गुरुवार, 19 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) दसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

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श्रीगर्ग-संहिता

(गिरिराज खण्ड)

दसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

गोवर्धन शिला के स्पर्श से एक राक्षस का उद्धार तथा दिव्यरूपधारी उस सिद्ध के मुख से गोवर्द्धन की महिमा का वर्णन

 

श्रीनारद उवाच -
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
यस्य श्रवणमात्रेण महापापं प्रणश्यति ॥१॥
विजयो ब्राह्मणः कश्चिद्‌‌गौतमीतीरवासकृत् ।
आययौ स्वमृणं नेतुं मथुरां पापनाशिनीम् ॥२॥
कृत्वा कार्यं गृहं गच्छन् गोवर्धनतटीं गतः ।
वर्तुलं तत्र पाषाणं चैकं जग्राह मैथिल ॥३॥
शनैः शनैर्वनोद्देशे निर्गतो व्रजमंडलात् ।
अग्रे ददर्श चायान्तं राक्षसं घोररूपिणम् ॥४॥
हृदये च मुखं यस्य त्रयः पादा भुजाश्च षट् ।
हस्तत्रयं च स्थूलोष्ठो नासा हस्तसमुन्नता ॥५॥
सप्तहस्ता ललज्जिह्वा कंटकाभास्तनूरुहाः ।
अरुणे अक्षिणी दीर्घे दंता वक्रा भयंकराः ॥६॥
राक्षसो घुर्घुरं शब्दं कृत्वा चापि बुभुक्षितः ।
आययौ संमुखे राजन् ब्राह्मणस्य स्थितस्य च ॥७॥
गिरिराजोद्‌भवेनासौ पाषाणेन जघान तम् ।
गिरिराजशिलास्पर्शात्त्यक्त्वाऽसौ राक्षसीं तनुम् ॥८॥
पद्मपत्रविशालाक्षः श्यामसुन्दरविग्रहः ।
वनमाली पीतवासा मुकुटी कुंडलान्वितः ॥९॥
वंशीधरो वेत्रहस्तः कामदेव इवापरः ।
भूत्वा कृतांजलिर्विप्रं प्रणनाम मुहुर्मुहुः ॥१०॥


सिद्ध उवाच -
धन्यस्त्वं ब्राह्मणश्रेष्ठ परत्राणपरायणः ।
त्वया विमोचितोऽहं वै राक्षसत्वान्महामते ॥११॥
पाषाणस्पर्शमात्रेण कल्याणं मे बभूव ह ।
न कोऽपि मां मोचयितुं समर्थो हि त्वया विना ॥१२॥
श्रीब्राह्मण उवाच -
विस्मितस्तव वाक्येऽहं न त्वां मोचयितुं क्षमः ।
पाषाणस्पर्शनफलं न जाने वद सुव्रत ॥१३॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! इस विषय में एक पुराने इतिहास का वर्णन किया जाता है, जिसके श्रवण मात्र से बड़े-बड़े पापों का विनाश हो जाता है ॥ १ ॥

गौतमी गङ्गा (गोदावरी) के तटपर विजय नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण रहता था। वह अपना ऋण वसूल करनेके लिये पापनाशिनी मथुरापुरीमें आया । अपना कार्य पूरा करके जब वह घरको लौटने लगा, तब गोवर्द्धनके तटपर गया। मिथिलेश्वर ! वहाँ उसने एक गोल पत्थर ले लिया । धीरे-धीरे वनप्रान्तमें होता हुआ जब वह व्रजमण्डलसे बाहर निकल गया, तब उसे अपने सामनेसे आता हुआ एक घोर राक्षस दिखायी दिया। उसका मुँह उसकी छातीमें था। उसके तीन पैर और छः भुजाएँ थीं, परंतु हाथ तीन ही थे। ओठ बहुत ही मोटे और नाक एक हाथ ऊँची थी। उसकी सात हाथ लंबी जीभ लपलपा रही थी, रोएँ काँटोंके समान थे, आँखें बड़ी-बड़ी और लाल थीं, दाँत टेढ़े-मेढ़े और भयंकर थे । राजन् ! वह राक्षस बहुत भूखा था, अतः 'घुर घुर' शब्द करता हुआ वहाँ खड़े हुए ब्राह्मणके सामने आया। ब्राह्मणने गिरिराजके पत्थरसे उस राक्षसको मारा। गिरिराजकी शिलाका स्पर्श होते ही वह राक्षस-शरीर छोड़कर श्यामसुन्दर रूपधारी हो गया। उसके विशाल नेत्र प्रफुल्ल कमलपत्रके समान शोभा पाने लगे। वनमाला, पीताम्बर, मुकुट और कुण्डलोंसे उसकी बड़ी शोभा होने लगी। हाथमें वंशी और बेंत लिये वह दूसरे कामदेवके समान प्रतीत होने लगा । इस प्रकार दिव्यरूपधारी होकर उसने दोनों हाथ जोड़कर ब्राह्मण-देवताको बारंबार प्रणाम किया । २ – १० ॥

सिद्ध बोला- ब्राह्मणश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो; क्योंकि दूसरोंको संकटसे बचानेके पुण्यकार्यमें लगे हुए हो। महामते ! आज तुमने मुझे राक्षसकी योनिसे छुटकारा दिला दिया । इस पाषाणके स्पर्शमात्रसे मेरा कल्याण हो गया। तुम्हारे सिवा दूसरा कोई मेरा उद्धार करनेमें समर्थ नहीं था ।। ११-१२ ॥

ब्राह्मण बोले- सुव्रत ! मैं तो तुम्हारी बात सुनकर आश्चर्यमें पड़ गया हूँ। मुझमें तुम्हारा उद्धार करनेकी शक्ति नहीं है । पाषाण के स्पर्शका क्या फल है, यह भी मैं नहीं जानता; अतः तुम्हीं बताओ ॥ १३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



1 टिप्पणी:

  1. 🌹💖🥀🌹जय श्रीकृष्ण🙏🙏
    कृष्ण दामोदरम् वासुदेवम् हरि:
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    जय हो गोवर्धन गिरधारी महाराज
    जय श्री राधे गोविन्द

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