च तम् ।
पुच्छे गृहीत्वा सर्पेंद्रं भ्रामयित्वा त्वितस्ततः ॥ ७ ॥
जलेनिपात्य हस्ताभ्यां चिक्षेपाशु धनुःशतम् ।
पुनरुत्थाय सर्पेन्द्रो लेलिहानो भयंकरः ॥ ८ ॥
वामहस्ते हरिं सर्पो रुषा जग्राह माधवम् ।
हरिर्दक्षिणहस्तेन गृहीत्वा तं महाखलम् ॥ ९ ॥
तज्जले पोथयामास सुपर्ण इव पन्नगम् ।
सर्पो मुखशतं दीर्घं प्रसार्य पुनरागतः ॥ १० ॥
पुच्छे गृहीत्वा तं कृष्णः चकर्षाशु धनुःशतम् ।
कृष्णहस्ताद्‌विनिष्क्रम्य सर्पस्तं व्यदशत्पुनः ॥ ११ ॥
तताड मुष्टिना सर्पं त्रैलोक्यबलधारकः ।
कृष्णमुष्टिप्रहारेण मूर्च्छितो विगतस्मृतिः ॥ १२ ॥
नतं कृत्वाऽऽननशतं स्थितोऽभूत् कृष्णसंमुखे ।
आरुह्य तत्फणिशतं मणिवृन्दमनोहरम् ॥ १३ ॥
ननर्त नटवत्कृष्णो नटवेषो मनोहरः ।
गायन् सप्तस्वरै रागं संगीतं च सतालकम् ॥ १४ ॥
पुष्पैर्देवेषु वर्षत्सु तांडवे नटराजवत् ।
वादयन् स मुदा वीणाऽऽनकदुन्दुभिवेणुकान् ॥ १५ ॥
सतालं पदविन्यासैस्तत्फणां सोज्ज्वलान् बहून् ।
बभंज श्वसतः कृष्णः कालियस्य महात्मनः ॥ १६ ॥
तदैव नागपत्‍न्यस्ता आगता भयविह्वलाः ।
नत्वा कृष्णपदं देवमूचुर्गद्‌गदया गिरा ॥ १७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! एक दिन बलरामजीको साथमें लिये बिना ही श्रीहरि स्वयं ग्वाल- बालोंके साथ गाय चराने चले आये। यमुनाके तटपर आकर उन्होंने उस विषाक्त जलको पी लिया, जिसे नागराज कालियने अपने विषसे दूषित कर दिया था। उस जलको पीकर बहुत-सी गायें और गोपगण प्राणहीन होकर पानीके निकट ही गिर पड़े। यह देख सर्वपापहारी साक्षात् भगवान् श्रीहरिका चित्त दयासे द्रवित हो उठा। उन्होंने अपनी पीयूषपूर्ण दृष्टिसे देखकर उन सबको जीवित कर दिया ॥ १-३

 

इसके बाद पीताम्बर को कमर में कसकर बाँध लिया। फिर वे माधव तटवर्ती कदम्ब वृक्षपर चढ़ गये और उसकी ऊँची डाल से उस विष-दूषित जलमें कूद पड़े। भगवान् श्रीकृष्णके कूदनेसे वह दूषितजल चक्कर काटकर ऊपरको उछला। यमुनाके उस भागमें कालियनाग रहता था । भँवर उठनेसे उस सर्पका भवन इस तरह चक्कर काटने लगा, जैसे जलमें पानीके भौरे घूमते हैं। नरेश्वर । उस समय सौ फणोंसे युक्त फणिराज कालिय क्रुद्ध हो उठा और माधवको दाँतोंसे डँसते हुए उसने अपने शरीरसे उन्हें आच्छादित कर लिया ॥ ४-६

 

तब श्रीकृष्ण अपने शरीरको बड़ा करके उसके बन्धनसे छूट गये और उस सर्पराजकी पूँछ पकड़कर उसे इधर-उधर घुमाने लगे । घुमाते - घुमाते उन्होंने उसे पानीमें गिराकर पुनः दोनों हाथोंसे उठा लिया और तुरंत उसे सौ धनुष दूर फेंक दिया। उस भयानक नागराजने पुनः उठकर जीभ लपलपाते हुए रोषपूर्वक माधव श्रीहरिका बायाँ हाथ पकड़ लिया। तब श्रीहरिने उस महादुष्टको दाहिने हाथसे पकड़कर उस जलमें उसी प्रकार दबा दिया, जैसे गरुड किसी नागको रगड़ दे। और अपने सौ मुखोंको बहुत अधिक फैलाकर वह सर्प उनके पास आ गया। तब उसकी पूँछ पकड़कर श्रीकृष्ण उसे सौ धनुष दूर खींच ले गये। श्रीकृष्णके हाथसे सहसा निकलकर उसने पुनः उन्हें डँस लिया ॥ ७-११

 

यह देख अपनेमें त्रिभुवन का बल धारण करनेवाले श्रीहरि ने उस सर्प को एक मुक्का मारा। श्रीकृष्णके मुक्के की चोट खाकर वह सर्प मूर्च्छित हो अपनी सुध-बुध खो बैठा। तदनन्तर अपने सौ मुखोंको आनत करके वह श्रीकृष्णके सामने स्थित हुआ। उसके सौ फन सौ मणियोंके प्रकाशसे अत्यन्त मनोहर जान पड़ते थे। श्रीकृष्ण उन फनोंपर चढ़ गये और मनोहर नट-वेष धारण करके नटकी भाँति नृत्य करने लगे। साथ ही वे सातों स्वरोंसे किसी रागका अलाप करते हुए तालके साथ संगीत प्रस्तुत करने लगे। उस समय नटराजकी भाँति सुन्दर ताण्डव करनेवाले श्रीकृष्णके ऊपर देवतालोग फूल बरसाने लगे और प्रसन्नतापूर्वक वीणा, ढोल, नगारे तथा बाँसुरी बजाने लगे । तालके साथ पदविन्यास करनेसे श्रीकृष्णने लंबी साँस खींचते हुए महाकाय कालियके बहुत-से उज्ज्वल फनोंको भग्न कर दिया। उसी समय भयसे विह्वल हुई नागपत्नियाँ आ पहुँचीं और भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें नमस्कार करके गद्गद वाणीद्वारा इस प्रकार स्तुति करने लगीं ॥। १ - १७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



1 टिप्पणी:

  1. 🌹💟🥀जय श्री हरि:🙏🙏जय श्री कृष्ण🙏🌹🙏 ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🌺💖🌹🙏🙏 ॐ श्री परमात्मने नमः 🙏💐🙏श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव
    जय हो प्रभु आपकी कलियानाग दमन लीला🥀💟🌷🙏🙏‼️

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