#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
बाईसवाँ अध्याय
श्रीकृष्ण का नन्दराज को वरुणलोक से ले आना और गोप-गोपियों को वैकुण्ठधाम का दर्शन कराना
श्रीनारद उवाच -
एकदा नंदराजोऽसौ कृत्वा चैकादशीव्रतम् ।
द्वादश्यां यमुनां स्नातुं गोपालैर्जलमाविशत् ॥ १ ॥
तं गृहीत्वा पाशिभृत्यः पाशिलोकं जगाम ह ।
तदा कोलाहले जाते गोपानां मैथिलेश्वर ॥ २ ॥
आश्वास्य सर्वान् भगवान् गतवान् वारुणीं पुरीम् ।
भस्मीचकार सहसा पुरीदुर्गं हरिः स्वयम् ॥ ३ ॥
कोटिमार्तंडसंकाशं दृष्ट्वा प्रकुपितं हरिम् ।
नत्वा कृतांजलिः पाशी परिक्रम्याह धर्षितः ॥ ४ ॥
वरुण उवाच -
नमः श्रीकृष्णचंद्राय परिपूर्णतमाय च ।
असंख्यब्रह्मांडभृते गोलोकपतये नमः ॥ ५ ॥
चतुर्व्यूहाय महसे नमस्ते सर्वतेजसे ।
नमस्ते सर्वभावाय परस्मै ब्रह्मणे नमः ॥ ६ ॥
केनापि मूढेन ममानुगेन
कृतं परं हेलनमद्य एव ।
तत्क्षम्यतां भोः शरणं गतं मां
परेश भूमन् परिपाहि पाहि ॥ ७ ॥
श्रीनारद उवाच -
इति प्रसन्नो भगवान् नंदं नीत्वा सुजीवितम् ।
सौख्यं प्रकाशयन्बंधून् व्रजमंडलमाययौ ॥ ८ ॥
नन्दराजमुखाच्छ्रुत्वा प्रभावं श्रीहरेस्तु तम् ।
गोपीगोपगणा ऊचुः श्रीकृष्णं नन्दनंदनम् ॥ ९ ॥
यदि त्वं भगवान्साक्षाल्लोकपालैः सुपूजितः ।
दर्शयाशु परं लोकं वैकुण्ठं तर्हि नः प्रभो ॥ १० ॥
नीत्वा सर्वान् ततः कृष्ण एत्य वैकुण्ठमंदिरम् ।
दर्शयामास रूपं स्वं ज्योतिर्मंडलमध्यगम् ॥ ११ ॥
सहस्रभूजसंयुक्तं किरीटकटकोज्ज्वलम् ।
शंखचक्रगदापद्मवनमालाविराजितम् ॥ १२ ॥
असंख्यकोटिमार्तंड संकाशं शेषसंस्थितम् ।
चामरांदोलदिव्याभं ब्रह्माद्यैः परिसेवितम् ॥ १३ ॥
तदैव तान् गोपगणान् पार्षदास्ते गदाधराः ।
ऋजुं कृत्वा नतिं धृत्वा दूरे स्थाप्य प्रयत्नतः ॥ १४ ॥
चकितानिव तान्वीक्ष्य प्रोचुस्ते पार्षदा गिरा ।
रे रे तूष्णीं प्रभवत मा वक्तव्यं वनेचराः ॥ १५ ॥
भाषणं मा प्रकुरुत न दृष्ट्वा किं सभा हरेः ।
वेदा वदंति चात्रैव साक्षाद्देवे स्थिते प्रभौ ॥ १६ ॥
इति शिक्षां गता गोपा हर्षिता मौनमास्थिताः ।
मनस्यूचुरयं कृष्ण उच्चसिंहासने स्थितः ॥ १७ ॥
अस्मान् दूरादधःकृत्वा ऽस्माभिर्वक्ति न कर्हिचित् ।
तस्माद्व्रजाद्वरं नास्ति कोपि लोको न सौख्यदः ॥ १८ ॥
यत्रानेन स्वभ्रात्रापि वार्ता स्याद्धि परस्परम् ।
इतिप्रवदतस्तान्वै नीत्वा श्रीभगवान् हरिः ।
व्रजमागतवान् राजन् परिपूर्णतमः प्रभुः ॥ १९ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- एक दिनकी बात है, नन्दराज एकादशीका
व्रत करके द्वादशीको निशीथ कालमें ही ग्वालोंके साथ यमुना स्नानके लिये गये और जलमें
उतरे । वहाँ वरुणका एक सेवक उन्हें पकड़कर वरुण-लोकमें ले गया। मैथिलेश्वर ! उस समय
ग्वालोंमें कुहराम मच गया; तब उन सबको आश्वासन दे भगवान् श्रीहरि वरुणपुरीमें पधारे
और उन्होंने सहसा उस पुरीके दुर्गको भस्म कर दिया। करोड़ों सूर्योक समान तेजस्वी श्रीहरिको
अत्यन्त कुपित हुआ देख वरुणने तिरस्कृत होकर उन्हें नमस्कार किया और उनकी परिक्रमा
करके हाथ जोड़कर कहा ।। १-४ ॥
वरुण बोले- श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार है। परिपूर्णतम
परमात्मा तथा असंख्य ब्रह्माण्डोंका भरणपोषण करनेवाले गोलोकपतिको नमस्कार है। चतुर्व्यूहके
रूपमें प्रकट तेजोमय श्रीहरिको नमस्कार है। सर्वतेजःस्वरूप आप परमेश्वरको नमस्कार है
। सर्वस्वरूप आप परब्रह्म परमात्माको नमस्कार है। मेरे किसी मूर्ख सेवक ने यह पहली बार आपकी अवहेलना की है; उसके लिये आप मुझे क्षमा करें।
परेश ! भूमन् ! मैं आपकी शरणमें आया हूँ; आप मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥ ५-७
॥
नारदजी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर प्रसन्न हुए भगवान्
श्रीकृष्ण नन्दजीको जीवित लेकर अपने बन्धुजनोंको सुख प्रदान करते हुए व्रजमण्डलमें
लौट आये ॥ ८ ॥
नन्दराजके मुखसे श्रीहरिके उस प्रभावको सुनकर गोपी
और गोप- समुदाय नन्दनन्दन श्रीकृष्णसे बोले- 'प्रभो! यदि आप लोकपालोंसे पूजित साक्षात्
भगवान् हैं तो हमें शीघ्र ही उत्तम वैकुण्ठ- लोकका दर्शन कराइये।' तब उन सबको लेकर
श्रीकृष्ण वैकुण्ठधाममें गये और वहाँ उन्होंने ज्योतिर्मण्डलके मध्यमें विराजमान अपने
स्वरूपका उन्हें दर्शन कराया ॥ ९-११ ॥
उनके सहस्र भुजाएँ थीं, किरीट और कटक आदि आभूषणोंसे
उनका स्वरूप और भी भव्य दिखायी देता था। वे शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म और वनमाला से सुशोभित थे ॥ १२ ॥
असंख्य कोटि सूर्यों के समान
तेजस्वी स्वरूपसे वे शेषनागकी शय्यापर पौढ़े थे। चँवर डुलाये जानेसे उनकी आभा और भी
दिव्य जान पड़ती थी । ब्रह्मा आदि देवता उनकी सेवामें लगे थे ॥ १३ ॥
उस समय भगवान् के गदाधारी पार्षदोंने
उन गोपगणोंको सीधे करके उनसे प्रणाम करवाकर उन्हें प्रयत्नपूर्वक दूर खड़ा किया और
उन्हें चकित सा देख वे पार्षद बोले— 'अरे वनचरो ! चुप हो जाओ । यहाँ वक्तृता न दो,
भाषण न करो। क्या तुमने श्रीहरिकी सभा कभी नहीं देखी है ? यहीं सबके प्रभु देवाधिदेव
साक्षात् भगवान् स्थित होते हैं और वेद उनके गुण गाते हैं।' इस प्रकार शिक्षा देनेपर
वे गोप हर्षसे भर गये और चुपचाप खड़े हो गये। अब वे मन-ही-मन कहने लगे- 'अरे! यह ऊँचे
सिंहासनपर बैठा हुआ हमारा श्रीकृष्ण ही तो है ॥ १४-१७ ॥
हम समीप खड़े हैं, तो भी हमें नीचे खड़ा करके ऊँचे
बैठ गया है और हमसे क्षणभरके लिये बाततक नहीं करता । इसलिये व्रजसे बढ़कर न कोई श्रेष्ठ
लोक है और न उससे बढ़कर दूसरा कोई सुखदायक लोक है; क्योंकि व्रजमें तो यह हमारा भाई
रहा है और इसके साथ हमारी परस्पर बातचीत होती रही है।' राजन् ! इस प्रकार कहते हुए
उन गोपोंके साथ परिपूर्णतम प्रभु भगवान् श्रीहरि व्रजमें लौट आये ॥ १८-१९॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'नन्द आदिका वैकुण्ठदर्शन' नामक बाईसवाँ अध्याय पूरा
हुआ ॥ २२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🥀💖🌹🌹जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
हरि:हरये नमः कृष्ण माधवाय
नमः 🙏
गोपाल गोविंद राम श्री मधुसूदन: