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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
नवाँ
अध्याय ( पोस्ट 05 )
ब्रह्माजीके
द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
मायया
यस्य मुह्यन्ति देवदैत्यनरादयः ।
स्वमायया तन्मोहाय मूर्खोऽहं ह्युद्यतोऽभवम् ॥ ३४ ॥
नारायणस्त्वं गोविन्द नाहं नारायणो हरे ।
ब्रह्माण्डं त्वं विनिर्माय शेषे नारायणः पुरा ॥ ३५ ॥
यस्य श्रीब्रह्मणि धाम्नि प्राणं त्यक्त्वा तु योगिनः ।
यत्र यास्यन्ति तस्मिंस्तु सकुला पूतना गता ॥ ३६ ॥
वत्सानां वत्सपानाञ्च कृत्वा रूपाणि माधव ।
विचचार वने त्वं तु ह्यपराधान्मम प्रभो ॥ ३७ ॥
तस्मात्क्षमस्व गोविन्द प्रसीद त्वं ममोपरि ।
अगणय्यापराधं मे सुतोपरि पिता यथा ॥ ३८ ॥
त्वदभक्ता रता ज्ञाने तेषां क्लेशो विशिष्यते ।
परिश्रमात्कर्षकाणां यथा क्षेत्रे तुषार्थिनाम् ॥ ३९ ॥
त्वद्भक्तिभावे निरता बहवस्त्वद्गतिं गताः ।
योगिनो मुनयश्चैव तथा ये व्रजवासिनः ॥ ४० ॥
द्विधा रतिर्भवेद्वरा श्रुताच्च दर्शनाच्च वा ।
अहो हरे तु मायया बभूव नैव मे रतिः ॥ ४१ ॥
इत्युक्त्वाऽश्रुमुखो भूत्वा नत्वा तत्पादपंकजौ ।
पुनराह विधिः कृष्णं भक्त्या सर्वं क्षमापयन् ॥ ४२ ॥
घोषेषु वासिनामेषां भूत्वाऽहं त्वत्पदाम्बुजम् ।
यदा भजेयं सुगतिस्तदा भूयान्न चान्यथा ॥ ४३ ॥
जिनकी
मायासे देवता, दैत्य एवं मनुष्य – सभी मोहित हैं, मैं मूर्ख उनको अपनी मायासे मोहित
करने चला था ! गोविन्द आप नारायण हैं, मैं नारायण नहीं हूँ। हरि ! आप कल्पके आदिमें
ब्रह्माण्डकी रचना करके नारायणरूपसे शेषशायी हो गये ॥ ३४-३५ ॥
आपके
जिस ब्रह्मरूप तेजमें योगी प्राण त्याग करके जाते हैं, बालघातिनी पूतना भी अपने कुलसहित
आपके उसी तेजमें समा गयी । माधव ! मेरे ही अपराधसे आपने गोवत्स एवं गोप-बालकोंका रूप
धारण करके वनोंमें विचरण किया। अतएव गोविन्द ! आप मुझको क्षमा
करें। गोविन्द ! पिता जैसे पुत्रका अपराध नहीं देखता, वैसे ही आप भी मेरे अपराधकी उपेक्षा
करके मेरे ऊपर प्रसन्न हों। जो लोग आपके भक्त न होकर ज्ञानमें रति करते हैं, उनको क्लेश
ही हाथ लगता है, जैसे भूसेके लिये परिश्रमपूर्वक खेत जोतनेवालोंको भूसामात्र प्राप्त
होता है ॥ ३६–३९ ॥
आपके
भक्तिभावमें ही नितरां रत रहनेवाले अनेकों योगी, मुनि एवं व्रजवासी आपको प्राप्त हो
चुके हैं। दर्शन और श्रवण- दो प्रकारसे उनकी आपमें रति होती है, किंतु अहो ! श्रीहरिकी
मायाके कारण उनके प्रति मेरी रति नहीं हुई || ४०
– ४१ ॥
ब्रह्माजीने
यों कहकर नेत्रों से आँसू बहाते हुए उनके (श्रीकृष्णके) पादपद्मों में प्रणाम किया एवं सारे अपराधों को क्षमा करानेके
लिये भक्तिभाव से श्रीकृष्ण- से वे फिर निवेदन करने लगे – “मैं
गोपकुल में जन्म लेकर आपके पादपद्मों की
आराधना करता हुआ सुगति प्राप्त कर सकूँ, इसका व्यतिरेक न हो ॥ ४२-४३
॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
गोविंद गोविंद गोपाल हरे
जवाब देंहटाएंगोविंद गोविंद मुकुंद कृष्ण
गोविंद गोविंद हरे मुरारे
गोविंद गोविंद रथांग पाणे
गोविंद दामोदर माधवेति
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव
नारायण !! नारायण !!
हरि: !! हरि: !!
🌺💖🌹🥀 ॐ श्री परमात्मने नमः 🙏🙏🙏🙏