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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
नवाँ
अध्याय ( पोस्ट 03 )
ब्रह्माजीके
द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
सुन्दरं
तु तव रूपमेव हि
मन्मथस्य मनसो हरं परम्
आविरस्तु मम नेत्रयोः सदा
श्यामलं मकरकुण्डलावृतम् ॥ १८ ॥
वैकुण्ठलीलाप्रवरं मनोहरं
नमस्कृतं देवगणैः परं वरम् ।
गोपाललीलाभियुतं भजाम्यहं
गोलोकनाथं शिरसा नमाम्यहम् ॥ १९ ॥
युक्तं वसन्तकलकण्ठविहंगमैश्च
सौगन्धिकं त्वरणपल्लवशाखिसंगम् ।
वृन्दावनं सुधितधीरसमीरलीलं
गच्छन् हरिर्जयति पातु सदैव भक्तान्
॥ २० ॥
हरति कमलमानं लोलमुक्ताभिमानं
धरणिरसिकदानं कामदेवस्य बाणम् ।
श्रवणविदितयानं नेत्रयुग्मप्रयाणं
भज यदुत समक्षं दानदक्षं कटाक्षम् ॥
२१ ॥
शरच्चन्द्राकारं नखमणिसमूहं सुखकरं
सुरक्तं हृत्पूर्णं
प्रकटिततमःखण्डनकरम् ।
भजेऽहं ब्रह्माण्डेसकलनरपापाभिदलनं
हरेर्विष्णोर्देवैर्दिवि भरतखण्डे
स्तुतमलम् ॥ २२ ॥
महापद्मे किं वा परिधिरिव चाभाति सततं
कदादित्यस्फूर्जद्रथचरण इत्थं
ध्वनिधरः ।
यथा न्यस्तं चक्रं शतकिरणयुक्तं तु हरिणा
स्फुरच्छ्रीमञ्जीरं हरिचरणपद्मे
त्वधिगतम् ॥ २३ ॥
कट्यां पीताम्बरं दिव्यं क्षुद्रघण्टिकयाऽन्वितम् ।
भजाम्यहं चित्तहरं कृष्णस्याक्लिष्टकर्मणः ॥ २४ ॥
आपका
परम सुन्दर रूप मन्मथ के मन को भी हरनेवाला
है। मेरे नेत्रों में सर्वदा मकरकुण्डलधारी श्यामकलेवर श्रीकृष्णके
उस रूपका प्रकाश होता रहे। जिनकी लीला वैकुण्ठ - लीलाकी अपेक्षा भी श्रेष्ठ है और जिनके
परम श्रेष्ठ मनोहर रूपको देवगण भी नमस्कार करते हैं, उन गोपलीलाकारी गोलोकनाथको मैं
मस्तक नवाकर प्रणाम करता हूँ । वसन्तकालीन सुन्दर कण्ठ- वाले कोकिलादि पक्षियोंसे युक्त,
सुगन्धित, नवीन पल्लवयुक्त वृक्षोंसे अलंकृत, सुधाके समान शीतल, धीर (मन्द) पवनकी क्रीड़ासे
सुशोभित वृन्दावनमें विचरण करनेवाले श्रीकृष्णकी जय हो ! वे सदा भक्तों की रक्षा करें ॥। १८ – २० ॥
"आपके
कान तक फैले हुए विशाल नेत्र तथा उनकी तिरछी चितवन कमलपुष्पोंका
मान और झूलते हुए मोतियों का अभिमान दूर करनेवाली है, भूतल के समस्त रसिकों- को रस का दान करती है तथा कामदेवके
बाणोंके समान पैनी एवं प्रीतिदान में निपुण है। जिनकी नखमणियाँ
शरत्कालीन चन्द्रमाके समान सुखकर, सुरक्त, हृदयग्राहिणी, गाढ़ अन्धकार का नाश करनेवाली और जगत् के समस्त प्राणियोंके पापोंका ध्वंस करनेवाली
हैं तथा स्वर्ग में देवमण्डली जिनका श्रीविष्णु एवं हरि की नखावली के रूप में स्तवन
करती है, मैं उनकी आराधना करता हूँ ।। २१-२२ ॥
आपके
पादपद्मों की सर्वदा बजनेवाली, श्रीहरि के
सैकड़ों किरणोंसे युक्त (सुदर्शन) चक्र के समान आकारवाली पैजनियाँ
ऐसी हैं, जिनसे गोल घेरे की भाँति किरणें इस प्रकार निकलती हैं,
जैसे सूर्य के प्रकाशयुक्त रथचक्र की परिधि
हो, अथवा जो आपके पादपद्मों की परिधि के
समान सुशोभित हैं। आपकी कमर में छोटी-छोटी घंटियोंसे युक्त दिव्य
पीताम्बर जगमगा रहा है । मैं अक्लिष्टकर्मा भगवान् श्रीकृष्ण
(आप) के उस मनोहर रूपकी आराधना करता हूँ ।। २३-२४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🌺💖🌹🥀जय श्रीकृष्ण🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव