रविवार, 11 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) इक्कीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

इक्कीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

गोपाङ्गनाओंके साथ श्रीकृष्णका वन-विहार, रास-क्रीड़ा, मानवती गोपियोंको छोड़कर श्रीराधाके साथ एकान्त-विहार तथा मानिनी श्रीराधाको भी छोड़कर उनका अन्तर्धान होना

 

राधोवाच -
चलितुं न समर्थाऽहं मन्दिरान्ना विनिर्गता ।
सुकुमारी स्वेदयुक्ता कथं मां नयसि प्रिय ॥ ३१ ॥


नारच उवाच -
इति वाक्यं ततः श्रुत्वा श्रीकृष्णो राधिकेश्वरः ।
पीतांबरेण दिव्येन वायुं तस्यै चकार ह ॥ ३२ ॥
हस्तं गृहीत्वा तामाह गच्छ राधे यथासुखम् ।
कृष्णेनापि तदा प्रोक्ता न ययौ तेन वै पुनः ॥ ३३ ॥
पृष्ठं दत्त्वाऽथ हरये तूष्णींभूता स्थिता पुनः ।
प्रियां मानवतीं राधां प्राह कृष्णः सतां प्रियः ॥ ३४ ॥


श्रीभगवानुवाच -
विहाय गोपीरिह कामयाना
     भजाम्यहं मानिनि चेतसा त्वाम् ।
यत्ते प्रियं तत्प्रकरोमि राधे
     मे स्कंधमारुह्य सुखं व्रजाशु ॥ ३५ ॥


श्रीनारद उवाच -
एवं प्रियां प्रियतमः स्कंधयानेप्सितां नृप ।
विहायान्तर्दधे कृष्णो स्वच्छन्दगतिरीश्वरः ॥ ३६ ॥
गतमाना कीर्तिसुता भगवद्‌विरहातुरा ।
उच्चै रुरोद राजेन्द्र कोकिलाख्ये वने परे ॥ ३७ ॥
तदैव यूथाः संप्राप्ता गोपीनां मैथिलेश्वर ।
तद् रोदनं दुःखतरं श्रुत्वा जग्मुस्त्रपातुराः ॥ ३८ ॥
काश्चित्तां मकरंदैश्च स्नापयांचक्रुरीश्वरीम् ।
चंदनागुरु कस्तूरी कुङ्कुमद्रवसीकरैः ॥ ३९ ॥
वायुं चक्रुस्तदंगेषु व्यजनान्दोलचामरैः ।
आश्वास्य वाग्भिः परमां नानाऽनुनयकोविदैः ॥ ४० ॥
तन्मुखान्मानिनो मानं श्रुत्वा कृष्णस्य गोपिकाः ।
मानवंत्यो मैथिलेन्द्र विस्मयं परमं ययुः ॥ ४१ ॥

 

श्रीराधाने कहा- प्यारे ! मैं कभी राजभवनसे बाहर नहीं निकली थी, किंतु आज अधिक चलना पड़ा है; अतः अब एक पग भी चलनेमें समर्थ नहीं हूँ। देखते नहीं, मैं सुकुमारी राजकुमारी पसीना पसीना हो गयी हूँ ? फिर मुझे कैसे ले चलोगे ? ॥ ३१ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- यह वचन सुनकर राधिकावल्लभ श्रीकृष्ण श्रीराधाके ऊपर अपने दिव्य पीताम्बरसे हवा करने लगे। फिर उनका हाथ थामकर बोले- 'श्रीराधे ! अब तुम अपनी मौजसे धीरे-धीरे चलो।' उस समय श्रीकृष्णके बारंबार कहनेपर भी श्रीराधाने अपना पैर आगे नहीं बढ़ाया। वे श्रीहरिकी ओर पीठ करके चुपचाप खड़ी रहीं। तब संतोंके प्रिय श्रीकृष्णने मानिनी प्रिया राधासे कहा ॥ ३२ – ३४ ॥

श्रीभगवान् बोले—मानिनि ! यहाँ अन्य गोपियाँ भी मुझसे मिलनेकी हार्दिक कामना रखती हैं, तथापि उन्हें छोड़कर मैं मनसे तुम्हारी आराधना करता हूँ; तुम्हें जो प्रिय हो, वहीं करता हूँ । राधे ! मेरे कंधेपर चढ़कर तुम सुखपूर्वक शीघ्र यहाँसे चलो ॥ ३५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— नरेश्वर ! उनके यों कहने- पर प्रियाने जब उनके कंधेपर चढ़ना चाहा, तभी स्वच्छन्द गतिवाले ईश्वर प्रियतम श्रीकृष्ण वहाँसे अन्तर्धान हो गये। राजेन्द्र ! फिर तो कीर्तिकुमारी राधाका मान उतर गया। वे उस महान् कोकिलावनमें भगवद्-विरहसे व्याकुल हो उच्चस्वरसे रोदन करने लगीं ॥। ३६-३७ ।।

मिथिलेश्वर ! उसी समय गोपियोंके यूथ वहाँ आ पहुँचे। श्रीराधाका अत्यन्त दुःखजनक रोदन सुनकर उन्हें बड़ी दया और लज्जा आयी। कोई अपनी स्वामिनीको पुष्प- मकरन्दों (इत्र आदि) से नहलाने लगीं; कुछ चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और केसर से मिश्रित जल के छींटे देने लगीं || कुछ व्यजन और चंवर डुलाकर अङ्गों में हवा देने लगीं तथा अनुनय-विनय में कुशल नाना वचनों द्वारा परादेवी श्रीराधा को धीरज बँधाने लगीं। मैथिलेन्द्र ! श्रीराधा के मुख से मानी श्रीकृष्णके द्वारा दिये गये सम्मान की बात सुनकर मानवती गोपाङ्गनाओं को बड़ा विस्मय हुआ ।। ३८-४१ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'रास-क्रीड़ा' नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



1 टिप्पणी:

  1. श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव
    🌺💟🌹🥀जय श्रीहरि:🙏🙏
    नारायण नारायण नारायण नारायण 🌺💐जय श्री राधे गोविंद


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