॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०४)
विराट् स्वरूप की विभूतियों का वर्णन
स्वधिष्ण्यं प्रतपन् प्राणो बहिश्च प्रतपत्यसौ ।
एवं विराजं प्रतपन् तपत्यन्तः बहिः पुमान् ॥ १६ ॥
सोऽमृतस्याभयस्येशो मर्त्यं अन्नं यदत्यगात् ।
महिमा एष ततो ब्रह्मन् पुरुषस्य दुरत्ययः ॥ १७ ॥
पादेषु सर्वभूतानि पुंसः स्थितिपदो विदुः ।
अमृतं क्षेममभयं त्रिमूर्ध्नोऽधायि मूर्धसु ॥ १८ ॥
जैसे सूर्य अपने मण्डलको प्रकाशित करते हुए ही बाहर भी प्रकाश फैलाते हैं, वैसे ही पुराणपुरुष परमात्मा भी सम्पूर्ण विराट् विग्रह को प्रकाशित करते हुए ही उसके बाहर-भीतर—सर्वत्र एकरस प्रकाशित हो रहा है ॥ १६ ॥ मुनिवर ! जो कुछ मनुष्यकी क्रिया और सङ्कल्पसे बनता है, उससे वह परे है और अमृत एवं अभयपद (मोक्ष) का स्वामी है। यही कारण है कि कोई भी उसकी महिमाका पार नहीं पा सकता ॥ १७ ॥ सम्पूर्ण लोक भगवान्के एक पादमात्र (अशंमात्र) हैं तथा उनके अंशमात्र लोकोंमें समस्त प्राणी निवास करते हैं। भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक के ऊपर महर्लोक है। उसके भी ऊपर जन, तप और सत्यलोकों में क्रमश: अमृत, क्षेम एवं अभय का नित्य निवास है ॥ १८ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🪷🍂🥀🪷जय श्री हरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
अनंत कोटि ब्रह्माण्ड नायक
सर्वआत्म सर्वत्र व्याप्त परब्रह्म।
परमेश्वर को हर क्षण सहस्त्रों।
कोटिश: चरण वंदन🙏🥀🙏