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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
तेईसवाँ अध्याय
अम्बिकावन में अजगर से नन्दराज की रक्षा तथा सुदर्शन नामक विद्याधर का उद्धार
श्रीनारद उवाच -
एकदा नृप गोपालाः शकटै रत्नपूरितैः ।
वृषभानूपनन्दाद्या आजग्मुश्चांबिकावनम् ॥ १ ॥
भद्रकालीं पशुपतिं पूजयित्वा विधानतः ।
ददुर्दानं द्विजातिभ्यः सुप्तास्तत्र सरित्तटे ॥ २ ॥
तत्रैको निर्गतो रात्रौ सर्पो नन्दं पदेऽग्रहीत् ।
कृष्ण कृष्णेति चुक्रोश नन्दोऽतिभयविह्वलः ॥ ३ ॥
तदोल्मुकैर्गोपबालास्तोदुराजगरं नृप ।
पदं सोऽपि न तत्याज सर्पोऽथ स्वमणिं यथा ॥ ४ ॥
तताड स्वपदा सर्पं भगवान् लोकपावनः ।
त्यक्त्त्वा तदैव सर्पत्वं भूत्वा विद्याधरः कृती ।
नत्वा कृष्णं परिक्रम्य कृतांजलिपुटोऽवदत् ॥ ५ ॥
सुदर्शन उवाच -
अहं सुदर्शनो नाम विद्याधरवरः प्रभो ।
अष्टावक्रं मुनिं दृष्ट्वा हसितोऽस्मि महाबलः ॥ ६ ॥
मह्यं शापं ददौ सोऽपि त्वं सर्पो भव दुर्मते ।
तच्छापादद्य मुक्तोऽहम् कृपया तव माधव ॥ ७ ॥
त्वत्पादपद्ममकरंदरजःकणानां
स्पर्शेन दिव्यपदवीं सहसागतोऽस्मि ।
तस्मै नमो भगवते भुवनेश्वराय
यो भूरिभारहरणाय भूवोऽवतारः ॥ ८ ॥
श्रीनारद उवाच -
इति नत्वा हरिं कृष्णं राजन् विद्याधरस्तु सः ।
जगाम वैष्णवं लोकं सर्वोपद्रव वर्जितम् ॥ ९ ॥
नंदाद्या विस्मिताः सर्वे ज्ञात्वा कृष्णं परेश्वरम् ।
अंबिकावनतः शीघ्रमाययुर्व्रजमंडलम् ॥ १० ॥
इदं मया ते कथितं श्रीकृष्णचरितं शुभम् ।
सर्वपापहरं पुण्यं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ११ ॥
बहुलाश्व उवाच -
अहो श्रीकृष्णचन्द्रस्य चरितं परमाद्भुतम् ।
श्रुत्वा मनो मे तच्छ्रोतुमतृप्तं पुनरिच्छति ॥ १२ ॥
अग्रे चकार कां लीलां लीलया व्रजमंडले ।
हरिर्व्रजेशः परमो वद देवर्षिसत्तम ॥ १३ ॥
नारदजी कहते हैं— नरेश्वर ! एक समय वृषभानु और उपनन्द
आदि गोपगण रत्नोंसे भरे हुए छकड़ोंपर सवार होकर अम्बिकावनमें आये ॥ १ ॥
वहाँ भगवती भद्रकाली और भगवान् पशुपतिका विधिपूर्वक
पूजन करके उन्होंने ब्राह्मणोंको दान दिया और रातको वहीं नदीके तटपर सो गये । वहाँ
रातमें एक सर्प निकला और उसने नन्दका पैर पकड़ लिया । नन्द अत्यन्त भयसे विह्वल हो
'कृष्ण-कृष्ण' पुकारने लगे। नरेश्वर ! उस समय ग्वाल-बालोंने जलती हुई लकड़ियाँ लेकर
उसीसे उस अजगरको मारना शुरू किया, तो भी उसने नन्दका पाँव उसी तरह नहीं छोड़ा, जैसे
मणिधर साँप अपनी मणिको नहीं छोड़ता । तब लोकपावन भगवान् - ने उस सर्पको तत्काल पैरसे
मारा। पैरसे मारते ही वह सर्पका शरीर त्यागकर कृतकृत्य विद्याधर हो गया। उसने श्रीकृष्णको
नमस्कार करके उनकी परिक्रमा की और हाथ जोड़कर कहा ॥ २ -५ ॥
सुदर्शन बोला- प्रभो ! मेरा नाम सुदर्शन है, मैं विद्याधरोंका
मुखिया हूँ । मुझे अपने बलका बड़ा
घमंड था और मैंने अष्टावक्र मुनिको देखकर उनकी हँसी
उड़ायी थी । तब उन्होंने मुझे शाप दे दिया— 'दुर्मते ! तू सर्प हो जा ।' माधव ! उनके
उस शापसे आज मैं आपकी कृपासे मुक्त हुआ हूँ । आपके चरण- कमलोंके मकरन्द एवं परागके
कणोंका स्पर्श पाकर मैं सहसा दिव्य पदवीको प्राप्त हो गया। जो भूतलका भूरि-भार- हरण
करनेके लिये यहाँ अवतीर्ण हुए हैं, उन भगवान् भुवनेश्वर को बारंबार नमस्कार है ।। ६–८ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णको
नमस्कार करके वह विद्याधर सब प्रकारके उपद्रवोंसे रहित वैष्णवलोकको चला गया। उस समय
श्रीकृष्णको परमेश्वर जानकर नन्द आदि गोप बड़े विस्मित हुए। फिर वे शीघ्र ही अम्बिकावनसे
व्रजमण्डलको चले गये। इस प्रकार मैंने तुमसे श्रीकृष्णके शुभ चरित्रका वर्णन किया,
जो पुण्यप्रद तथा सर्वपापहारी है। अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ९ – ११ ॥
बहुलाश्व बोले- अहो ! श्रीकृष्णचन्द्र का चरित्र अत्यन्त अद्भुत है, उसे सुनकर मेरा मन पुनः उसे सुनना चाहता
है। देवर्षिसत्तम । व्रजेश्वर परमात्मा श्रीहरि ने व्रज-मण्डल में आगे चलकर कौन-सी लीला की ? ॥ १२-१३ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत 'सुदर्शनोपाख्यान' नामक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🌹💖🌺🥀जय श्रीकृष्ण🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव !!
नारायण नारायण नारायण नारायण
Hare Krishna! Uttam jaankaari!
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