गुरुवार, 25 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पंद्रहवाँ अध्याय ( पोस्ट 04 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

पंद्रहवाँ अध्याय ( पोस्ट 04 )

 

श्रीराधाका गवाक्षमार्गसे श्रीकृष्णके रूपका दर्शन करके प्रेम-विह्वल होना; ललिताका श्रीकृष्णसे राधाकी दशाका वर्णन करना और उनकी आज्ञाके अनुसार लौटकर श्रीराधा को श्रीकृष्ण-प्रीत्यर्थ सत्कर्म करनेकी प्रेरणा देना

 

श्रीभगवानुवाच -
सर्वं हि भावं मनसः परस्परं
     नह्येकतो भामिनि जायते तअतः ।
प्रेमैव कर्तव्यमतो मयि स्वतः
     प्रेम्णा समानं भुवि नास्ति किंचित् ॥ ३० ॥
यथा हि भाण्डीरवने मनोरथो
     बभूव तस्या हि तथा भविष्यति ।
अहैतुकं प्रेम च सद्‌भिराश्रितं
     तच्चापि सन्तः किल निर्गुणं विदुः ॥ ३१ ॥
ये राधिकायां मयि केशवे मनाक्
     भेदं न पश्यन्ति हि दुग्धशौक्लवत् ।
त एव मे ब्रह्मपदं प्रयान्ति
     तदहैतुकस्फूर्जितभक्तिलक्षणाः ॥ ३२ ॥
ये राधिकायां मयि केशवे हरौ
     कुर्वन्ति भेदं कुधियो जना भुवि ।
ते कालसूत्रं प्रपतन्ति दुःखिता
रम्भोरु यावत्किल चंद्रभास्करौ ॥ ३३ ॥


श्रीनारद उवाच -
इत्थं श्रुत्वा वचः कृत्स्नं नत्वा तं ललिता सखी ।
राधां समेत्य रहसि प्राह प्रहसितानना ॥ ३४ ॥


ललितोवाच -
त्वमिच्छसि यथा कृष्णं तथा त्वां मधुसूदनः ।
युवयोर्भेदरहितं तेजस्त्वैकं द्विधा जनैः ॥ ३५ ॥
तथापि देवि कृष्णाय कर्म निष्कारणं कुरु ।
येन ते वांछितं भूयाद्‌भक्त्या परमया सति ॥ ३६ ॥


श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वा सखीवाक्यं राधा रासेश्वरी नृप ।
चंद्राननां प्राह सखीं सर्वधर्मविदां वराम् ॥ ३७ ॥
श्रीकृष्णस्य प्रसन्नार्थं परं सौभाग्यवर्धनम् ।
महापुण्यं वांछितदं पूजनं वद कस्यचित् ॥ ३८ ॥
त्वया भद्रे धर्मशास्त्रं गर्गाचार्यमुखाच्छ्रुतम् ।
तस्माद्‌व्रतं पूजनं वा ब्रूहि मह्यं महामते ॥ ३९ ॥

 

श्रीभगवान् ने कहा- भामिनि ! मन का सारा भाव स्वतः एकमात्र मुझ परात्पर पुरुषोत्तम की ओर नहीं प्रवाहित होता; अतः सबको अपनी ओरसे मेरे प्रति प्रेम ही करना चाहिये। इस भूतलपर प्रेमके समान दूसरा कोई साधन नहीं है (मैं प्रेमसे ही सुलभ होता हूँ) । भाण्डीरवनमें श्रीराधाके हृदयमें जैसे मनोरथका उदय हुआ था, वह उसी रूपमें पूर्ण होगा। सत्पुरुष अहैतुक प्रेमका आश्रय लेते हैं। संत, महात्मा उस निर्हेतुक प्रेमको निश्चय ही निर्गुण (तीनों गुणोंसे अतीत) मानते हैं ॥ ३० - ३

जो मुझ केशवमें और श्रीराधिकामें थोड़ा-सा भी भेद नहीं देखते, बल्कि दूध और उसकी शुक्लताके समान हम दोनोंको सर्वथा अभिन्न मानते हैं, उन्होंके अन्तःकरणमें अहैतुकी भक्तिके लक्षण प्रकट होते हैं तथा वे ही मेरे ब्रह्मपद (गोलोकधाम) में प्रवेश पाते हैं। रम्भोरु ! इस भूतलपर जो कुबुद्धि मानव मुझ केशव हरिमें तथा श्रीराधिकामें भेदभाव रखते हैं, वे जबतक चन्द्रमा और सूर्यकी सत्ता है, तबतक निश्चय ही कालसूत्र नामक नरकमें पड़कर

दुःख भोगते हैं  ॥ ३ - ३३ ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीकृष्णकी यह सारी बात सुनकर ललिता सखी उन्हें प्रणाम करके श्रीराधाके पास गयी और एकान्तमें बोली । बोलते समय उसके मुखपर मधुर हासकी छटा छा रही थी ॥ ३४ ॥

ललिताने कहा- सखी! जैसे तुम श्रीकृष्णको चाहती हो, उसी तरह वे मधुसूदन श्रीकृष्ण भी तुम्हारी अभिलाषा रखते हैं । तुम दोनों का तेज भेद-भावसे रहित, एक है । लोग अज्ञानवश ही उसे दो मानते हैं। तथापि सती-साध्वी देवि! तुम श्रीकृष्णके लिये निष्काम कर्म करो, जिससे पराभक्तिके द्वारा तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो । ।। ३५-३६ ।।

नारदजी कहते हैं-नरेश्वर ! ललिता सखीकी यह बात सुनकर रासेश्वरी श्रीराधाने सम्पूर्ण धर्म- वेत्ताओंमें श्रेष्ठ चन्द्रानना सखीसे कहा ॥ ३७ ॥

श्रीराधा बोलीं- सखी! तुम श्रीकृष्णकी प्रसन्नताके लिये किसी देवताकी ऐसी पूजा बताओ, जो परम सौभाग्यवर्द्धक, महान् पुण्यजनक तथा मनोवाञ्छित वस्तु देनेवाली हो । भद्रे ! महामते ! तुमने गर्गाचार्यजीके मुखसे शास्त्रचर्चा सुनी है। इसलिये तुम मुझे कोई व्रत या पूजन बताओ ॥ ३८-३९ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'श्रीराधाकृष्णके प्रेमोद्योगका वर्णन' नामक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १५ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



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