श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
तेईसवाँ
अध्याय (पोस्ट 01)
कंस
और शङ्खचूड में युद्ध तथा मैत्री का वृत्तान्त;
श्रीकृष्णद्वारा शङ्खचूड का वध
श्रीनारद
उवाच -
अथ कृष्णो गोपिकाभिः लोकजंघवनं ययौ ।
वसन्तमाधवीभिश्च लताभिः संकुलं नृप ॥ १ ॥
तत्पुष्पदामनिचयैः स्फुरत्सौगंधिशालिभिः ।
सर्वासां हरिणा तत्र कबर्यो गुंफितास्ततः ॥ २ ॥
भ्रमरध्वनिसंयुक्ते सुगंधानिलवासिते ।
कालिन्दीनिकटे कृष्णो विचचार प्रियान्वितः ॥ ३ ॥
करिल्लैः पीलुभिः श्यामैः तमालैः संकुलद्रुमैः ।
महापुण्यवनं कृष्णो ययौ रासेश्वरो हरिः ॥ ४ ॥
तत्र रासं समारेभे रासेश्वर्या समन्वितः ।
गीयमानश्च गोपीभिरप्सरोभिः स्वराडिव ॥ ५ ॥
तत्र चित्रमभूद्राजन् शृणु त्वं तन्मुखान्मम ।
शंखचूडो मान यक्षो धनदानुचरो बली ॥ ६ ॥
भूतले तत्समो नास्ति गदायुद्धविशारदः ।
मन्मुकादौग्रसेनेश्च बलं श्रुत्वा महोत्कटम् ॥ ७ ॥
लक्षभारमयीं गुर्वीं गदामादाय यक्षराट् ।
स्वसकाशान्मधुपुरीमाययौ चण्डविक्रमः ॥ ८ ॥
सभायामास्थितं प्राह कंसं नत्वा मदोद्धतः ।
गदायुद्धं देहि मह्यं त्रैलोक्यविजयी भवान् ॥ ९ ॥
अहं दासो भवेयं वै भवांश्च विजयी यदि ।
अहं जयी चेद्भवन्तं दासं शीघ्रं करोम्यहम् ॥ १० ॥
तथास्तु चोक्त्वा कंसस्तु गृहीत्वा महतीं गदाम् ।
शंखचूडेन युयुधे रंगभूमौ विदेहराट् ॥ ११ ॥
तयोश्च गदया युद्धं घोररूपं बभूव ह ।
ताडनाच्चट्चटाशब्दं कालमेघतडिद्ध्वनि ॥ १२ ॥
शुशुभाते रंगमध्ये मल्लौ नाट्ये नटाविव ।
इभेन्द्राविव दीर्घांगौ मृगेन्द्राविव चोद्भटौ ॥ १३ ॥
द्वयोश्च युध्यतो राजन् परस्परजिगीषया ।
विस्फुलिंगान् क्षरन्त्यौ द्वे गदे चूर्णीबभूवतुः ॥ १४ ॥
कंसः प्रकुपितं यक्षं मुष्टिनाभिजघान ह ।
शंखचूडोऽपि तं कंसं मुष्टिना तं तताड च ॥ १५ ॥
मुष्टामुष्टि तयोरासीद्दिनानां सप्तविंशतिः ।
द्वयोरक्षीणबलयोर्विस्मयं गतयोस्ततः ॥ १६ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं-
राजन् ! तत्पश्चात् श्रीकृष्ण व्रजाङ्गनाओंके साथ लोहजङ्घ-वनमें गये, जो वसन्तकी माधवी
तथा अन्यान्य लता - वल्लरियोंसे व्याप्त था । उस वनके सुगन्ध बिखेरने वाले सुन्दर फूलों के हारों से
श्रीहरि ने वहाँ समस्त गोपियों की वेणियाँ
अलंकृत कीं ।।१-२॥
भ्रमरों की गुंजार से निनादित और सुगन्धित वायु से वासित यमुनातटपर अपनी प्रेयसियों- के साथ श्यामसुन्दर विचरने लगे।
विचरते विचरते रासेश्वर श्रीकृष्ण उस महापुण्यवनमें जा पहुँचे, जो करील, पीलू तथा श्याम
तमाल और ताल आदि सघन वृक्षोंसै व्याप्त था। वहाँ रासेश्वरी श्रीराधा और गोपाङ्गनाओंके
साथ उनके मुखसे अपना यशोगान सुनते हुए श्रीहरिने रास आरम्भ किया। उस समय वे यश गाती
हुई अप्सराओंसे घिरे हुए देवराज इन्द्रके
समान सुशोभित हो रहे
थे ।। ३-५ ॥
राजन् ! वहाँ एक विचित्र
घटना घटित हुई, उसे तुम मेरे मुखसे सुनो। शङ्खचूड नामसे प्रसिद्ध एक बलवान् यक्ष था,
जो कुबेरका सेवक था। इस भूतल- पर उसके समान गदायुद्ध-विशारद योद्धा दूसरा कोई नहीं
था । एक दिन मेरे मुँहसे उग्रसेनकुमार कंसके उत्कट बलकी बात सुनकर वह प्रचण्ड - पराक्रमी
यक्षराज लाख भार लोहेकी बनी हुई भारी गदा लेकर अपने निवासस्थानसे मथुरामें आया ।। ६-८ ॥
उस मदोन्मत्त वीर ने राजसभामें
पहुँचकर वहाँ सिंहासनपर बैठे हुए कंसको प्रणाम किया और कहा- राजन् ! सुना है कि तुम
त्रिभुवनविजयी वीर हो, इसलिये मुझे अपने साथ गदायुद्ध का अवसर
दो। यदि तुम विजयी हुए तो मैं तुम्हारा दास हो जाऊँगा और यदि मैं विजयी हुआ तो तत्काल
तुम्हें अपना दास बना लूँगा ।' ।। ९-१० ॥
विदेहराज ! तब 'तथास्तु'
कहकर, एक विशाल गदा हाथ में ले, कंस रङ्गभूमि में
शङ्खचूड के साथ युद्ध करने लगा। उन दोनों में
घोर गदायुद्ध प्रारम्भ हो गया। दोनोंके परस्पर आघात - प्रत्याघातसे होनेवाला चट-चट
शब्द प्रलय- कालके मेघोंकी गर्जना और बिजली का गड़गड़ाहट के समान जान पड़ता था । उस रङ्गभूमिमें दो मल्लों, नाट्यमण्डली के
दो नटों, विशाल अङ्गवाले दो गजराजों तथा दो उद्भट सिंहोंके समान कंस और शङ्खचूड परस्पर
जूझ रहे थे । राजन् ! एक-दूसरेको जीत लेनेकी इच्छासे जूझते हुए उन दोनों वीरोंकी गदाएँ
आगकी चिनगारियाँ बरसाती हुई परस्पर टकराकर चूर-चूर हो गयीं ।। ११-१४
॥
कंस ने
अत्यन्त कोप से भरे हुए यक्षको मुक्केसे मारा; तब शङ्खचूडने भी
कंसपर मुक्केसे प्रहार किया। इस तरह मुक्का-मुक्की करते हुए उन दोनोंको सत्ताईस दिन
बीत गये। दोनोंमें से किसीका बल क्षीण नहीं हुआ। दोनों ही एक-दूसरेके
पराक्रमसे चकित थे ।। १५-१६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🌸🌿🌹🌷जय श्रीकृष्ण🙏🙏
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव
जय श्री राधे गोविंद