शनिवार, 17 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) तेईसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

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श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

तेईसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

कंस और शङ्खचूड में युद्ध तथा मैत्री का वृत्तान्त; श्रीकृष्णद्वारा शङ्खचूड का वध

 

शंखचूडं संगृहीत्वा कंसो दैत्याधिपो बली ।
बलाच्चिक्षेप सहसा व्योम्नि तं शतयोजनम् ॥ १७ ॥
शंखचूडः प्रपतितः किंचिद्‌व्याकुलमानसः ।
कंसं गृहीत्वा नभसि चिक्षेपायुतयोजनम् ॥ १८ ॥
आकाशात्पतितः कंसः किंचिद्व्याकुलमानसः ।
यक्षं गृहीत्वा सहसा पातयामास भूतले ॥ १९ ॥
शंखचूडस्तं गृहीत्वा पोथयामास भूतले ।
एवं युद्धे संप्रवृत्ते चकंपे भूमिमंडलम् ॥ २० ॥
मुनीन्द्रः सर्ववित्साक्षाद्‌गर्गाचार्यः समागतः ।
रंगेषु वन्दितस्ताभ्यां कंसं प्राहोर्जया गिरा ॥ २१ ॥


श्रीगर्ग उवाच -
युद्धं मा कुरु राजेंद्र विफलोऽयं रणोऽत्र वै ।
त्वत्समानो ह्ययं वीरः शङ्खचूडो महाबलः ॥ २२ ॥
तव मुष्टिप्रहारेण भृशमैरावतो गजः ।
जानुभ्यां धरणीं स्पृष्ट्वा कश्मलं परमं ययौ ॥ २३ ॥
अन्येऽपि बलिनो दैत्या मुष्टिना ते मृतिं गताः ।
शंखचूडो न पतितः संदेहो नास्ति तच्छृणु ॥ २४ ॥
परिपूर्णतमो यो वै सोऽपि त्वां घातयिष्यति ।
तथैनं शंखचूडाख्यं शिवस्यापि वरोर्जितम् ॥ २५ ॥
तस्मात्प्रेम प्रकर्तव्यं शंखचूडे यदूद्वह ।
यक्षराट् च त्वया कंसे कर्तव्यं प्रेम निश्चितम् ॥ २६ ॥


श्रीनारद उवाच -
गर्गेणोक्तौ तदा तौ द्वौ मिलित्वाऽथ परस्परम् ।
परमां चक्रतुः प्रीतिं शंखचूडयदूद्वहौ ॥ २७ ॥
अथ कंसं सनुज्ञाप्य गृहं गन्तुं समुद्यतः ।
गच्छन् मार्गेऽशृणोद्‌रात्रौ रासगानं मनोहरम् ॥ २८ ॥
तालशब्दानुसारेण संप्राप्तो रासमंडले ।
रासेश्वर्या समं रासेऽपश्यद्‌रासेश्वरं हरिम् ॥ २९ ॥
श्रीराधयाऽलंकृतवामबाहुं
     स्वच्छंदवक्रीकृतदक्षिणांघ्रिम् ।
वंशीधरं सुंदरमंदहासं
     भ्रूमंडलैर्मोहितकामराशिम् ॥ ३० ॥
व्रजांगनायूथपतिं व्रजेश्वरं
     सुसेवितं चामरछत्रकोटिभिः ।
विज्ञाय कृष्णं ह्यतिकोमलं शिशुं
     गोपीं समाहर्तुमलं मनोऽकरोत् ॥ ३१ ॥

तदनन्तर दैत्यराज महाबली कंसने शङ्खचूडको सहसा पकड़कर बलपूर्वक आकाशमें फेंक दिया। वह सौ योजन ऊपर चला गया। शङ्खचूड आकाशसे जब वेगपूर्वक नीचे गिरा तो उसके मनमें किंचित् व्याकुलता आ गयी, तथापि उसने भी कंसको पकड़कर आकाश में दस हजार योजन ऊँचे फेंक दिया। कंस भी आकाशसे गिरनेपर मन-ही-मन कुछ व्याकुल हो उठा। फिर उसने यक्षको पकड़कर सहसा पृथ्वीपर दे मारा। फिर शङ्खचूडने भी कंसको पकड़कर भूमिपर पटक दिया। इस प्रकार घोर युद्ध चलते रहनेके कारण भूमण्डल काँपने लगा। इसी बीचमें सर्वज्ञ मुनिवर साक्षात् गर्गाचार्य वहाँ आ गये। दोनोंने रङ्गभूमिमें उन्हें देखकर प्रणाम किया। तब गर्गने ओजस्विनी वाणीमें कंससे कहा ।। १७–२१ ॥

श्रीगर्गजी बोले - राजेन्द्र ! युद्ध न करो। इस युद्धसे कोई फल मिलनेवाला नहीं है। यह महाबली शङ्खचूड तुम्हारे समान ही वीर है। तुम्हारे मुक्केकी मार खाकर गजराज ऐरावतने धरतीपर घुटने टेक दिये थे और उसे अत्यन्त मूर्च्छा आ गयी थी। और भी बहुत-से दैत्य तुम्हारे मुक्केकी मार खाकर मृत्युके ग्रास बन गये हैं, परंतु शङ्खचूड धराशायी नहीं हो सका । इसमें संदेह नहीं कि यह तुम्हारे लिये अजेय है। इसका कारण सुनो। वे परिपूर्णतम परमात्मा जैसे तुम्हारा वध करनेवाले हैं, उसी तरह भगवान् शिव के वरसे बलशाली हुए इस शङ्खचूड को भी मारेंगे। अतः यदुनन्दन ! तुम्हें शङ्खचूड पर प्रेम करना चाहिये । यक्षराज ! तुम्हें भी अवश्य ही कंसपर प्रेमभाव रखना चाहिये ॥ २२ – २६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं-राजन् ! गर्गाचार्यजी के यों कहने पर शङ्खचूड तथा कंस - दोनों परस्पर मिले और एक-दूसरेसे अत्यन्त प्रेम करने लगे। तदनन्तर कंससे बिदा ले शङ्खचूड अपने घरको जाने लगा। रात्रिके समय मार्गमें उसे रासमण्डल मिला। वहाँ ताल-स्वरसे युक्त मनोहर गान उसके कानमें पड़ा । फिर उसने रासमें श्रीरासेश्वरीके साथ रासेश्वर श्रीकृष्णका दर्शन किया। उनकी बायीं भुजा श्रीराधाके कंधेपर सुशोभित थी। वे स्वेच्छानुसार अपने दाहिने पैरको टेढ़ा किये खड़े थे। हाथमें वंशी लिये मुखसे सुन्दर मन्द हासकी छटा छिटका रहे थे। उनके भूमण्डलपर राशि राशि कामदेव मोहित थे । व्रज- सुन्दरियोंके यूथपति व्रजेश्वर श्रीकृष्ण कोटि-कोटि छत्र-चँवरोंसे सुसेवित थे। उन्हें अत्यन्त कोमल शिशु जानकर शङ्खचूड ने गोपियों को हर ले जाने का विचार किया ।। २७ – ३१ ।।

 

 शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



1 टिप्पणी:

  1. 🌼🥀🌹💐जय श्रीकृष्ण🙏🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    जय हो राधा रमण गोविंद
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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