॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०३)
विदुरजीका प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन
येन प्रजानामुत आत्मकर्म
रूपाभिधानां च भिदां व्यधत्त ।
नारायणो विश्वसृगात्मयोनिः
एतच्च नो वर्णय विप्रवर्य ॥ ९ ॥
परावरेषां भगवन् व्रतानि
श्रुतानि मे व्यासमुखादभीक्ष्णम् ।
अतृप्नुम क्षुल्लसुखावहानां
तेषामृते कृष्णकथामृतौघात् ॥ १० ॥
कस्तृप्नुयात्तीर्थपदोऽभिधानात्
सत्रेषु वः सूरिभिरीड्यमानात् ।
यः कर्णनाडीं पुरुषस्य यातो
भवप्रदां गेहरतिं छिनत्ति ॥ ११ ॥
मुनिर्विवक्षुर्भगवद्गुणानां
सखापि ते भारतमाह कृष्णः ।
यस्मिन् नृणां ग्राम्यसुखानुवादैः
मतिर्गृहीता नु हरेः कथायाम् ॥ १२ ॥
(विदुरजी मैत्री जी से कह रहे हैं) द्विजवर ! उन विश्वकर्ता स्वयम्भू श्रीनारायण ने अपनी प्रजाके स्वभाव, कर्म, रूप और नामोंके भेदकी किस प्रकार रचना की है ? भगवन् ! मैंने श्रीव्यासजी के मुख से ऊँच-नीच वर्णों के धर्म तो कई बार सुने हैं। किन्तु अब श्रीकृष्णकथामृत के प्रवाह को छोडक़र अन्य स्वल्पसुखदायक धर्मों से मेरा चित्त ऊब गया है ॥ ९-१० ॥ उन तीर्थपाद श्रीहरिके गुणानुवादसे तृप्त हो भी कौन सकता है। उनका तो नारदादि महात्मागण भी आप-जैसे साधुओंके समाजमें कीर्तन करते हैं तथा जब ये मनुष्योंके कर्णरन्ध्रों में प्रवेश करते हैं, तब उनकी संसारचक्र में डालनेवाली घर-गृहस्थी की आसक्ति को काट डालते हैं ॥ ११ ॥ भगवन् ! आपके सखा मुनिवर कृष्णद्वैपायन ने भी भगवान् के गुणों का वर्णन करने की इच्छासे ही महाभारत रचा है। उसमें भी विषयसुखों का उल्लेख करते हुए मनुष्यों की बुद्धि को भगवान् की कथाओं की ओर लगाने का ही प्रयत्न किया गया है ॥ १२ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
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